इतिहास के नायकों/नायिकाओं का चरित्र वर्गेतर नहीं हुआ करता I हर वर्ग के अपने नायक होते हैं जिनको उनकी सेवाओं के लिए वह वर्ग प्यार और श्रद्धा के साथ याद करता है I इतिहास की विशेष परिस्थितियों में उनके कुछ कदम कभी-कभी दूसरे वर्गों के लिए भी वस्तुगत तौर पर, और तात्कालिक तौर पर हितकारी हो सकते हैं, पर अंततोगत्वा वे अपने वर्ग के ही सिद्धान्तकार/रणनीतिकार/राजनीतिक प्रतिनिधि होते हैं और उसीकी सेवा करते हैं I इस मायने में शासक वर्ग कभी दिग्भ्रमित नहीं होता I वह हमेशा अपने नायकों के पीछे चलता है और उन्हें सर्वजन का हितपोषक सिद्ध करने की कोशिश करता है I दूसरा काम वह यह करता है कि मृत्योपरान्त लोकप्रिय क्रांतिकारी नायकों को, उनके विचारों को नेपथ्य में धकेलकर या तोड़-मरोड़कर, अपना नायक सिद्ध करने की कोशिश करता है I
फासिस्टों के सभी इतिहास-पुरुष इतिहास के इतने कलंकित-लांछित चरित्र होते हैं कि वे लाख कोशिश करके भी उन्हें जन-मानस में नायक के रूप में स्थापित नहीं कर पाते ! इसलिए वे राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर के, या बुर्जुआ शासन के बुर्जुआ जनवादी काल के कुछ नेताओं को अपनाने की कोशिश करते हैं और कुछ अन्य को ज़्यादा से ज़्यादा खलनायक और जनहित-विरोधी सिद्ध करने की कोशिश करते हैं I जैसे भारत के हिन्दुत्ववादी फासिस्ट कभी पटेल, कभी सुभाषचन्द्र बोस, तो कभी-कभी गाँधी को भी, अपनाने की कोशिश करते हैं, हालांकि सावरकर, गोलवलकर, गोडसे आदि को भी जन-मानस में स्थापित करने की उनकी कोशिशें लगातार जारी रहती हैं I
नेहरू-गाँधी परिवार को वे विशेष तौर पर अपने हमलों का निशाना बनाते हैं I इसके दो कारण हैं I एक तो भारतीय बुर्जुआ वर्ग के दूसरे एकमात्र राष्ट्रीय स्तर की पार्टी के तौर पर जो कांग्रेस उसकी प्रतिस्पर्द्धी है, उसका नेतृत्व अभी भी नेहरू-गाँधी परिवार के ही हाथों में है I दूसरे, स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद से ही भारतीय जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी जैसी कुछ धुर-दक्षिणपंथी पार्टियाँ पूरे अर्थतंत्र को प्राइवेट सेक्टर के हवाले करने और पश्चिमी विदेशी पूँजी पर निर्भर रहते हुए पूँजीवादी विकास की नीतियों की वकालत कर रही थीं, उससमय नेहरू "मिश्रित अर्थ-व्यवस्था" ( मुख्य तौर पर भारी पूँजीवादी निवेश वाली बुनियादी और ढांचागत उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में खड़ा करने की) की तथा "आयात-प्रतिस्थापन औद्योगीकरण" की नीतियों को अमल में ला रहे थे I लेकिन नेहरू का यह कदम भारतीय पूँजीवाद के शुरुआती तेज़ विकास के लिए ज़रूरी था और इसीलिये भारत का समूचा पूँजीपति वर्ग उससमय धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों के पीछे नहीं, बल्कि नेहरू के पीछे खड़ा था I जो "नेहरूवादी समाजवाद" था, वह राजकीय इजारेदार पूँजीवाद का एक दैत्याकार ढाँचा खड़ा करने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था I वस्तुतः नेहरू 1942 के 'बोम्बे प्लान' (टाटा-बिड़ला प्लान) को ही अमली जामा पहना रहे थे I उससमय भारत के सभी बड़े पूँजीपतियों के पास इतनी पूँजी थी ही नहीं कि वह बुनियादी और ढांचागत उद्योगों को अपने बूते खड़ा कर पाता I उसके पास दो रास्ते थे -- वह या तो विदेशी पूँजी पर निर्भर रहकर पूँजीवादी विकास का रास्ता चुने, या फिर जनता की नस-नस निचोड़कर सरकारी खजाने से 'पब्लिक सेक्टर' का विराट तंत्र खड़ा करे I नेहरू ने दूसरा रास्ता चुना I बेशक साम्राज्यवादी पूँजी को भी अधिशेष निचोड़ने की छूट थी, लेकिन कुछ प्रतिरोधक और सुरक्षात्मक दीवारें भी थीं और बुर्जुआ सत्ता अंतर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा का लाभ उठाकर घरेलू बाज़ार पर अपना नियंत्रण बनाए रख पाने में तथा अपनी राजनीतिक आज़ादी की हिफाज़त में सफल भी रही I
खनन, ऊर्जा, रेल, सड़क, इस्पात, इंजीनियरिंग, रसायन आदि-आदि मुख्य तौर पर सार्वजनिक क्षेत्र में रहे और इसका पूरा लाभ निजी पूँजीपतियों के अन्य उद्योगों ने उठाया और जमकर पूँजी-संचय किया ! इसतरह समाजवाद का मुखौटा लगाकर पब्लिक सेक्टर ने वस्तुतः प्राइवेट सेक्टर की ही मदद की ! और जब निजी क्षेत्र में बुनियादी उद्योगों में निवेश लायक पूँजी आ गयी तो फिर निजीकरण-उदारीकरण का वह दौर आया कि सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को औने-पौने दामों पर निजी पूँजीपतियों को बेचना शरू कर दिया ! इसका दूसरा कारण यह भी था कि इस समय तक राजकीय इजारेदार पूँजीवाद अपनी स्वतंत्र गति से ठहराव और संकटों का शिकार हो चुका था और यह संकट राजनीतिक व्यवस्था का संकट बनता जा रहा था I जिस 'नेहरूवादी समाजवाद' पर तमाम लिबरल और सोशल डेमोक्रेट बलिहारी जाते रहते हैं, उसका यही मर्म है ! नेहरू भी भारत के बुर्जुआ वर्ग के ही नायक थे और हर बुर्जुआ सरकार की तरह उनकी सरकार भी 'बुर्जुआ वर्ग की मैनेजिंग कमेटी' ही थी I वह भारतीय पूँजीवाद के विकास का वह दौर था, जब सीमित-संकुचित ही सही, लेकिन बुर्जुआ जनवाद मौजूद था और यह बुर्जुआ जनवाद व्यवस्था की ज़रूरत था I
फासिस्ट लहर जब भी किसी देश में प्रभावी होती है, तो वह मज़दूर वर्ग पर, कम्युनिस्टों पर, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों पर और सभी प्रगतिशील विचारों पर पूरी ताकत से हमला बोलती है और उन्हें पूरीतरह से कुचल देने की कोशिश करती है I वह रहे-सहे बुर्जुआ जनवाद को भी समाप्त कर देने या औपचारिक बना देने की कोशिश करती है, क्योंकि फासिस्ट बुर्जुआ जनवाद को भी वित्तीय पूँजी की नग्न-निरंकुश सत्ता की राह में एक बाधा के रूप में देखते हैं और उन्हें यह भी लगता है कि बुर्जुआ जनवाद प्रगतिशील ताकतों को जो स्पेस मुहैया करा देता है, उसके कारण फासिस्ट उन्हें कुचल नहीं पाते I जो भी क्रांतिकारी प्रगतिशील ताकतें होती हैं वे फासिज्म का प्रतिरोध करते हुए जनता के जनवादी अधिकारों के लिए लड़ती हैं, बुर्जुआ जनवाद को समाप्त करने की फासिस्ट कोशिशों का एक्सपोज़र और विरोध करती हैं, लेकिन फासिज्म का विरोध करते हुए वे लगातार पूँजीवादी व्यवस्था का विरोध करती हैं और फासिज्म-विरोधी संघर्ष को पूँजीवादी-व्यवस्था विरोधी संघर्ष की एक कड़ी के रूप में विकसित करने की कोशिश करती हैं I तात्पर्य यह कि वे फासिज्म का प्रतिरोध बुर्जुआ जनवाद की ज़मीन पर खड़ा होकर नहीं करतीं, बल्कि सर्वहारा क्रान्ति और समाजवाद की ज़मीन पर खड़ा होकर करती हैं !
हत्ताश-निराश और पराजित-मना सोशल डेमोक्रेट्स, लिबरल्स और संसदीय "वामपंथी" और "अध्ययन-कक्षों" के सेनापति किताबी वाम बुद्धिजीवी फासिज्म से तो नफ़रत करते हैं, लेकिन फासिज्म का विरोध वे बुर्जुआ जनवाद की ज़मीन पर खड़ा होकर करते हैं, क्योंकि उनके पैरों के नीचे सर्वहारा क्रान्ति और समाजवाद के विचारों और प्रोजेक्ट की ज़मीन होती ही नहीं ! वे मन ही मन सोचते हैं कि समाजवाद तो अब आने से रहा, बुर्जुआ जनवाद बचा रहे, यही काफी है I वे चाहते हैं कि किसी भी तरह से नेहरू, या यहाँ तक कि इंदिरा वाला ज़माना ही वापस आ जाए I वे "कीन्सवादी कल्याणकारी राज्य" से ही संतोष करने के लिए तैयार होते हैं और यहाँ तक कि उसे ही समाजवाद भी कहने लगते हैं ! ऐसे लाइलाज "भलेमानस" इनदिनों बुर्जुआ वर्ग के नायकों को अपना नायक बनाकर गदगद हो रहे हैं, न सिर्फ गाँधी और नेहरू को बल्कि इंदिरा तक को महान नेता, जन-पक्षधर, समाजवादी आदि-आदि सिद्ध कर रहे हैं I वक़्त के तकाज़े के हिसाब से अपने जिन निस्तेज हो चुके नायकों की तस्वीरों को बुर्जुआ वर्ग कूड़े के ढेर पर फेंक आया है, उन्हीं तस्वीरों को झाड-पोंछकर इन :"भलेमानसों" ने अपने बैठकों में सजा लिया है और सुबह-शाम उनके सामने धूप-अगरबत्ती जलाकर भजन गाना शुरू कर दिया है !
मिसाल के तौर पर, आज सुबह से मैं देख रही हूँ कि बहुत सारे जड़मति "वाम भलेमानस" बहुत नौस्टेल्जिक होकर और भाव-विह्वल होकर इंदिरा गाँधी को याद कर रहे हैं ! कुछ बैंकों के राष्ट्रीकरण के फैसले के लिए और 'गरीबी हटाओ' के नारे के लिए उन्हें समाजवादी घोषित कर रहे हैं तो कुछ तो इस बात पर गदगद हैं कि उन्होंने शत्रु देश के दो टुकड़े कर दिए ! 'गरीबी हटाओ' से कितनी गरीबी हटी, यह दुनिया जानती है ! और राजनीतिक अर्थशास्त्र का ककहरा भी न जानने वाले मूर्खों को कौन बताये कि बैंकों का राष्ट्रीकरण इसलिए किया गया कि सरकारी बैंकों की साख और उनपर भरोसा के चलते आम लोग ज्यादा से ज्यादा सेविंग्स करें और 'एडवांसेज' के रूप में पूँजीपतियों को ज्यादा से ज्यादा पूँजी निवेश के लिए मिल जाए ! इस पैसे से पूँजीपति दसगुना पैसा बनाए और बचत करने वाले को सालाना सिर्फ 3-4 प्रतिशत ब्याज मिले I यही नहीं, बहुतेरे मामलों में तो पूँजीपति मूलधन भी डकारकर बैठ जाता है I बैंकों का राष्ट्रीकरण शुद्ध रूप से पूँजीपतियों की मदद के लिए किया गया था I मोटी सी बात यह है कि सत्ता यदि बुर्जुआ वर्ग के हाथों में है तो राष्ट्रीकरण एक बुर्जुआ कदम के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता I माफ़ कीजिए, वे कम्युनिस्ट गधे होते हैं जो राष्ट्रीकरण को समाजवाद का पर्याय समझते हैं I
जो लोग "शत्रु देश" के टुकड़े कर देने के लिए इंदिरा की प्रशंसा कर रहे हैं, वे दिमाग से पैदल लोग यह नहीं समझते कि "शत्रु देश" का मिथक शासक वर्ग अपने निहित स्वार्थों से गढ़ता है और अंधराष्ट्रवाद की लहर उभाड़ता है I ऐसे लोग मोदी के अंधराष्ट्रवादी उन्माद उभाड़ने के हथकंडों का विरोध भला किस नैतिक ज़मीन पर खड़े होकर कर सकते हैं ! दूसरी बात, ऐसे लोग भूल जाते हैं कि बांग्ला देश के लोग अपनी राष्ट्रीय मुक्ति के लिए खुद एक कठिन संघर्ष में लगे हुए थे ! भारत ने और सोवियत संघ ने अपने निहित स्वार्थों के चलते पाकिस्तानी शासक वर्ग के विरुद्ध बांग्लादेश के मुक्ति-संघर्ष का साथ दिया I इंदिरा कोई संत नहीं थीं जिन्होंने बांगलादेश को आज़ादी तोहफे के रूप में सौंप दी ! जाहिर है, इसमें भारतीय शासक वर्ग के अपने स्वार्थ थे ! इंदिरा को मातृतुल्य मानने वाले भूसापूरित मस्तिष्क वाले लिबरल और सोशल डेमोक्रेट आपातकाल की काली-अंधेरी रातों को भला कैसे बिसरा देते हैं, यह समझ में नहीं आता ! सही है कि कांग्रेस एक फासिस्ट पार्टी नहीं है और इंदिरा गाँधी को हम फासिस्ट नहीं कह सकते ! लेकिन इतना तय है कि बुर्जुआ व्यवस्था के तत्कालीन आर्थिक-राजनीतिक-संवैधानिक संकट ने उन्हें एक बोनापार्टिस्ट किस्म के निरंकुश दमनकारी और स्वेच्छाचारी शासक में तबदील कर दिया था ! उनकी बोनापार्टिस्ट निरंकुशता का चरम रूप आपातकाल था जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता !
(31अक्टूबर, 2019)
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