Wednesday, February 27, 2019


हमारे समय के महानतम वैज्ञानिकों में से एक,स्टीफ़न हाकिंग कहते हैं : "विज्ञान सिर्फ़ तर्कणा का क्षेत्र नहीं है, बल्कि रोमांस और जुनून का क्षेत्र भी है I"

इस बात से बात निकालते हुए मैं कहूँगी कि क्रान्ति सिर्फ़ रोमांस और जुनून का क्षेत्र नहीं है, बल्कि यह वैज्ञानिक तर्कणा का क्षेत्र भी है I भले ही आप अन्याय और असमानता से अपरम्पार नफ़रत करते हों और इन्हें समाप्त करने के लिए कुछ भी कर गुज़रने के लिए तैयार हों, क्रांतिकारी बदलाव के काम को आप तबतक आगे गति नहीं दे सकते, जबतक कि आप अपने समाज की संरचना और गतिकी की कोई समझ न रखते हों ! क्रांति एक सुनियोजित वैज्ञानिक क्रिया है, जो प्रकृति और प्रयोगशाला की वैज्ञानिक क्रियाओं से सैकड़ों गुना अधिक जटिल होती है, संश्लिष्ट होती है !

जो लोग सामाजिक क्रांतियों के विज्ञान और शिल्पकारिता को समझे बिना, वैज्ञानिक तर्कणा से इतिहास-बोध विकसित किये बिना, भरपूर जोशो-जुनून के साथ समाज को बदलने के लिए अपना सबकुछ झोंक देने आ जाते हैं, वे मामले को बहुत लंबा खिंचता देखकर, या पराजय और विफलता के कुछ झटकों से ही कुम्हला जाते हैं I अगर वे दुस्साहस के झोंक में अपने को कुर्बान भी कर देते हैं, तो जनता उनकी सदिच्छा का सम्मान करती है और साथ ही उनकी कुर्बानी की व्यर्थता से निराश भी होती है ! क्रांतिकारी वाम आन्दोलन के अतिवामपंथी दुस्साहसवादी परम पापी, पुरातन पतित सोशल डेमोक्रेट्स की तरह बेईमान-मक्कार लोग नहीं होते ! वे जेनुइन क्रांतिकारी होते हैं, लेकिन क्रांति के विज्ञान की सुसंगत समझ और व्यापक जन-समुदाय को जागृत-संगठित किये बिना, बन्दूक और बलिदानों के शॉर्टकट से क्रान्ति कर देना चाहते हैं ! उनका यह विज्ञान-रिक्त जोशो-जुनून क्रांतिकारी धारा के अग्रवर्ती विकास को काफ़ी क्षति पहुँचाता है !

केवल राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं, अगर आप एक परिवर्तनकामी चेतना के साथ कला-साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में भी काम करते हैं तो कलात्मक सृजन के नियमों, विधा-विशेष की शिल्पकारिता और सौन्दर्यशास्त्रीय विधानों के साथ ही, सामाजिक-आर्थिक संरचना की भी आपकी एक सुसंगत समझदारी होनी चाहिए और इसके लिए आपके पास समाज-विश्लेषण के औज़ार भी होने चाहिए ! प्रकृति और समाज में, कहीं भी आभासी या प्रतीयमान यथार्थ सारभूत यथार्थ नहीं होता I सतह के आभासी यथार्थ को भेदकर सारभूत यथार्थ के तल तक पहुँचने के लिए आपको वैज्ञानिक दृष्टि की ज़रूरत पड़ेगी ही पड़ेगी ! इसके बिना, क्रांतिकारी सर्वहारा दृष्टि के दावे के साथ जो साहित्य लिखेंगे, वह संकीर्ण अनुभववादी साहित्य होगा, यांत्रिक भौतिकवादी साहित्य होगा, समाजवादी यथार्थवाद के रैपर में लिपटा प्रकृतवादी, या कुत्सित समाजशास्त्रीय माल होगा I

दुर्भाग्य से हमारे देश में वाम आन्दोलन की वैचारिक ज़मीन जितना राजनीतिक क्षेत्र में कमजोर रही है, उतना ही सांस्कृतिक-साहित्यिक क्षेत्र में भी कमजोर रही है I इसके सुनिश्चित ऐतिहासिक कारण रहे हैं और उनकी चर्चा अलग से विस्तार की माँग करती है ! थोड़े में कहें तो आधुनिक भारतीय बौद्धिक जगत और बौद्धिक मानस का निर्माण 'रिनेसां-एज ऑफ़ एनलाइटेनमेंट-डेमोक्रेटिक रेवोलुशन' की प्रक्रिया से गुजर कर नहीं हुआ , बल्कि औपनिवेशिक सामाजिक-आर्थिक संरचना की कोख से हुआ I बहरहाल, वह इतिहास अब काफ़ी पीछे छूट चुका है और त्रासद विडम्बना की इस गठरी को पीठ से उतार फेंकने का समय आ गया है ! भारतीय समाज के युवा अग्रधावकों और भविष्य के आवाहकों को एक ज़बरदस्त वैचारिक तूफ़ान को आमंत्रण देना होगा जो प्रचंड वेगवाही सामाजिक तूफ़ान को संगठित करने के साथ-साथ आगे बढ़ेगा ! जो अवसरवादी, निठल्ले, सुविधाभोगी, दुरंगे छद्म-वामपंथी बुद्धिजीवी हैं, वे एक नए सर्वहारा पुनर्जागरण और प्रबोधन की इस प्रक्रिया को संगठित करने की राह की सबसे बड़ी बाधा हैं ! ये लोग युवा पीढ़ी को डीमोरालाइज और दिग्भ्रमित करते हैं, उनके बीच निराशा और संशय के साथ ही दुनियादारी, कैरियरवाद, 'लाइम-लाइट मेंटालिटी' के संक्रामक विषाणु-जीवाणु फैलाते हैं I यथास्थितिवादी छद्म-वामी पुराने क्रम-विकासवादियों और पैबंदसाज़ सुधारवादियों के ही जारज वंशज हैं ! इन्होने गंद मचा रखी है ! इनकी ठीक से पिटाई करनी होगी ! मेरा मतलब बौद्धिक-वैचारिक पिटाई से है I इस बात को अभिधा में लेने की ज़रूरत नहीं है !

(22फरवरी, 2019)

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