यह भौतिकवादी सिद्धान्त कि मनुष्य परिस्थितियों एवं शिक्षा-दीक्षा की उपज है, और इसलिए परिवर्तित मनुष्य भिन्न परिस्थितियों एवं भिन्न शिक्षा-दीक्षा की उपज है, इस बात को भुला देता है कि परिस्थितियों को मनुष्य ही बदलते हैं और शिक्षक को स्वयं शिक्षा की आवश्यकता होती है। अत: यह सिद्धान्त अनिवार्यत: समाज को दो भागों में विभक्त कर देने के निष्कर्ष पर पहुँचता है, जिनमें से एक भाग समाज से ऊपर होता है(राबर्ट ओवेन में, उदाहरणार्थ, हम ऐसा पाते हैं)।
परिस्थितियों तथा मानव क्रियाकलाप के परिवर्तन का संपात केवल क्रान्तिकारी व्यवहार के रूप में विचारों तथा तर्कबुद्धि द्वारा समझा जा सकता है।
-- कार्ल मार्क्स (फायरबाख़ पर निबंध,1845)
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सिद्धान्त जैसे ही जनसमुदाय को अपनी पकड़ में ले लेता है, एक भौतिक शक्ति बन जाता है।
-- कार्ल मार्क्स (हेगेल के 'फिलॉसोफी ऑफ राइट' की आलोचना की भूमिका)
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'' मार्क्स ही हेगेलीय तर्कशास्त्र से वह मर्मवस्तु निकालने का बीड़ा उठा सकते थे, जो इस क्षेेत्र में हेगेल के वास्तविक अन्वेषणों को प्रस्तुत करती है, और वही भाववादी खोलों से मुक्त की जाने वाली द्वंद्वात्मक पद्धति की पुनर्स्थापना कर उसे एक ऐसा सरल रूप देने का बीड़ा उठा सकते थे, जिसमें वह चिंतन के विकास का एकमात्र सच्चा रूप बन जाता है। ऐसी पद्धति तैयार किये जाने के कार्य को, जो राजनीतिक अर्थशास्त्र की मार्क्स द्वारा समीक्षा की आधारशिला है, हम स्वयं मूल भौतिकवादी दृष्टिकोण से ज़रा भी कम महत्वपूर्ण नहीं मानते ।''
-- फ्रेडरिक एंगेल्स
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