Sunday, September 08, 2019

साहित्य और ‘आइडेण्टिटी पॉलिटिक्स‘ : एजाज़ अहमद के कुछ विचारणीय विचार


(ख्यात जन-बुद्धिजीवी और साहित्य तथा मानविकी के विद्वान प्रो. एजाज़ अहमद ने दो दशक पहले एक व्या‍ख्यान दिया था जिसे ‘कथन’ पत्रिका (अक्टूबर-दिसम्बर 2002) ने ‘सृजनशीलता हमेशा सामाजिक होती है’ शीर्षक से प्रकाशित किया था। इस लम्बे व्याख्यान में प्रो. अहमद ने ‘आइडेण्टिटी पॉलिटिक्स’ और साहित्य की दुनिया में प्रचलित दलितवाद और नारीवाद की वैचारिकी के बारे में जो बातें कही हैं, वो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। जिनकी तर्कणा पूर्वाग्रहमुक्त है, वे इनपर संजीदगी से सोचेंगे, इसी भरोसे के साथ उक्त व्याख्यान का प्रासंगिक अंश यहाँ प्रस्तु‍त है )

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कुछ लोग सवाल उठाते हैं कि स्मृति, जो हमें सृजनशील बनाती है, व्यक्तिगत होती है या सामूहिक। यानी क्या स्मृति को नस्ल , धर्म, लिंग या राष्ट्र जैसी चीज़ों से जोड़ा जा सकता है? मसलन, गोरों की स्मृति अलग और कालों की अलग? हिन्दुओं की अलग और मुसलमानों की अलग? सवर्णों की अलग और दलितों की अलग? मेरा कहना यह है कि सामूहिक स्मृति तो हो सकती है, जैसे उत्पीड़कों की अलग, लेकिन उसे नस्ल, धर्म, लिंग, जाति और राष्ट्र जैसी चीज़ों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। जहाँ तक नस्ल का सवाल है विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि नस्ल जैसी कोई चीज़ नहीं होती। मैंने अभी-अभी एक किताब पढ़ी है ‘अगेंस्ट रेस’ जिसका लेखक कहने को एक काला आदमी है, लेकिन वह कहता है कि काले आदमी जैसी कोई चीज़ नहीं होती। फिर अफ्रीका के काले अलग हैं, अमेरिका के भी सब काले एक जैसे नहीं हैं। इसी तरह धर्म, राष्ट्र और लिंग की बात है। हिन्दू सारी दुनिया में रहते हैं, लेकिन अलग-अलग देश में रहने वाले हिन्दुओं की कोई एक सामूहिक स्मृति कैसे हो सकती है? या औरतों को लीजिए, भारत की औरतों का इतिहास अलग है, अमेरिका की औरतों का इतिहास अलग है। दुनिया भर की औरतों की एक सामूहिक स्मृति कैसे हो सकती है? दरअसल सामूहिक स्मृति की अवधारणा एक फासिस्टी अवधारणा है।

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इस सिलसिले में मुझे एक और बात कहनी है। वह यह कि सामूहिकता की अवधारणा को ऐतिहासिक सन्दंर्भ में समझना चाहिए। पुराने परम्परागत समाज में या प्राक्-पूँजीवादी समाज में और आधुनिक समाज में एक बुनियादी फर्क है। आधुनिक समाज में सामूहिकता आपका अपना चुनाव है, जैसे आप ट्रेड-यूनियन के, या लेखकों-कलाकारों के किसी संगठन के सदस्य बनते हैं, तो आपकी यह सामूहिकता आपका अपना चुनाव है, जबकि वर्ण और जाति जैसी सामूहिकताएँ आपके जन्म से सम्बन्धित होती है। आप गोरे पैदा हुए या काले, ऊँची जाति में पैदा हुए या नीची जाति में, औरत पैदा हुए या मर्द –- इसपर आपका कोई बस नहीं था। यह आपकी अपनी ‘च्वांइस’ नहीं थी। आधुनिक समाज की सामूहिकता ‘कलेक्टिविटी ऑफ च्वा़इस’ है, जबकि पुराने पिछड़े हुए, प्रतिक्रियावादी और फासिस्ट सोच वालों के लिए वह ‘प्रि-गिवन’ है, पूर्वप्रदत्त है। मसलन, मुझे देखिए। मैं मुसलमानों के घर में पैदा हुआ, लेकिन मैं खुद को न मुसलमान मानता हूँ न हिन्दू़। मैं कहता हूँ कि मैं एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष भारत का नागरिक हूँ। आप हिन्दूू हैं, अपने घर में बैठिए; आप मुसलमान हैं, अपने घर में बैठिए; बड़ी खुशी की बात है, लेकिन आप मुझे मज़बूर नहीं कर सकते कि मैं खुद को हिन्दू मानूँ या मुसलमान ! इसलिए जो लोग हिन्दू़–मुसलमान जैसी सामूहिकताओं की बातें करते हैं, उनकी बातों पर मुझे एतराज है। मैं कहता हूँ कि श्रमिक वर्ग की भी एक सामूहिक स्मृति है। दुनिया में एक चीज़, जो हज़ारों सालों से नहीं बदली है, वह यह है कि दुनिया की भारी अक्सरियत (बहुसंख्या ) सुबह से शाम तक कमरतोड़ मेहनत करती है और उसकी सामूहिक स्मृ्तियाँ हैं – शोषण की, दमन की, उत्पीाड़न की, अन्यायों की, अत्याचारों की स्मृतियाँ। और ऐसे लोगों में हिन्दू-मुसलमान, गोरे-काले, स्त्री-पुरुष, सब तरह के लोग हैं।

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कुछ लोग सृजनशीलता के सन्दर्भ में वर्ण या जाति के विशिष्ट अनुभव का सवाल उठाते हैं। मसलन, नारीवादी या दलितवादी लोगों में से कुछ लेखक यह कहते पाये जाते हैं कि औरत ही औरत के बारे में प्रामाणिक लेखन कर सकती है, या दलित ही दलित के बारे में सही ढंग से लिख सकता है, क्योंकि औरत या दलित होने का उनका जो अनुभव है, किसी और को नहीं हो सकता। इसपर मेरा कहना यह है कि इसतरह की बाड़ेबन्दी, कम से कम साहित्य में, बिल्कुल ग़लत है। मैंने अमेरिका में यूरोपीय साहित्य़ पढ़ाया है, यानी गोरों को गोरों का साहित्य पढ़ाया है। मुझसे कभी किसी ने नहीं कहा कि यह तुम्हारी समझ में नहीं आ सकता, क्योंकि तुम गोरे नहीं हो। अगर कोई ऐसा कहे, तो मैं उसके मुँह पर चाँटा मारूँगा और कहूँगा कि मैं तुम्हारे बाप-दादा का साहित्य तुम्हें इसलिए पढ़ा रहा हूँ कि मैंने उसे पढ़ा है, सीखा है, मेहनत की है साहित्य में यह नहीं हो सकता कि जिसका जो अनुभव है, वही उसको समझ सकता हो। वरना आज का कोई आदमी अठारहवीं सदी का साहित्य कैसे पढ़ा पाता? उन्नीसवीं सदी में जो साहित्य लिखा गया, या 1920 में जो शायरी की गयी, उसका आज के आदमी के तजुर्बे से क्या ताल्लुक? अगर साहित्य का सम्बन्ध व्यक्तिगत अनुभव से होता, तब तो एक आदमी की लिखी चीज़ दूसरा समझ ही न पाता। दो इन्सान आपस में बात ही न कर पाते। भाषा और साहित्य व्यक्तिगत अनुभव की चीज़ नहीं, सामाजिक अनुभव की चीज़ है। सृजनशीलता व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक है; यह बुनियादी बात है।

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आपके अनुभव का एक हिस्सा ऐसा हो सकता है, जिस तक मेरी पहुँच न हो, लेकिन आप अपने अनुभव के उस हिस्से की बात मुझसे कहते हैं, तो आपकी बात मेरी समझ में आ सकती है और मैं उससे कुछ सीख सकता हूँ। मसलन, मैंने नारीवाद से बहुत सीखा। मैं पाकिस्तान में रहता था। वहाँ फौजी तानाशाही आयी, तो मैं लुढ़कता-पुढ़कता पहुँच गया अमेरिका। वहाँ उस समय युद्ध-विरोधी एक ज़ोरदार आन्दोलन चल रहा था; कालों का एक ज़ोरदार आन्दोलन चल रहा था। मैं उसमें शामिल हो गया, क्योंकि मैं युद्ध-विरोधी था और एशिया के मजलूम इन्सानों में से एक था, जो यहाँ के हिसाब से भले ही गोरे या गेहुएँ रंग के हों, पर गोरों की नज़र में तो काले ही हैं। पाँच-सात बरस बाद वहाँ नारीवाद शुरू हुआ, तो पता चला कि तुम तो मर्द भी हो, बहुत जुल्म किये तुमने औरतों पर। तो, यह तो सही है कि औरत न होने के कारण मैं औरत का दुख-दर्द एक औरत की तरह महसूस नहीं कर सकता; दलित या आदिवासी न होने के कारण मैं एक दलित या आदिवासी के दुख-दर्द या उत्पीड़न को उसकी तरह से महसूस नहीं कर सकता; लेकिन औरत, दलित या आदिवासी के अनुभव का वह हिस्सा, जो उसका बिल्कुल अपना है, बहुत छोटा हिस्सा है और उसके बारे में मैं किसी औरत, दलित या आदिवासी से पूछकर जान सकता हूँ। लेकिन अगर कोई कहता है कि आप मेरे अनुभव को समझ ही नहीं सकते, तो इसका जवाब मेरे पास बहुत कड़ा है। वह यह कि अगर मैं आपके अनुभव को समझ ही नहीं सकता हूँ, तो आप मुझसे हमदर्दी की कोई उम्मीद न रखें। जो चीज़ मेरी समझ में न आये, उसके बारे में मैं हमदर्दी कैसे दिखाऊँगा? अगर आपको मुझसे किसी हमदर्दी की उम्मीेद है, तो आप मुझे समझाइये कि वह बात क्या है, जिसके बारे में आपको मेरी हमदर्दी चाहिए। सॉलिडेरिटी (एकजुटता) के लिए आपस में संप्रेषण होना, एक दूसरे के अनुभवों को साझा करना, निहायत ज़रूरी है। और यह तमाम भिन्नताओं के बावज़ूद हो सकता है।

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चूँकि आज सृजनशीलता के सन्दर्भ में नारीवाद और दलितवाद की चर्चा होने लगी है और वामपंथी या मार्क्सवादी लोगों की सहानुभूति इन दोनों आन्दोलनों से रही है, इसलिए हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि आज की परिस्थिति में इन आन्दोलनों की वास्तविकता क्या है। मैं एक ताज़ा उदाहरण आपके सामने रखता हूँ – गुजरात में अभी जो कुछ हुआ, उसमें लोगों ने देखा कि जब मुसलमान औरतों पर अत्याचार हो रहे थे, हिन्दू औरतें उन लोगों की भीड़ में शामिल थीं, जो मुसलमानों के घर लूट रहे थे, और उनमें पढ़ी-लिखी औरतें भी थीं। दूसरी तरफ़ उन दंगों में हिन्दू फासिस्टों का साथ दलित और आदिवासी भी दे रहे थे। अगर हम औरतों की सामूहिकता और एकजुटता की बात करते हैं, तो कायदे से हिन्दू औरतों को औरत होने के नाते मुस्लिम औरतों का साथ देना चाहिए था। और अगर हम दलितों-आदिवासियों को हिन्दू धर्म की वर्ण-व्यवस्था और उसके ब्राह्मणवाद के खिलाफ़ एकजुट समझते हैं, तो कायदे से गुजरात में उन्हें ब्राह्मणवाद और वर्ण-व्यवस्था के समर्थक भाजपा और आर.एस.एस. के लोगों के हाथों में नहीं खेलना चाहिए था। फिर, उत्तर प्रदेश में जो मायावती भाजपा से हाथ मिलाकर शासन कर रही है वह तो औरत और दलित दोनों है। इस चीज़ को कैसे समझा जाये? आज के किसी भी सृजनशील लेखक को, जो गुजरात की हकीक़त के बारे में या हिन्दुस्तान की हकीक़त के बारे में लिखना चाहता है, इस चीज़ को समझना होगा।

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मेरा कहना यह है कि फासिस्टों के जो ‘स्टॉर्म ट्रूपर्स’ होते हैं, वे हमेशा ग़रीब-गुरबा और समाज के दुत्कारे हुए लोग होते हैं, जिनका अपनी जि़न्दगी पर किसी भी तरह का अधिकार नहीं होता और जि़न्दगी के बारे में जिनके अन्दर बहुत गुस्सा होता है, जिनकी समाज में कोई जगह नहीं होती, जिन्हें अपनी अस्मिता की कोई समझ नहीं होती। फासिस्ट आन्दोलन के पूरे इतिहास में आप यह चीज़ देख सकते हैं और मुझे इस पर कोई ताज्जु़ब कभी नहीं हुआ। मैंने 1993 में एक मजमून लिखा था ‘ऑन दि रूइंस ऑफ अयोध्या्’। उसमें मैंने लिखा था कि यह सोचना ग़लत है कि आर.एस.एस. वाले दलितों में या आदिवासियों में अपनी जगह नहीं बना सकते। फासिस्ट आन्दोेलन जितने ब्राह्मणवाद से पैदा हो सकते है, उतने ही नीची जातियों की राजनीति से। और ऐसे मौके आ सकते हैं, जब दोनों हाथ मिला लें। दूसरी बात उसी मजमून में मैंने लिखी थी कि जाति व्यवस्था में सबसे ऊपर वाले का झगड़ा सबसे नीचे वाले से नहीं होता, बल्कि यह झगड़ा सोपानक्रम से होता है। यानी जो सबसे नीचे की सीढ़ी पर है, उसका झगड़ा अपने से ऊपर की सीढ़ी वाले से और ऊपर की सीढ़ी वाले का झगड़ा अपने से ऊपर की सीढ़ी वाले से होता है। फिर, एक झगड़ा एक ही सतह के या एक ही जाति के लोगों में आपस में भी होता है, जिनके हित अलग-अलग होते हैं। मसलन एक ही जाति के हैं, पर अलग-अलग क्षेत्रों के हैं, या अलग-अलग पार्टियों से जुड़े हुए हैं, या अलग-अलग वोट-बैंकों का हिस्सा हैं। ऐसे में यह सोचना ग़लत है कि सारी उत्पीड़ि‍त जातियाँ मिलकर उत्पीड़क जातियों के खिलाफ़, या ब्राह्मणवाद के खि़लाफ़, उठकर खड़ी हो जायेंगी। अगर आप इन्हें नहीं खड़ा कर पायेंगे, तो ये कभी खड़े नहीं होंगे। उनके अपने अनुभव से ऐसी कोई चीज़ नहीं निकलती। अत्याचार के अनुभव से सिर्फ़ बदला लेने की इच्छा पैदा होती है। लोग सोचते हैं कि जिन्होंने हमपर जु़ल्म किए हैं, उनपर हम भी जुल्म करें। ऐसे लोगों को बड़ी आसानी से बरगलाया जा सकता है। मसलन, भंगियों को भले ही सबसे नीचा समझते रहिए, उनपर जुल्म करते रहिए, उनका अपमान करते रहिए, लेकिन उनका इस्तेमाल करने के लिए कोई कहानी सुना दीजिए कि मुसलमान तो ऐसे होते हैं, ऐसा करते हैं, और आप तो बाल्मीकि‍ हैं, रामायण तुमने ही लिखी है और रामराज्य लाने के लिए मुसलमानों को मारना ज़रूरी है, तो वे आपके भड़काने पर भड़क जायेंगे। साथ में उनकी थोड़ी-बहुत ज़रूरतें पूरी कर दीजिए, थोड़ा-बहुत आर्थिक आधार दे दीजिए, उनको एक ‘सेंस ऑफ आइडेण्टिटी’ दे दीजिए, और थोड़ा ‘मोबलाइज’ करके मुसलमानों को मारने-पीटने के लिए कह दीजिए, तो वे चल पड़ेंगे।

(Katyayani Lko की वाल से साभार)

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