Thursday, February 28, 2019


कल्पना कीजिए, इत्तेफ़ाक़ से आप किसी एक ऐसी बस्ती का बाशिन्दा बनने के लिए मज़बूर होते हैं, जहाँ के नागरिकों में एक आम सहमति है कि कोई भी आदमी आम तौर पर उसूलों और आदर्शों की जितनी चाहे बात कर ले, लेकिन किसी भी अपराध, कुकर्म, समझौता, कायरता, दोमुँहापन, व्यभिचार, दुराचार, मौकापरस्ती आदि-आदि के लिए किसी व्यक्ति-विशेष की ओर उँगली नहीं उठाएगा I सारी बातें सामान्य की भाषा में होगी, विशिष्ट की कोई चर्चा नहीं होगी I आप उस बस्ती के इस अलिखित नियम को, मान लीजिये, तोड़ देते हैं, और चीज़ें जैसी चल रही हैं, उन्हें वैसा ही बयान करने लगते हैं I आप गुनाहों और बुराइयों और गंदे समझौतों के लिए ज़िम्मेदार लोगों का नाम लेकर उनकी ओर उँगली उठाने लगते हैं ! तब आपकी हर एक बात उस बस्ती में यूँ गूँजेगी, जैसे सन्नाटे में बन्दूक से गोली छूटने की आवाज़ !

जल्दी ही आप लोगों के निशाने पर आ जायेंगे I आपको उस बस्ती से निकाल बाहर करने से लेकर हत्या तक की साज़िशें रची जाने लगेंगी I और जो कायर और शरीफ़ शांतिप्रेमी नागरिक होंगे, वे भी कहेंगे, "इतना विवाद और शोर और मुँहफटपन की क्या ज़रूरत थी, शालीनता भी तो कोई चीज़ होती है !"

इसतरह शराफ़त और शालीनता की कई बार कुकर्मों और अपराधों के साथ दुरभिसंधि होती है ! इसतरह कई बार शांतिप्रेमी जीव हत्यारों के साथ भी जा खड़े होते हैं ! जब ठहराव, उलटाव और प्रतिक्रिया की शक्तियाँ जीवन पर हावी होती हैं और प्रगतिकामी शक्तियाँ कमज़ोर और बिखरी हुई होती हैं तो बौद्धिक और सांस्कृतिक-साहित्यिक जगत में ऐसा दृश्य अक्सर देखने को मिलता है !


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अगर गंदे नाले से खाना पकाने की गैस बन सकती है, गायें पंडितों से भागवत कथा सुन सकती हैं, सनी लियोनी बिहार में जूनियर इंजीनियर (सिविल) की भरती परीक्षा टॉप कर सकती हैं, अगर नोटबंदी से आतंकवाद की कमर तोड़ने के बाद टमाटर और भिन्डी से पाकिस्तान को सबक सिखाया जा सकता है, तो अपने दुग्गल साहेब को सियोल शान्ति पुरस्कार क्यों नहीं मिल सकता ?

फासिस्ट समय हत्याओं, उन्माद और आतंक का समय होता है, पर साथ ही ऐसी मूर्खताओं और प्रहसनों का भी समय होता है कि आप हँसते-हँसते रो पड़ें !

वैसे एक बात बताइये ! सत्य की अर्थी को अगर नोबेल मिले, तो क्या शान्ति की अर्थी को सियोल वाला शांति पुरस्कार भी न मिले ?


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ये कचहरी चौराहे का चायवाला तो वही बुरादे वाली चायपत्ती कई-कई बार उबाल-उबाल कर पिला रहा है जिसमें घोड़े की लीद सुखाकर मिलाई गयी है ! जितना भी तुलसी-अदरक डाल रहा है, लीद की बदबू दबती ही नहीं ! क्या करे बिचारा ! और सुनिए, लोग इसकी चाय पीकर जो कुल्हड़ फेंकते हैं, रात में यह उन्हें जाकर बटोर लेता है और सुबह फिर उन्हीं में लोगों को चाय देता है ! यह भी रात को किसी ने देख लिया और अब बात फैलती जा रही है। ग्राहक तेजी से टूट रहे हैं !

(1मार्च, 2019)


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भक्तो ! पूरी दुनिया में तुमलोगों के इष्टदेव की तो ऐसी-तैसी हो गयी ! पुलवामा के पहले इंटेलिजेंस रिपोर्ट की अनदेखी की गयी, यह तथ्य दुनिया जान गयी ! पाकिस्तान को सबक सिखाने चले तो 16 दिन में 62 सैनिक मारे गये। एक जहाज और एक हेलीकॉप्टर क्रैश हो गया I सदभावना दिखाने के दावे के साथ पायलट को वापस भेजकर वाहवाही ले गए इमरान खान ! आतंकी ठिकानों को नष्ट करने के लिए जो कार्रवाई की तो आपके भोंपू चैनलों ने तीन सौ से लेकर छः सौ तक आतंकी मार गिराने के दावे कर दिए ! फिर दुनिया भर की मीडिया ने बताया कि पहाड़ पर कुछ पेड़ टूटे, एक ग्रामीण घायल हुआ और एक कौव्वा मरा I एक भी आतंकी की लाश किसी ने न देखी I फिर कोई पूछे कि जश्न किस बात का मनाया जा रहा है ? देशभक्ति की डींगें किस बात पर हांकी जा रही हैं ? गुजराती गधा अब भी बेशर्मी से हाथ चमका-चमकाकर, भौहें नचा-नचाकर डायलाग मार रहा है ! उधर कई मूर्ख भाजपा नेताओं ने उतावली में यह बयान देकर और गुड़ गोबर कर दिया कि शहादत और बदले के शोर से बने माहौल में अब खूब वोट मिलेंगे ! लोग बूथ कमांडर बैशाखनंदन बातबली थेंथरचन्द पर पेट पकड़-पकड़ कर हँस रहे हैं ! संघी हेडक्वार्टर में चिंता गहरा गयी है ! मंदिर मुद्दे के फुसफुसा पटाखा साबित होने के बाद यह युद्धोन्माद भड़काने का दाँव भी लगता है, उलटा पड़ गया ! लोग फिर रफ़ाल, बेरोजगारी, मंहगाई, नोटबंदी, जी.एस.टी. पूँजीपतियों के देश छोड़कर भागने और 15 लाख वाले जुमले की बातें करने लगे हैं ! गालीबाज़ ट्रोल्स और भाड़े के प्रचारकों का असर कम होता जा रहा है ! 'सरकती जाए है रुख से नकाब आहिस्ता-आहिस्ता ... !

(2मार्च, 2019)


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यार, हर बात को इतने सीरियसली क्यों लेते हो ? वो तो बहुत पहले से एक कहावत थी, 'झूठ बोले कौव्वा काटे'... और तुमलोगों ने एयरस्ट्राइक करके तमाम पेड़ों के साथ उस बिचारे कौव्वे को मार डाला क्योंकि तुम्हें लगता था कि तुम झूठ बोलते रहोगे और कौव्वा तुम्हें काटता रहेगा !

(3मार्च, 2019)



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