फासिस्ट प्रचार की ज़हरीली ख़ुराक पर लम्बे समय तक पलकर तैयार हुए एक हत्यारे जोम्बी ने आज हाथ में पिस्तौल लहराते हुए सामने से आते जुलूस पर गोली दाग दी I उसके ठीक पीछे दिल्ली पुलिस के जवान हाथ बाँधे खड़े थे !
ऐसे ही तैयार किये गए जुनूनी हत्यारों ने कभी दाभोलकर, पानसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या की, मॉब लिंचिंग में दर्ज़नों बेगुनाहों को बर्बरतापूर्वक सड़क पर घसीटकर मौत के घात उतारा, दंगों में वीभत्स कारनामों को अंजाम दिया और सड़कों पर, कैम्पसों में आतंक फैलाते रहे !
अब फासिस्ट मुहिम का अगला चरण हमारे सामने है ! अब राज्य-सत्ता के सशस्त्र दस्ते भारतीय हिटलर, हिमलर, गोएबल्स और गोएरिंग के आतंकी हत्यारे दस्तों के साथ खुलेआम मिलकर काम कर रहे हैं ! हत्यारे उनके संरक्षण में अपने कारनामों को अंजाम दे रहे हैं और आगे ऐसा खेल और खुलकर खेला जाएगा !
जिन पीले बीमार चेहरे वाले मध्यवर्गीय युवाओं को, और मेहनतक़श आबादी के जिन विमानवीकृत, वर्ग-च्युत संतानों को दिमाग से खाली, फटी आँखों वाले प्रचार-सम्मोहित हत्यारों में तब्दील किया जा रहा है, उनके पीछे चमकते चर्बीले चेहरों वाले हिन्दुत्ववादी फासिस्ट नीति-निर्माता, प्रचारक और नेता बैठे हैं ! वे ऐसे हत्यारे हैं जिनकी आस्तीनों पर लहू के सुराग़ कभी नज़र नहीं आते ! दंगाई और जुनूनी जोम्बी तैयार करने वाली फैक्ट्री के मैनेजर, इंजीनियर, सुपरवाइजर वे हैं जो नागपुर में बैठे चिंतन और नीति-निर्देश का काम कर रहे हैं, संसद में भगवा पटका डाले बुर्जुआ जनवाद का खेल खेल रहे हैं, चैनलों पर बकवास करते हुए ज़हरीले नागों की तरह ज़हर की पिचकारी छोड़ रहे हैं और मंचों से ड्रैगन की तरह आग की लपटें फेंक रहे हैं ! इनके अपने बेटे-बेटियाँ सुरक्षित और विलासितापूर्ण माहौल में, देश या विदेश में पलते और पढ़ते हुए पूँजी और सत्ता का खेल खेलना सीख रहे हैं, क्योंकि उन्हें जोम्बी नहीं, जोम्बी को नियंत्रित करने वाला बनना है ! फासिस्ट जोम्बी बनाने के लिए चुनते हैं आम घरों के पीले-बीमार चेहरे वाले कुण्ठित, अवसादग्रस्त, अर्द्ध-मनोरोगी टाइप युवाओं को या समाज के तलछट में पालने वाले उन अमानवीकृत आवारा, लम्पटों और गुंडों को जो इस सड़ी हुई सामाजिक व्यवस्था के ही उत्पाद होते हैं ! सड़ी-गली पुरातन परम्पराओं-संस्थाओं के बाड़े में इन जोम्बी बनाए जाने वालों को पाला जाता है, इन्हें अतीत की प्रेत-पूजा, धर्मान्धता और अति-राष्ट्रवाद का चारा-चुग्गा खिलाया जाता है और बीच-बीच में इस बात की जाँच की जाती है कि इनके कायांतरण की प्रक्रिया अभी पूरी हुई है या नहीं !
हमें किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए ! अवाम पर कहर बरपा करने वाली फासिस्ट नीतियों के ख़िलाफ़ जैसे-जैसे युवाओं, मज़दूरों, आम मध्य वर्ग के लोगों और स्त्रियों का सड़कों पर उतरना बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे इन भारतीय हिटलरी दस्तों का खूनी उत्पात भी बढ़ता जाएगा और सत्ता का शस्त्र-बल पूरीतरह से उनकी पीठ पर, और उनके साथ खड़ा होगा ! निश्चय ही देश में हिन्दुत्ववादी फासिज्म के ख़िलाफ़ एक जन-उभार की शुरुआत हो चुकी है, पर लड़ाई अभी लम्बी चलेगी, फैसला इतनी जल्दी नहीं होना है ! हमें एक लम्बी लड़ाई के लिए मानसिक तौर पर तैयार रहना होगा और लोगों को तैयार करना होगा ! फासिज्म के विरुद्ध संघर्ष कई चढ़ावों और उतारों से होकर आगे बढेगा, ज्वार और फिर भाटे की तरह ! हमारे पास उतार के दौर के लिए भी रणनीति होनी चाहिए !
फासिस्ट अगर सरकार में नहीं होंगे, तब भी वे ग्रासरूट स्तर पर अनवरत अपने काम में लगे रहेंगे और समय-समय पर आतंक और खूनी उत्पात का खेल खेलते रहेंगे ! इसलिए यह समझ लिया जाना चाहिए कि फासिज्म को केवल चुनाव में हराकर और सत्ता से हटाकर निर्णायक तौर पर नहीं हराया जा सकता ! उन्हें नेस्तनाबूद कर देना ही एकमात्र विकल्प हो सकता है ! इतिहास का भी यही सबक है !
फासिज्म तृणमूल स्तर से एक कैडर-आधारित संगठन द्वारा खड़ा किया गया धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है जो वित्तीय पूँजी की सेवा करता है ! यह संकटग्रस्त पूँजीवाद की उपज है ! इसका मुकाबला सिर्फ़ तृणमूल स्तर से व्यापक मेहनतक़श जनसमुदाय और रेडिकल प्रगतिशील मध्यवर्गीय युवाओं का एक जुझारू प्रगतिकामी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करके, तथा, फासिस्ट दस्तों का सड़कों पर मुकाबला करने के लिए मज़दूरों और क्रांतिकारी युवाओं के दस्ते संगठित करके ही किया जा सकता है ! बेशक, यह एक लंबा और कठिन काम है, पर अंतिम निर्णायक विकल्प यही है ! इसलिए, फौरी तौर पर फासिस्टों की सत्ता के ख़िलाफ़ जो भी मुद्दा-केन्द्रित जन-संघर्ष उठ खड़े होते हैं उनमें पूरी ताक़त से भागीदारी करते हुए हमें अपने दूरगामी लक्ष्य के लिए काम करते रहना होगा और आम लोगों को अपनी इस बात का कायल बनाना होगा कि तात्कालिक आन्दोलन के मुद्दों पर फासिस्ट अगर पीछे भी हट जाएँ तो यह संघर्ष का अंत नहीं है ! संघर्ष निश्चय ही लंबा होगा ! यह याद रखना होगा कि अंतिम निष्कर्ष के तौर पर, फासिज्म-विरोधी संघर्ष पूँजीवाद-विरोधी संघर्ष की ही एक अविभाज्य कड़ी है, एक जैविक अंग है !
आज देशव्यापी स्तर पर जो जन-ज्वार उठ खड़ा हुआ है, वह स्वतःस्फूर्त है ! स्वतःस्फूर्त आन्दोलनों की अपनी एक सीमा होती है, पर यह सीमा सर्वथा अलंघ्य नहीं होतीं ! अगर क्रांतिकारी शक्तियाँ सूझ-बूझ, मेहनत और धीरज से स्वतःस्फूर्त जनांदोलनों में शिरक़त करती हैं तो उन्हें वे राजनीति की पाठशाला और प्रशिक्षणशाला बनाकर सीखती हैं और जनता के बड़े, या कम से कम महत्वपूर्ण हिस्से पर सही राजनीति का वर्चस्व स्थापित करने में कामयाब होती हैं ! यह उपलब्धि संघर्ष के अगले चक्रों के लिए महत्वपूर्ण होती है !
हमें हिन्दुत्ववादी फासिस्टों के वर्तमान आतंक और खूनी कार्रवाइयों को फासिज्म की ऐतिहासिक भयंकरता के परिप्रेक्ष्य में समझना होगा, तभी हम लोगों को एक लम्बी और निर्णायक लड़ाई में उतरने के लिए कायल कर सकेंगे और उन्हें यह समझा सकेंगे कि अगर वे ऐसा नहीं करते तो सर्वनाश के लिए तैयार रहें ! जर्मन चिन्तक वाल्टर बेन्यामिन की यह ऐतिहासिक चेतावनी आज भी सर्वथा प्रासंगिक है :"केवल उसी इतिहासकार को अतीत में से उम्मीद की चिनगारियों को हवा देने का वरदान प्राप्त होगा जो पुरज़ोर ढंग से इस बात का क़ायल है कि दुश्मन अगर जीत गया तो उससे हमारे मर चुके लोग भी सुरक्षित नहीं बचेंगे ! और इस दुश्मन ने फ़तेहमंद होना अभी बंद नहीं किया है !"
(30जनवरी, 2020)
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