कल जब गाँधी पार्क के विरोध-प्रदर्शन से वापस लौट रही थी तभी एक शुभचिंतक वरिष्ठ कवि-लेखक का फोन आया I हाल-चाल लेने के बाद उन्होंने पूछा,"आजकल कुछ लिख नहीं रही हो !"
मैंने कहा,"लिख रही हूँ न ! सड़कों पर सामूहिक कविता-लेखन हो रहा है ! उसीमें शामिल हूँ ! कई बड़ी और छोटी कविताएँ इसबीच लिखी जायेंगी ! दो दिन यहाँ लिखी गयी हैं और अब मज़दूर बस्तियों और कालोनियों में भी लिखी जायेंगी ! पूरे देश के छात्र-युवा-नागरिक लिख रहे हैं सड़कों पर कविता ! ऐसे में अलग कमरे में बैठकर अकेले कुछ लिखने का क्या मतलब?"
वरिष्ठ कवि-मित्र से वार्तालाप के बाद मुझे कात्यायनी की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आयीं जिनका आशय यह है कि कभी-कभी यह कविता के हक़ में होता है कि कविताएँ न लिखी जाएँ और इसके बजाय कुछ आन्दोलनों में सड़क पर उतरा जाए, कुछ पर्चे बाँटे जाएँ, या कुछ राजनीतिक अध्ययन-चक्र चलाये जाएँ !
कल के प्रदर्शन में देश के विभिन्न हिस्सों में सिनेमा और टीवी के कलाकारों, रंगकर्मियों, लेखकों-बुद्धिजीवियों की भागीदारी की खबरें मिली हैं ! यह एक बहुत ही अच्छी बात है ! मुझे नहीं पता कि हिन्दी के कितने वाम-जनवादी कवि-लेखक कल घरों से बाहर निकल सड़कों पर उतरे ! काफ़ी लोग ज़रूर उतरे होंगे I जो नहीं उतरे वे अपने ज़मीर का और अपने बच्चों की नज़रों का सामना कैसे करते होंगे ? --यही सोच रही हूँ !
(20दिसम्बर, 2019)
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