Sunday, May 05, 2019


सत्ता का वैचारिक-राजनीतिक वर्चस्व (हेजेमनी) ऐसी चीज़ है कि असाध्य ढाँचागत संकट से ग्रस्त पूँजीवाद के प्रबंधक वर्ग के रूप में लुच्‍चे, लफंगे, ठग, कमीने, चोर, बदमाश, गुंडे, तड़ीपार, हत्यारे, बलात्कारी, सजायाफ्‍ता सुअर अगर सत्तासीन हो जाएँ तो परिघटनाओं और प्रवृत्तियों को नए नाम
दे दिए जाते हैं और चीज़ों की परिभाषाएँ बदल दी जाती हैं ! तब जनहित में आवाज़ उठाना देशद्रोह कहलाने लगता है, तर्कणा और जनवाद और सेकुलरिज्म की बात करने पर आप को धर्मद्रोही और संस्कृतिद्रोही घोषित कर दिया जाता है, समता और समाजवाद की बात करने पर और धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की बात करने पर आपको विदेशी ताक़तों का एजेंट बताया जाता है, श्रमिक अधिकारों की बात करने वाले को अराजकता फैलाने वाले का सर्टिफिकेट दे दिया जाता है , स्त्रियों के अधिकारों की बात करने वाले पुरुषों को 'मउगा' और 'जनखा' बताकर पेटीकोट में घुस जाने की सलाह दी जाती है और ऐसी स्त्रियों को मनबहक, आवारा और रण्डी घोषित कर दिया जाता है I जाति-उन्मूलन की बात करने वाला अगर सवर्ण घर में पैदा हुआ हो तो उसे 'भंगी की जारज संतान' घोषित कर दिया जाता है और अगर दलित हुआ तो उसे समाज-विध्वंसक तत्व मानकर सबक सिखाने की तैयारियाँ की जाने लगती हैं !

शासक वर्ग के विचारधारात्मक वर्चस्व के तंत्र का इस्तेमाल सभी बुर्जुआ राज्यसत्ताएँ कुशलता के साथ करती हैं ! निरंकुश स्वेच्छाचारी, बोनापार्टिस्ट किस्म की सत्ताएँ और फासिस्टों की सत्ताएँ इसका इस्तेमाल भरपूर अंधेरगर्दी के साथ करती हैं ! तब विचार, संस्कृति और मीडिया की दुनिया में सीमित डेमोक्रेटिक स्पेस भी समाप्तप्राय हो जाता है और बुर्जुआ बुद्धिजीवी, संस्कृतिकर्मी, मीडियाकर्मी सत्ताधारियों के भोंपू बनकर दरबारियों-भंड़वों-मीरासियों जैसा आचरण करने लगते हैं ! भारत में आज यही हो रहा है ! और इन हालात में जो लोग मध्यमार्ग अपना रहे हैं, यानी प्रगतिशीलता का तमगा भी टाँगे रहना चाहते हैं और सत्ताधारियों से भी वजीफा-बख्शीश-इनाम-तमगा वगैरा हासिल करना चाहते हैं, उनका पिछवाड़ा जनता के पक्ष में खड़े बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों के प्रचंड पाद-प्रहार की प्रतीक्षा कर रहा है I आप इस मामले में अगर उदार और दयालु हैं तो महराज, सीधी सी बात है ! या तो आप लिजलिज उदारतावादी हैं, या घामड़ और लबड़धोंधो हैं !

(2मई, 2019)

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