Tuesday, March 31, 2020

कोरोना काल में एक और किस्सा सुनिए !


बादशाह सलामत को हमेशा ख़ुश रहना पसंद था I जब वह ख़ुश रहते थे तो सभी दरबारी और ओहदेदार खुश रहते थे और वे बताते थे कि रिआया बहुत खुश है I इससे बादशाह और खुश हो जाया करते थे !

बादशाह चाहते थे कि तमाम अदीब और फ़नकार उनको खुश रखें और अक्सर ही दरबार में ऐसे अदीबों और फ़नकारों को बख्शिशऔर इनामो-इकराम से नवाज़ा जाता था I बादशाह चाहते थे कि तमाम ख़ूबसूरत औरतें, चाहे वो रक़्क़ासा हों या शरीफ़ज़ादियाँ, अगर उनपर बादशाह का दिल आ गया तो वो उन्हें ख़ुश करें ! बादशाह जब ख़ुश हो जाते थे तो उन्हें अपने दीवाने-ख़ास, या यहाँ तक कि इक़्तिदारे-आला तक में जगह दे देते थे I और जैसे ही कोई बादशाह की नज़रों से उतर जाता था, या बादशाह का उससे मन भर जाता था, वो जल्दी ही गुमनामी के अँधेरे में खो जाता था, कहीं दूर के वीरान ताल्लुके में रियासतदार बनाकर भेज दिया जाता था, या फिर इस दुनिया से ही चुपचाप रुख़सत हो जाता था I

फिर भी कुछ ऐसे लोग थे जिन्होंने बादशाह को इस क़दर ख़ुश किया, इस क़दर ख़ुश किया, कि हरदम उनके ख़ासुलख़ास बने रहे ! सल्तनत के वज़ीरे आला उनमें से एक थे ! वो कभी एक सड़क-चौराहे के बदनाम गुण्डे और भाड़े के क़ातिल हुआ करते थे, पर अपनी क़ाबिलियत और वफ़ादारी की बदौलत बरसों से बादशाह की सबसे बड़े राज़दार थे, उनके दाहिना हाथ थे !

एक मुंसिफ़ ने भी लगातार बादशाह की मर्ज़ी-मुताबिक़ इंसाफ़ करके बहुत दिल जीता था और तरक्की करते हुए शहर-क़ाज़ी के ओहदे तक जा पहुँचे थे ! वहाँ भी फ़ैसले लिखते वक़्त उनकी कलम में जैसे बादशाह की रूह आ जाया करती थी I पहले मैं बता चुकी हूँ कि शहर क़ाज़ी की बेपनाह ख़िदमत से खुश होकर बादशाह सलामत ने उनके बूढ़े होकर सबुकदोष होने के बाद अपने दीवाने-ख़ास में तक़र्रुर अता फरमाया था I क़ाज़ी साहब अभी भी बादशाह को और ख़ुश करना चाहते थे, उनकी नज़रों में और ऊपर चढ़ना चाहते थे !

एक दिन वह बादशाह की ख़िदमत में अकेले में हाज़िर हुए औए मचलकर बोले," हुज़ूर ! ज़िल्ल-ए-सुब्हानी ! मैं अपनी ख़िदमत और वफ़ादारी से हुज़ूर को और खुश करना चाहता हूँ ! अब आप ही बतायें कि मैं क्या करूँ !"

बादशाह सलामत देर तक ठहाके लगाकर हँसते रहे ! बोले,"क़ाज़ी साहब, आप परले दर्ज़े के अहमक हैं, गावदी हैं ! अमां, आप कोई परीसूरत और परीसीरत खातून तो हैं नहीं जो मुझे खुश कर देंगे हर सूरत में ! आप वज़ीरे-आज़म जितने काइयाँ और मक्कार सियासतदाँ भी नहीं हो सकते ! आपने शहर क़ाज़ी रहते हुए मुझे मेरे प्यारे कुत्ते की तरह, मेरी सबसे ख़ास रक्कासा की तरह खुश किया ! आपको आपकी ख़िदमत और वफ़ादारी का इनाम मिल चुका है ! अब मेरे दीवाने-ख़ास में बुढ़ापे के बचे हुए दिन काटिए और अपने क़ानूनी दिमाग़ का इस्तेमाल करते रहिये ! हो सकता है अभी आपकी किस्मत में कुछ और तरक्क़ी लिखी हो ! कौन जाने, वक़्त अभी आप पर और मेहरबानी की बारिश करने वाला हो ! मगर ज़्यादा लालची होना अच्छी बात नहीं ! ख़ुद पे क़ाबू कीजिए ! देखिये, मेरा कुत्ता भी आपको घूर रहा है ! उसे लगता है कि आप अब उसकी जगह लेना चाहते हैं !"

क़ाज़ी साहब जब वहाँ से रुखसत हुए तो रास्ते भर इसी मसले पर सोचते रहे कि अब आख़िरकार ऐसा क्या-क्या किया जा सकता है कि बादशाह सलामत का दिल एकदम बाग़-बाग़ हो जाए ! वो इस क़दर अपनी धुन में खोये हुए थे कि इसपर गौर ही नहीं कर पाए कि आसपास से गुज़रते लोग उन्हें देखकर यूँ किनारे हट जा रहे हैं गोया वह कोई कोढ़ी हों और और बाजू में झुककर 'पच्च' से थूक दे रहे हैं !

(22मार्च, 2020)

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