Friday, May 10, 2019


'ज्ञान का सबसे बड़ा शत्रु अज्ञान नहीं, बल्कि ज्ञान का विभ्रम है I' -- स्टीफ़न हाकिंग

'जब नायक मंच से चले जाते हैं, तो विदूषक आ जाते हैं I'-- हाइनरिख हाइने(उन्नीसवीं सदी के महान जर्मन कवि)

'अब हम आपस में कत्तई बातचीत नहीं कर सकते,' महाशय 'क' ने एक आदमी से कहा।
'क्यों'? उसने चौंकते हुए पूछा।
'मैं अपनी तर्क़संगत बात अब तुम्हारे सामने नहीं रख सकता।' महाशय 'क' ने लाचारी ज़ाहिर की।
'लेकिन इस बात से मुझ पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।' दूसरे ने तसल्ली ज़ाहिर की।
'मुझे पता है,' महाशय 'क' ने खीझते हुए कहा --'लेकिन मुझ पर इसका असर पड़ता है।'
-- बेर्टोल्ट ब्रेष्ट

"गैरजानकार मनुष्य को समझाना सामान्यतः सरल होता है । उससे भी आसान होता है जानकार या विशेषज्ञ अर्थात् चर्चा में निहित विषय को जानने वाले को समझाना । किंतु जो व्यक्ति अल्पज्ञ होता है, जिसकी जानकारी आधी-अधूरी होती है, उसे समझाना तो स्वयं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के भी वश से बाहर होता है ।"-- (भर्तृहरि विरचित नीतिशतकम्, श्लोक 3)

"कठिन प्रयास करने से संभव है कि कोई बालू से भी तेल निकाल सके, पूर्णतः जलहीन मरुस्थलीय क्षेत्र में दृश्यमान मृगमरीचिका में भी उसके लिए जल पाकर प्यास बुझाना मुमकिन हो जावे, और घूमते-खोजने अंततः उसे खरगोश के सिर पर सींग भी मिल जावे, परंतु दुराग्रह-ग्रस्त मूर्ख को संतुष्ट कर पाना उसके लिए संभव नहीं ।"-- (भर्तृहरि विरचित नीतिशतकम्, श्लोक 5)

"मनुष्य कठिन प्रयास करते हुए मगरमच्छ की दंतपंक्ति के बीच से मणि बाहर ला सकता है, वह उठती-गिरती लहरों से व्याप्त समुद्र को तैरकर पार कर सकता है, क्रुद्ध सर्प को फूलों की भांति सिर पर धारण कर सकता है, किंतु दुराग्रह से ग्रस्त मूर्ख व्यक्ति को अपनी बातों से संतुष्ट नहीं कर सकता है ।"
-- (भर्तृहरि विरचित नीतिशतकम्, श्लोक 4)

'मैंने ऐसा कोई गधा नहीं देखा जो इंसानों की तरह बात करता हो, लेकिन ऐसे ढेरों इंसान देखे हैं जो गधे की तरह बात करते हैं I
-- हाइनरिख हाइने (जर्मन महाकवि)

'मूर्खता और बुद्धिमता में यह फर्क है कि बुद्धिमता की एक सीमा होती है।'
-- अल्बर्ट आइन्स्टीन

'दो चीज़ें अनन्‍त हैं: ब्रह्माण्‍ड और मनुष्‍य की मूर्खता, और मैं ब्रह्माण्‍ड के बारे में दृढ़ता से नहीं कह सकता।' -- अल्बर्ट आइन्स्टीन

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महामनीषियों के इन उद्धरणों के बाद मूल बात पर आते हैं जो बहुत दिलचस्प है I इसका आप मज़ा लीजिये, फिर अपना सिर पीटिये और फिर आश्चर्य से भरकर सोचिये कि हमारे देश की धरती सोना-हीरा-मोती तो पता नहीं कितना उगलती है, लेकिन अद्भुत-अलौकिक दार्शनिकों की ऐसी फसल पैदा करती है कि स्वर्ग में बैठे वृहस्पति, कपिल, कणाद, गौतम अक्षपाद आदि की आत्माएँ अपना सिर पीट-पीटकर गंजा कर लेती हैं !

एक अद्भुत-दिव्य-अलौकिक दार्शनिक हैं मंजुल भारद्वाज जो मुम्बई को अपने निवास से कृतार्थ करते हैं, स्वयं को रंग-चिन्तक कहते हैं और 'थियेटर ऑफ़ रेलेवेंस' के संस्थापक के रूप में भरत मुनि, अरस्तू, दिदेरो, ब्रेष्ट, स्तानिस्लाव्स्की, मेयेरहोल्ड आदि की परम्परा को आगे धकेलते हुए संधान की नयी ऊँचाइयों को छू रहे हैं ! मार्क्स के जन्मदिन के अवसर पर उन्होंने एक पोस्ट डालकर मार्क्स के विचारों की कमियों पर आँखें चुँधिया देने वाला प्रकाश डाला ! मज़े की बात यह कि यह काम उन्होंने मार्क्स को बिना पढ़े किया क्योंकि उनका कहना है कि वे किताबें नहीं, ज़िंदगी पढ़ते हैं ! तो ऐसी है भइया नए भारद्वाज मुनि की दिव्य दृष्टि, लिफाफा देखकर मजमून भाँपते हैं, किताब की शक्ल तक देखे बिना लेखक के विचार जान लेते हैं और उसकी कमी भी निकाल देते हैं ! मेरा तो ख़याल है कि भारद्वाजजी को थियेटर से अपने विचारों से समृद्ध करने की जगह सीधे दर्शन के अंगने में ही झम्म से कूद पड़ना चाहिए और अपने मौलिक अवदानों से हाहाकार मचा देना चाहिए !

बहरहाल, मार्क्स के विचारों की दिव्य-दृष्टि-संपन्न चिंतकजी ने जो आलोचना की थी, उसपर मैंने एक टिप्पणी करने की गुस्ताख़ी की और हमलोगों के बीच एक "संक्षिप्त, मधुर, ज्ञानोद्दीपक" संवाद हुआ ! मंजुलजी के विचार से यह संवाद शायद भारत के हिन्दीभाषी जन के लिए हितकारी नहीं था, इसलिए इसे अपनी पोस्ट से उड़ा दिया और यही नहीं, मुझे अमित्र भी कर दिया !

बहरहाल, आप लोग भी इस संवाद को पढ़िए, लाभान्वित होने की क्षमता तो है नहीं, कुछ मज़े ही ले लीजिये ! समय-समय पर आनंदित होना भी बहुत ज़रूरी होता है !

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भारत-भूमि के एक महामनीषी चिन्तक से फेसबुक पर एक संवाद --

मंजुल भारद्वाज --

कार्लमार्क्स का चिन्तन व्यवस्था निर्माण का अमूल्य सूत्र है ..पर अधूरा है ..क्योंकि व्यवस्था को चलाने ‘वाले’ व्यक्ति की व्यवस्था यानी ‘चरित्र’ निर्माण पर खामोश है ..इस अधूरेपन को पूरा किये बगैर ‘न्यायसंगत’ व्यवस्था का टिक पाना असम्भव है. क्योकि लोभ. लालच, हिंसा,वर्चस्ववाद ये आत्मजनित मानव दुर्गुण हैं. वर्गीय संघर्ष अटल है सदियों तक हुआ है होता, रहेगा.संघर्ष के तरीके क्या हों? मार्क्स संघर्ष में हिंसा को नकराते नहीं हैं. धर्म को खारिज़ करते हैं और धर्म के अंतिम हथियार ‘वध’ को अपनाने में गुरेज़ नहीं करते ..ये विरोधाभास है मार्क्स के चिंतन में. मार्क्स हाशिये के द्वारा सत्ता क़ायम करने के बाद ‘सत्ता’ के चारित्रिक दुष्प्रभाव से निकलने का मार्ग नहीं सुझाते. मार्क्स ने स्वयं अपने सिद्धांत का प्रयोग सत्ता के लिए नहीं किया.पर उनके सिद्धांत पर खड़ी हुए सत्ता ‘हाशिये’ की व्यवस्था के नाम पर तानाशाहों की जागीर निकली. समता के नाम पर एक व्यक्ति सालों साल या अपनी मृत्य तक मसीहा बना रहा..यानी एक व्यक्ति ‘अवतार’ बनकर काबिज़ रहा. ये व्यक्तिवाद का उभार मार्क्स के चिंतन का दीमक है. मार्क्स का विचार तानाशाहों की हिंसा और साम्राजवादी मंसूबों की ढाल बना हुआ है. हमें मार्क्स के विचार को नए सिरे से समझने की ज़रूरत है . कोई भी मार्क्स को खारिज़ नहीं कर सकता पर उनके ‘विचार’ पर खड़े हुए ‘राजनीतिक साम्राज्यों का सटीक विश्लेष्ण अनिवार्य है. कार्लमार्क्स का चिन्तन व्यवस्था निर्माण का अमूल्य सूत्र है ..पर अधूरा है ....
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कविता कृष्णपल्लवी --

मेरे विचार से मूल मार्क्स को पढ़कर ही जजमेंटल होना चाहिए ! मार्क्स का चिन्तन रिनेसां के मानववाद को और प्रबोधनकालीन दार्शनिकों के तर्कणा और जनवाद के आदर्शों को आत्मसात करके, तथा यूटोपियाई समाजवाद के समता के स्वप्नों को आगे विस्तार देकर वैज्ञानिक समाजवाद तक पहुँचता है ! इसके लिए उन्होंने जर्मन दर्शन, ब्रिटिश राजनीतिक अर्थशास्त्र और फ़्रांसीसी समाजवाद के सूत्रों को स्रोत-आधार बनाने के साथ ही प्राचीन ग्रीक गौरव-ग्रंथों से लेकर अपने समय के साहित्य तक का गहन अध्ययन किया था ! आप मेहरिंग द्वारा लिखा उनके बारे में संस्मरण ही पढ़ लेते ! मार्क्स की बुनियादी संकल्पना ही यह है कि पूँजीवादी श्रम-विभाजन की समाप्ति के बाद एक सम्पूर्ण मानवीय व्यक्तित्व वाला मनुष्य अस्तित्व में आ सकता है क्योंकि तब एलियनेशन, विमानवीकरण और व्यक्तित्व के विघटन के सामाजिक कारण समाप्त हो जायेंगे ! मानवीय सारतत्व, मानवीय चरित्र, मानवीय मूल्य और नैतिकता की भौतिकवादी अवधारणा को समझने के लिए '1844 की दार्शनिक और आर्थिक पांडुलिपियाँ' , 'जर्मन आइडियोलॉजी', 'होली फॅमिली' और 'ग्रुन्द्रिस्से' जैसी मार्क्स की 'पूँजी'-पूर्व कृतियों को पढ़ा जा सकता है ! मार्क्स के इन विषयों पर केन्द्रित विचारों के बारे में एरिक फ्रॉम, इस्तेवान मेस्जारोस, लूकाच, मिहाइलो मार्कोविक, एडम शैफ आदि की दर्ज़नों किताबें हैं ! आपकी बातों से तो यही लगता है कि मार्क्स की मूल कृतियाँ तो दूर, मार्क्स के विचारों से परिचित कराने वाली किसी स्तरीय पुस्तक का भी आपने अध्ययन नहीं किया है ! और अगर किया है तो आपकी इन बातों पर मुझे घोर आश्चर्य हो रहा है ! "मौलिक चिंतन" के लिए भी पहले से मौजूद दार्शनिक सामग्री का अध्ययन-अनुशीलन-मंथन ज़रूरी होता है ! आलोचना किसी की भी की जा सकती है, असहमति किसी से भी रखी जा सकती है, पर उसके विचारों को मूल स्रोतों से जानने के बाद ही ! अगर यह स्पष्टवादिता बुरी लगी हो तो मुझे क्षमा करें !
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मंजुल उपाध्याय --

हर भक्त यही कहता है ...2014 से सबको भक्त नजर आए..पर यह 2014 में पैदा नहीं हुए ..यह मौजूद थे 2014 से पहले ..हाँ इनके रंग अलग थे ... आपने सही कहा ..मैं पुस्तकें नहीं जीवन पढता हूँ ..मार्क्सवादी पुस्तकों से दुनिया के पुस्तकालय भरे पड़े हैं और भूमंडलीकरण दुनिया को लील रहा है ..आपको मनन और मंथन शब्दों से चीड है शायद और आपको ही नहीं तमाम मार्क्स के भक्तों को है ..वो कभी अपनी महान आत्मघाती बेवकूफियों पर आत्म आलोचना नहीं करते ...आप असहमत है ..इसका सम्मान ... !

मंजुल उपाध्याय--

आपके जवाब बड़े सतही हैं .. १.आप बताएं रिनेसां के मानववाद का सिद्धांत कहाँ से उभरा ..अगर यह मानववाद की पैरवी करता है तो जिन देशों से यह सिद्धांत निकला वो देश साम्राज्यवादी क्यों हुए? दुनिया के देशों को क्यों गुलाम बनाया
२. जर्मन दर्शन का मूल क्या है?
3. लेनिन ..स्टॅलिन ने तो मूल मार्क्स को पढ़कर ही सत्ता पर काबिज़ हुए होंगे ..वो तानाशाह कैसे बन गए?
4. रुसी क्रांति के दो दिन बाद ..मनिफेस्टो क्यों बदला गया ... वो बदलाव क्या हुए बता दीजिएगा!
यह बात और है की मैं किताबें नहीं पढ़ता..जिन्दगी पढता हूँ !
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कविता कृष्णपल्लवी --

आप पुस्तकें जब पढ़ते ही नहीं, सिर्फ़ जीवन पढ़ते हैं तो पुस्तकों में उल्लिखित मार्क्स के विचारों को जान कैसे लिया कि उनकी आलोचना लिख मारी ! अद्भुत दिव्य-दृष्टि है आपकी, स्वयंभू चिंतकजी ! आप तो मसीहा हैं, पैगम्बर हैं ! भक्त भला आप क्यों होंगे ! आपको तो भक्तों की ज़रूरत है ! पर चिंता न करें, शायद गधे भी आपके भक्त न बनें ! एक आपत्ति पर ही इतने पिनपिना गए कि मुझे मोदी-भक्तों जैसा भक्त घोषित कर दिया ! मेरा सिर्फ़ यह कहना था कि मार्क्स के विचारों की आपने जो आलोचना की है, वह गलत है, मार्क्स के ऐसे विचार थे ही नहीं ! आप खुद मानते हैं कि आपने मार्क्स को पढ़ा ही नहीं ! बल्कि आपका कहना है कि आप किताबें ही नहीं पढ़ते, जीवन पढ़ते हैं ! फिर जीवन के बारे में ही अपने "मौलिक विचार"प्रकट करते हुए चेला मूडिये न ! जिन विचारों को पढ़ा-जाना ही नहीं, उनकी आलोचना करने को क्यों आतुर हो गए ! और आपत्ति करने पर बिलबिला कर मुझे ही भक्त घोषित कर दिया ! अब मुझे भरोसा हो गया है कि आप भरत मुनि अरस्तू, दिदेरो, ब्रेष्ट, स्तानिस्लावस्की, मेयेरहोल्ड, वाख्तांगोव, पिस्काटर आदि के रंग-सिद्धांतों को पढ़े-जाने बिना ही रंग-चिन्तक बन गए हैं ! अपने दूसरे कमेन्ट में आपने और मूर्खतापूर्ण सवाल उठाये हैं ! आप सर्वहारा क्रांतियों की वैचारिकी, इतिहास और समस्याओं के बारे में कुछ नहीं जानते ! विकीपीडिया और डिस्कवरी चैनल और टेक्स्टबुक स्तर की जानकारियों की पागुर कर रहे हैं ! इतिहास के बारे में कुछ भी नहीं जानते ! ऐसे "महामौलिक" चिंतकों से बात करना अपना समय जाया करना है ! क्षमाप्रार्थी हूँ आचार्य वृहस्पति और आचार्य शुक्राचार्य की मिश्रित प्रतिभा वाले अवतारी पुरुष ! विदा ! Rajesh Chandra, आपकी बदौलत एक अवतारी पुरुष का साक्षात्कार हो गया ! विरल अनुभव रहा ! शुक्रिया ! ये आदमी तो दुर्लभ नमूना है !

(6मई, 2019)

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