Friday, September 20, 2019


जिस समाज के सामाजिक ताने-बाने में जनवाद नहीं होता वहाँ के नागरिकों में 'सेंस ऑफ ह्यूमर' नहीं होता । जिस समाज में तर्कणा नहीं होती वहाँ 'सेंस ऑफ ह्यूमर' नहीं होता ।

कायरों, कूपमंडूकों, स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित लोगों, आत्मसजग और असुरक्षा-बोध से ग्रस्त लोगों तथा कलमघिस्सुओं में भी 'सेंस ऑफ ह्यूमर' नहीं होता । हँसना बनावटी बौद्धिक भी नहीं जानते ।

जो अपनी हँसी नहीं उड़ा सकते, वे भी 'सेंस ऑफ ह्यूमर' से वंचित लोग होते हैं ।

दूसरों की दुरवस्था पर आने वाली हँसी दुनिया की सबसे बेरहम हँसी होती है ।

कुल मिलाकर भारतीय समाज, विशेषकर मध्यवर्गीय भारतीय समाज, 'सेंस ऑफ ह्यूमर' से रिक्त मनहूस, पाखण्डी, अकड़ू और ऐंठू समाज है ।

(16सितम्बर, 2019)


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भारतीय बुर्जुआ जनवाद फासिज़्म की गन्द में लिथड़ा हुआ नवउदारवादी चिलम खींचकर ऐतिहासिक पतन के गंदे नाले में लम्बलेट पड़ा हुआ है । अवाम के साथ किये गए अपने ऐतिहासिक, संवैधानिक और वैधिक कौल-क़रारों-वायदों को वह कभी का बिसरा चुका है ।

कुछ लिबरल और सोशल डेमोक्रैट भलेमानस अभी भी उस गंदे नाले के किनारे खटिया पर बैठे इंतज़ार कर रहे हैं कि बुर्जुआ जनवाद का नशा टूटे, वह शर्माते हुए अपने पुरखों को याद करे और फिर नहा-धोकर नियति के साथ किये गए अपने क़रारों को पूरा करने में लग जाये ।

हमारे समय की त्रासद विडंबना यह है कि कल तक जन-मुक्ति की दुहाई देते रहने वाले बहुतेरे बुद्धिजीवी और साहित्यकार भी अपने ज़मीर के साथ किये गए क़रार को भुला चुके हैं और रात के अंधेरे में उसी गंदे नाले में उतरकर सिक्के और अशर्फियाँ टटोलते रहते हैं ।

(16सितम्बर, 2019)

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