ऐसा नहीं कि मुझे कभी डर लगा ही न हो I जन्मना अभय तो शायद कोई नहीं होता I हमारे भीतर निर्भीकता हमारे चिंतन और व्यवहार से आती है I
जब एक चिटफण्ड वाले आपराधिक पूँजी गिरोह के अख़बार के गुंडों ने हमलोगों पर क़ातिलाना हमला किया था और उनसे लड़ते हुए हम सभी बुरीतरह घायल हुए थे; तो शुरू में दिल में थोड़ी सहम-सकपकाहट तो पैदा हुई थी ! किशोरावस्था में, गुंडों से अधिक अपने भय के विरुद्ध यह मेरा पहला अहम संघर्ष था I फिर जब दिल्ली में शहीद मेला के आयोजन के दौरान तीन दिनों तक फासिस्ट गुंडों से लगातार टकराना पड़ा, जब हाफपैन्टियों ने पुस्तक-प्रदर्शनी वैन पर पत्थरों और लाठियों से हमला कर दिया, जब मज़दूर बस्ती में नशा का धंधा करने वाले अपराधी गिरोह से मोर्चा लेना पड़ा, जब दिल्ली की दो मज़दूर बस्तियों में दंगा फैलाने की अंदरूनी साज़िश को बेनक़ाब और नाक़ाम करने के बाद हत्या और तेज़ाब फेंक देने और उठवा लेने की धमकियाँ महीनों तक मिलती रहीं; तो इन सभी मौकों पर शुरू में कुछ क्षण को हृदय में भय का संचार हुआ तो था ! यह एक सच है !
पर फिर हर बार मैंने यही सोचा कि अगर कोई दिल से अपने उसूलों को मानेगा और हर तरह के अन्याय-अत्याचार के विरुद्ध, सभी मानवद्रोही शक्तियों के विरुद्ध, मोर्चा खोलेगा, तो उसे इन स्थितियों से तो गुज़रना ही होगा ! ऐसा भला कैसे हो सकता है कि हम अन्याय के विरुद्ध लड़ें भी, और हमें कोई जोखिम भी न मोल लेना पड़े, हमें और हमारे बाल-बच्चों को कोई खरोंच तक न लगे ! ऐसा तो केवल एक पाखंडी और बातबहादुर ही सोच सकता है ! जो खतरे की सोचकर पीछे हटे उसे लड़ने के बारे में सोचना ही नहीं चाहिए I किसी संभावित जोखिम के बारे में सोचकर जब हम पीछे हटते हैं, या समझौते करते हैं, तो फिर इसकी कोई सीमा नहीं होती ! धीरे-धीरे हम एक गलीज़ इंसान में, एक पिस्सू में बदलते चले जाते हैं ! मैंने ऐसा कायांतरण साहित्यिक-बौद्धिक दुनिया में कई बार देखा है कि चन्द सालों के भीतर ही कितनों की रीढ़ की हड्डी गल गयी या पीछे पूँछ निकल आयी I
किसी भी लड़ाई में सबसे पहले अपने भय से लड़ना होता है !
इसलिए, हर ऐसे वक़्त पर मैं अपने भय से लड़ती हूँ और हर बार कुछ और साहसी और ज़िद्दी होकर उस अंदरूनी लड़ाई से बाहर आती हूँ ! बर्बरों और फासिस्टों और हर ज़ालिम हुकूमत की पहली कोशिश हमारे भीतर भय और आतंक पैदा करने की होती है ! अक्सर कुछ लोग इस पहली लड़ाई में ही हार जाते हैं I जो अपने भय को जीत लेते हैं उनसे बड़े-बड़े ज़ालिम भी भयभीत हो जाते हैं !
जो जीवन और मौत के बारे में जितना अधिक भौतिकवादी ढंग से सोच लेते हैं, जो अपने साथियों और जन-समुदाय से जितने अधिक आर्गेनिक ढंग से जुड़े होते हैं, जिनके भीतर व्यक्तिवाद की मात्रा जितनी न्यून होती है, जो अपने उसूलों को लेकर जितना अधिक आश्वस्त होते हैं, मृत्यु और यंत्रणा के भय के विरुद्ध संघर्ष में उनकी विजय की संभावना उतनी ही अधिक होती है !
(23जून, 2019)
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