Thursday, May 09, 2019

मैं तो ख़ास तौर पर स्त्रियों से मुखातिब होते हुए नारा दूँगी, " बहनो ! साथियो ! घर-गृहस्थी के जंजाल से, बल्कि क़ैद से, छुटकारा लेकर हर साल कुछ दिनों के लिए तो निकल पड़ो, सारा चरखा पतियों के सर पर पटककर और नदियों-पहाड़ों-वन प्रान्तरों-मरुस्थलों-सागर तटों से मिलकर अपनी आत्माओं को पुनर्नवा बनाओ !"

नहीं, वह परिवार के साथ पर्यटन-स्थलों पर जाना और फोटो खिंचाकर फेसबुक पर डालना अलग बात है ! और ये वाली घुमक्कड़ी एक दीगर चीज़ है ! यह दुनिया को जानने और खुद की शर्तों पर जीने वास्ते रूढ़ियों से बगावत है I और याद रखो, इस बग़ावत की कोई उम्र नहीं है ! 'देर आयद दुरुस्त आयद !' इसतरह घूमोगी तो कुदरत के साथ फ़लसफ़ाना राबिता कायम करोगी, कुछ दिन बस अपने साथ एक काव्यात्मक साक्षात्कार करोगी, और इधर-उधर भटकते हुए देश-दुनिया-समाज को भी अपनी आँखों से देखोगी और अपनी अक़ल से समझोगी ! बस एक बात है ! इसके लिए तुम्हे सोचने के जड़ीभूत प्रस्तरीकृत "गृहिनियाना" तरीके को छोड़ना होगा और बग़ावत करनी होगी I तो करो न भई, कौन सी बड़ी बात है ! उत्ती बड्डी चीज़ हासिल करने वास्ते इत्ता भी ना करोगी ?" मत करो ! पिजड़े की मैना बनी रहो !

यह देखो, राहुलजी ने 'घुमक्कड़ शास्त्र' के पहले अध्याय 'अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा' में प्राचीन भारत की साहसी घुमक्कड़ स्त्रियों के बारे में क्या लिखा है :"उस वक्त पुरुष ही नहीं, स्त्रियाँ तक जम्‍बू-वृत्त की शाखा ले अपनी प्रखर प्रतिभा का जौहर दिखातीं, बाद में कूपमंडूकों को पराजित करती सारे भारत में मुक्‍त होकर विचरा करतीं थीं। कोई-कोई महिलाएँ पूछती हैं - क्या स्त्रियाँ भी घुमक्कड़ी कर सकती हैं, क्या उनको भी इस महाव्रत की दीक्षा लेनी चाहिए? इसके बारे में तो अलग अध्‍याय ही लिखा जाने वाला है, किंतु यहाँ इतना कह देना है, कि घुमक्कड़-धर्म ब्राह्मण-धर्म जैसा संकुचित धर्म नहीं है, जिसमें स्त्रियों के लिए स्‍‍थान नहीं हो। स्त्रियाँ इसमें उतना ही अधिकार रखती हैं, जितना पुरुष। यदि वह जन्‍म सफल करके व्‍यक्ति और समाज के लिए कुछ करना चाहती हैं, तो उन्‍हें भी दोनों हाथों इस धर्म को स्वीकार करना चाहिए। घुमक्कड़ी-धर्म छुड़ाने के लिए ही पुरुष ने बहुत से बंधन नारी के रास्‍ते में लगाये हैं। बुद्ध ने सिर्फ पुरुषों के लिए घुमक्कड़ी करने का आदेश नहीं दिया, बल्कि स्त्रियों के लिए भी उनका वही उपदेश था।" आगे इस पुस्तक में स्त्री घुमक्कड़ों पर एक पूरा अध्याय है I

औरतों को सबसे पहले अपनी इस दिमागी गुलामी से छुटकारा पाना होगा कि घर सम्हालना प्रथमतः उनकी ज़िम्मेदारी है I पुरुषों से संरक्षण और अभिभावकत्व पाने का जो अनुकूलित दासी मानस सामाजिक ढाँचे ने गढ़ा है, उससे पढ़ी-लिखी स्वावलंबी स्त्रियाँ भी मुक्त नहीं हो पातीं ! पुरुष उदारतापूर्वक आज़ादी पूजा के प्रसाद की तरह उनकी हथेली पर रख देता है जिसे चाटकर वे निहाल हो जाती हैं ! अनावश्यक प्यार का बंधन और बच्चों की सारी ज़िम्मेदारी खुद महसूस करना और उनके प्यार में अपनी वैयक्तिकता को भूल जाना भी एक आत्मिक आत्महत्या और अवसाद की ओर धकेलने वाली 'मिथ्या चेतना' है ! बच्चे बड़े होकर अपने में रम जाते हैं और फिर वह स्त्री खालीपन और अवसाद में जीने लगती है, क्योंकि अपने साथ जीना उसने सीखा ही नहीं और अपने विशिष्ट वैयक्तिकता को उसने न जाने कब का खो दिया ! फिर वह बैठकर नाती-पोता पालती है और गठिया, शूगर, ब्लड प्रेशर आदि-आदि के साथ मौत का इंतज़ार करती है ! अरे भई, बच्चे की खुशी आपकी खुशी है, पर वह आपकी सारी खुशी कभी नहीं हो सकती !

मैं ये बातें ख़ास तौर पर मध्यवर्गीय स्त्रियों और गृहिणियों के लिए कर रही हूँ ! मज़दूर बस्तियों में मैं रोज़ मज़दूर स्त्रियों को देखती हूँ ! ठीक है, वे दिहाड़ी छोड़कर दूर इलाकों में कई दिनों के लिए घूमने नहीं निकल पातीं, पर आर्थिक खुदमुख्तारी और मज़दूर चरित्र के कारण वे पुरुषों पर उस हद तक निर्भर नहीं होतीं, वे अपने लिए जीना और खुश होना भी जानती हैं और अगर जीने की दिशा मिल जाए तो सपने देखना भी जानती हैं !

आप कहीं गलती से मुझे बुर्जुआ नारीवादी न समझ बैठें ! मेरा स्पष्ट मानना है कि जिस वर्ग-आधारित समाज-व्यवस्था के उद्भव के साथ स्त्री पुरुष-सत्ता की गुलाम बनी, उसके विलोपन के साथ ही स्त्री-पुरुष असमानता का अंतिम तौर पर खात्मा होगा ! मेरा यह भी मानना है कि स्त्रियों को अपने अधिकारों के लिए लड़ते हुए सभी शोषितों-उत्पीड़ितों के मुक्ति-संघर्षों का भागीदार बनना होगा ! आधी आबादी को साथ लिए बिना मेहनतक़श आबादी कभी मुक्त नहीं हो सकती और सामाजिक मुक्ति के संघर्षों से जुड़े बिना स्त्रियाँ अपनी निर्णायक मुक्ति की दिशा में कभी आगे नहीं बढ़ सकतीं ! पर कुछ चालाक "प्रगतिशील" ऐसे भी होते हैं जो इस व्यवस्था के होते हुए स्त्रियों की चूल्हे-चौकठ से, पितृसत्तात्मक पारिवारिक ढाँचे से टकराने की हर कोशिश को, वैयक्तिकता और निजी आज़ादी की हर बात को बुर्जुआ नारीवाद घोषित कर देते हैं और यह नसीहत देते हैं कि स्त्रियों को सारी ताकत सामाजिक-आर्थिक संघर्षों में लगानी चाहिए और पितृसत्तात्मक मूल्यों-संस्थाओं के विरुद्ध अलग से संघर्ष का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि समाजवाद आने पर स्त्रियों को सामाजिक आज़ादी और बराबरी मिल ही जायेगी ! यह 'पोलिटिकल एंड इकॉनोमिक रिडक्शनिज्म' है, 'प्योर एंड सिंपल' ! इसका मार्क्सवाद से कुछ भी लेना-देना नहीं ! स्त्रियों को अपनी आज़ादी और वैयक्तिकता के लिए और मर्दवादी मूल्यों-संस्थाओं के विरुद्ध ज़रूर लड़ना चाहिए ! उन्हें एक सतत सामाजिक-सांस्कृतिक-वैचारिक क्रान्ति की प्रक्रिया चलाते रहना चाहिए ! इससे उन्हें जो भी अधिकार और आज़ादी मिलेगी, जिस हद तक भी रूढ़ियों के बंधन टूटेंगे, उस हद तक सामाजिक मुक्ति के संघर्षों में भी उनकी भागीदारी बढ़ जायेगी ! ये बातें मैं अनायास नहीं कर रही हूँ ! रूसी क्रांति के बाद क्लारा जेटकिन से बातचीत करते हुए लेनिन ने कहा था कि " किसी कम्युनिस्ट या मज़दूर को पकड़कर ज़रा सा खुरचो तो अन्दर से एक मर्द निकल आता है !" हमारे यहाँ भी ऐसे कम्युनिस्टों की कमी नहीं जो मर्द पहले हैं और कम्युनिस्ट बाद में, पर दिखाते इसके ठीक उल्टा हैं ! इन कम्युनिस्टों की पत्नियों या बेटियों के यदि पुरुष दोस्त हों तो उनकी त्योरियाँ चढ़ जाती हैं, शक का दीमक दिल में किर्र-किर्र करके काटने लगता है और बाज़ दफा तो थोड़ा झेलने और फुसलाने में नाकामी के बाद अन्दर का मर्द घायल साँप की तरह फुफकारने लगता है ! मैं जानती हूँ कि मेरे बेलागलपेट ऐसा लिख देने से बहुतेरे पुरुष वामपंथी मित्र मन ही मन हैजा या डेंगू से मेरे मर जाने के लिए उस ईश्वर से प्रार्थना कर रहे होंगे जिसे वैसे वे मानते नहीं हैं ! आज रात से लेकर कल सुबह तक कई लोग मुझे अनफ्रेंड भी करने वाले हैं, पर दिल में जो बात आ जाये उसे कह ही देना ठीक होता है ! अब 'बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी' पर यहाँ परवाह किसे है !

तो बहनो-साथियो ! घरवालों को दो अल्टीमेटम, फैसलाकुन हो जाओ, ठीक से प्रोग्राम बनाओ और फिर पीठ पर पिट्ठू टाँगकर निकल पड़ो,'बस्ती-बस्ती पर्वत-पर्वत गाता जाए बंजारा, लेकर दिल का इकतारा !'

(3मई, 2019)

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