Tuesday, March 24, 2020


सड़कों पर जो ख़ूनी, बर्बर दंगाइयों की भीड़ उमड़ पड़ती है, वह बड़े व्यवस्थित ढंग से एक लम्बे समय में तैयार की जाती है ! एक संकटग्रस्त, रोगी पूँजीवादी समाज में बेरोज़गारी, मंहगाई और ज़िंदगी की तमाम परेशानियों से जूझती आबादी को, विशेषकर युवाओं को यह घुट्टी पिलाई जाती है कि उनकी तमाम परेशानियों के पीछे वे लोग हैं जिनका धर्म अलग है ! उन्हें छद्म राष्ट्रवाद की खुराक़ें दी जाती हैं, किसी पड़ोसी देश को लगातार दुश्मन बताया जाता है और कहा जाता है कि देश के "विधर्मियों" की वफ़ादारी अपने देश के प्रति न होकर उस "दुश्मन" देश के प्रति है ! उन्हें बताया जाता है कि इन विधर्मियों ने उनपर सदियों से ज़ुल्म किये हैं और अब भी उनके रोज़गार के बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा करके बैठे हैं ! उनके दिल में यह बात बैठा दी जाती है कि वे सेक्युलर लोग सबसे बड़े गद्दार और धर्मद्रोही हैं जो इन "विधर्मियों का पक्ष लेते हैं" और उन्हें बराबर का नागरिक मानते हैं !

जिस देश में बड़े पैमाने पर अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, पिछड़ेपन और अंधविश्वासों का बोलबाला हो और जिस देश के सामाजिक तानाबाना में जनवादी मूल्यों और चेतना का पहले से ही नितांत अभाव हो, वहाँ इस तरह के दुष्प्रचार को ज्यादा आसानी से बल मिलता है और समाज में विवेकहीन जूनून की लहर तेज़ी से फैलती है ! इसतरह संकटग्रस्त पूँजीवादी व्यवस्था अपने पक्ष में तृणमूल स्तर से मध्यवर्ग का एक धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करती है !

सड़कों पर दंगाई खूनी ज़ोम्बियों की जो भीड़ उमड़ती है, उनमें बड़ी तादाद में पीले बीमार चेहरों वाले अवसादग्रस्त मध्यवर्गीय युवा होते हैं, जिनकी आत्मा पर तमाम मानवद्रोही रोगों के चकत्ते होते हैं और आँखें उन्माद से फटी होती हैं ! इनके अतिरिक्त इनमें लम्पट सर्वहारा युवाओं की एक भारी तादाद भी होती है, जो उत्पादन की प्रक्रिया से कटे हुए हैं और जिनकी चेतना का विमानवीकरण हो चुका है ! इस तरह फासिस्ट राजनीति आम लोगों के एक बड़े हिस्से को उन्हीं के वर्ग-हित के ख़िलाफ़ खड़ा कर देती है और मेहनतकशों की वर्गीय एकजुटता को तोड़कर पूँजीवादी व्यवस्था की सेवा करती है !

पीले बीमार चेहरों वाले उन्मादी वहशी दंगाइयों के पीछे वातानुकूलित मंत्रणा-कक्षों में बैठे चिकने-चमकते चेहरों वाले सिद्धांतकार और नीति-निर्माता होते हैं, भद्र जन का मुखौटा लगाए प्रचारक, शिक्षक और बुद्धिजीवी होते हैं ! जो अखबारों में ज़हरीले लेख लिखते हैं, टीवी के चैनलों पर मुँह से झूठ की बौछार करते हुए चीखते हैं, शाखाओं और शिशु मंदिरों में अपना काम करते हैं और संसद-विधानसभाओं में बैठकर दंगों के लिए उनका शिकार हुए लोगों को ही दोषी ठहराते हैं, वे मानसिक तौर पर उतने ही बेरहम हत्यारे दंगाई होते हैं जितना सड़कों पर छुरा-त्रिशूल-तलवार और कट्टा लेकर उमड़ने वाली भीड़ के सदस्य !

फासिज्म का एक पूरा सिस्टम है, उसे समझे बिना उसका सामना नहीं किया जा सकता ! सड़कों पर रामधुन और निर्गुण भजन गाकर और राष्ट्रगान गाकर और सर्व धर्म समभाव की दुहाई देकर फासिस्टों का और उनकी दंगा वाहिनियों का ह्रदय-परिवर्तन नहीं किया जा सकता ! एक लम्बी और सुव्यवस्थित तैयारी करके ही फासिज्म का मुकाबला किया जा सकता है ! फासिज्म को सुधारा नहीं जा सकता ! उसे कुचलना ही एकमात्र विकल्प है ! फासिज्म मध्य वर्ग का एक धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है ! मज़दूरों, मेहनतकशों और प्रगतिशील जुझारू मध्यवर्गीय युवाओं का एक सामाजिक आन्दोलन खड़ा करके ही फासिज्म के ख़िलाफ़ एक दीर्घकालिक लड़ाई लड़ी जा सकती है !

पिछले दिनों वहशी ज़ोम्बियों की जिस भीड़ ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली की सड़कों पर खूनी उत्पात मचाया, यह एक लम्बे समय में तैयार की गयी है ! यह आडवाणी की रथ-यात्रा, बाबरी मस्जिद-ध्वंस और गुजरात-2002 में सड़कों पर उतरी थी ! बीच-बीच में यहाँ-वहाँ होने वाले दंगों में इसकी विध्वंसकारी ताक़त को तोलने का काम होता रहा ! 2014 के बाद इनके ब्रीडिंग ग्राउंड्स का पूरे देश में भयंकर विस्तार हुआ है ! पूरा देश इन्हें जगह-जगह मॉब लिंचिंग करते, पार्कों में प्रेमी जोड़ों को दौडाते-पीटते, विश्वविद्यालयों में हमले और तोड़फोड़ करते, बुद्धिजीवियों की हत्याएँ करते और दंगे उकसाते देखता रहा है ! ज़ोम्बियों की यही भीड़ है, जो आसिफा के बलात्कारियों के पक्ष में जुलूस निकालती है, ज़मानत पर छूटे बलात्कारी विधायक सेंगर के स्वागत के लिए उमड़ पड़ती है, प्रशान्तभूषण जैसे मानवाधिकारकर्मियों पर हमले करती है ! ज़ोम्बियों की इस भीड़ को तैयार करने में हिन्दुत्ववादी फासिस्टों के आई टी सेल और व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी की तथा गोदी मीडिया के भाड़े के टट्टुओं की भी विशेष भूमिका है ! एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि पुलिस और अर्धसैनिक बल भी आज पूरीतरह इन दंगाइयों के सहयोगी बन चुके हैं ! न्यायपालिका और सभी सरकारी एजेंसियों को फासिस्टों की सत्ता इसतरह से साध चुकी है कि दंगाई निश्चिन्त रहते हैं कि उनका कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है ! गुजरात-2002 के सभी अभियुक्तों को बरी होते उन्होंने देखा है, सोहराबुद्दीन और इशरत जहाँ के फर्जी मुठभेड़ों का हश्र देखा है, जस्टिस लोया का हश्र देखा है और दर्ज़नों गवाहों का मर्डर होते देखा है !

हिन्दुस्तान में हिन्दुत्ववादी फासिज्म का एक नया दौर शुरू हो चुका है ! माँदों में दुबककर बच पाना मुश्किल है ! संगठित होकर लड़ना ही एकमात्र विकल्प है ! सड़कों पर उतरना होगा ! आम मेहनतकश लोगों को लामबंद करना होगा ! सिर्फ़ राजधानी की सड़कों पर प्रतीकात्मक विरोध-प्रदर्शनों और सोशल मीडिया पर बिस्तर में बैठे-बैठे बातबहादुरी करते रहने से कुछ नहीं होगा !

(28फरवरी, 2020)

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