संभव है कि कवि की रचना और जीवन में कुछ अंतरविरोध हों ! पर यह फाँक अगर बढ़ जाती है तो रचना में भी परावर्तित होने लगती है ! तब कवि अक्सर रचना को तरह-तरह के कलात्मक झालर-फुन्दनों और उक्ति-वैचित्र्य से सजाने लगते हैं और अपने ही अतीत की विकर्षक छाया मात्र बनकर रह जाते हैं !
एक सच्चे मनुष्य की तरह एक सच्चा कवि भी अपने काव्यादर्शों को अपना जीवनादर्श मानता है और उन्हें जीता है ! नेरूदा, नाजिम हिकमत, निराला, मुक्तिबोध का झोला-चप्पल चुराकर या उधार लेकर कोई बड़ा कवि नहीं बन सकता, चाहे उसे जितने भी पुरस्कार-सम्मान मिल जाएँ, जितनी भी भव्य अकादमियों में वह मंच सुशोभित करता रहे और चाहे दुनिया की जितनी भाषाओं में भी उसकी कविताएँ अनूदित हो जाएँ ! बुर्जुआ समाज में कवि अगर सच्चे अर्थों में जनता के पक्ष में खड़ा होगा, तो वह हमेशा सत्ता का प्रतिपक्ष ही होगा और सत्ताधीशों और उनके साहित्यिक एजेण्टों द्वारा उपेक्षित, बहिष्कृत और प्रताड़ित ही होता रहेगा !
सही है कि सिर्फ़ पोलिटिकली करेक्ट होने से कवि-कर्म नहीं हो सकता, कवि में कवित्व की प्रतिभा तो होनी ही चाहिए ! लेकिन सिद्धान्त और व्यवहार में सही राजनीति के बिना भी सच्ची और प्रभावी कविता लिख पाना संभव नहीं होता ! यही कारण है कि आज मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के जीवन में पाखण्ड, अवसरवाद और नकलीपन का जितना घटाटोप है, उतना ही हिन्दी कविता के प्रदेश में भी नज़र आता है, और इस संक्रामक रोग से वाम-जनवादी धारा की मानी जाने वाली कविताएँ भी अछूती नहीं हैं !
वह यक्ष-प्रश्न शाश्वत है जो मुक्तिबोध नामके यक्ष ने कभी पूछा था,"पार्टनर! तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?"
(कवि पंकज चतुर्वेदी की एक पोस्ट पर की गयी टिप्पणी)
(2नवम्बर, 2019)
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