क्या आपने दंगाइयों की भीड़ में शामिल दस-दस बारह-बारह साल के बच्चों को देखा ? क्या इससे ज़्यादा भयावह कुछ भी हो सकता है ? इन बच्चों का बचपन छीन लिया गया है ! इनकी आँखों से मासूम सपनों को खुरच कर साफ़ कर दिया गया है ! अगर बच्चों को भी रक्तपिपासु जोम्बी में तब्दील कर दिया गया हो तो आप सोचिये कि फासिस्टों के शिक्षा और प्रचार के ज़हरीले तंत्र ने, व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी ने, गोदी मीडिया के चैनलों के चीखते-चिल्लाते एंकरों ने, संघी दरिंदों के भड़काऊ भाषणों ने और भाजपा के आई टी सेल ने कितने व्यवस्थित ढंग से दिन-रात काम करके माहौल में इतना ज़हर घोला है ! क्या आपको 1930 के दशक के जर्मनी की वह प्रसिद्ध तस्वीर नहीं याद आ रही है जिसमें छोटे-छोटे बच्चे हाथ में डंडे और रॉड लिए खून से लथपथ, अस्त-व्यस्त कपड़ों वाली अपनी माँ की उम्र की एक यहूदी स्त्री का पीछा कर रहे हैं ?
समाज अगर इतना बीमार हो जाए तो इसका खामियाजा दशकों तक आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ता है ! हिटलर के पतन के बाद जर्मनी में आम जर्मन नागरिक उसका नाम तक लेने पर शर्म से सर नीचा कर लेते थे ! जो हिटलर के समर्थक थे उनमें से बहुतों को, उनके बेटों और पोतों तक को, बाद में हीनता-बोध, लज्जा और अवसाद के चलते मनश्चिकित्सकों से अपना इलाज कराना पड़ा था ! ऐसा ही कुछ मुसोलिनी के पतन के बाद इटली में भी हुआ था !
अगर समाज बीमार, इसकदर बेहद बीमार हो तो हम रसरंजन करते हुए साहित्योत्सव कैसे मना सकते हैं ? एकान्तिक प्रेम, बसंत और प्रकृति की कविताओं में कैसे डूबे रह सकते हैं ? पुरस्कृत और सम्मानित होकर, अपनी पुस्तकें छपवाकर, उनका विविध भाषाओं में अनुवाद कराकर गदगदायमान भला कैसे होते रह सकते हैं ? दफ्तर से घर और घर से दफ्तर का रुटीनी, सुरक्षित जीवन भला कैसे जीते रह सकते हैं ? फेसबुक पर सेल्फी डालकर, प्रोफाइल बदलकर, वर्षगांठों की बधाइयों का आदान-प्रदान मात्र करते रहकर प्रसन्न कैसे रह सकते हैं ? मुमकिन है, हमारे बच्चे भी कल जोम्बी बना दिए जाएँ, या फिर वे ज़ोम्बियों के शिकार हो जाएँ ! ऐसे में लू शुन की प्रसिद्ध कहानी 'एक पागल की डायरी' के पागल पात्र की तरह कम से कम चीखकर लोगों को चेताना तो होगा ही कि 'हो सके तो बच्चों को तो बचा लो ! शायद उन्होंने नरमांस का स्वाद अभी नहीं चखा हो !'
जो नरभक्षी हैं वे आने वाली पीढ़ियों को भी नरभक्षी बनाना चाहते हैं ! फासिस्ट ज़ोम्बियों की इस पूरी प्रजाति को ही नष्ट करना होगा ! इनके विचारों से लड़ना होगा, वैकल्पिक जन-संस्थाएं खड़ी करके इनकी संस्थाओं के प्रभाव और आधार की काट करनी होगी, वैकल्पिक मीडिया का तंत्र खड़ा करके इनके विराट प्रचार-तंत्र का मुकाबला करना होगा, लम्बे समय से अराजनीतिक और अर्थवादी चेतना के पंक-कुण्ड में डुबो दिए गए मज़दूर वर्ग को जुझारू वर्ग-चेतना के आधार पर नए सिरे से संगठित करना होगा और मेहनतकशों और रेडिकल युवाओं के वालंटियर दस्ते संगठित करने होंगे ! आप अगर कहेंगे कि ये सब तो बहुत सारे काम हैं, चुनौतीपूर्ण और कठिन काम हैं, दीर्घकालिक काम हैं ! तो हम कहेंगे कि तबाही से बचने का और कोई रास्ता भी तो नहीं है ! और फिर, लम्बी से लम्बी यात्रा की शुरुआत एक छोटे से कदम से ही तो होती है !
(28फरवरी, 2020)
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