Tuesday, February 26, 2019


व्यवस्था का घनीभूत आर्थिक संकट, लोकरंजकतावादी नारे, धार्मिक-नस्ली उन्माद और भय-आतंक-दंगों का माहौल, उन्मादी अंधराष्ट्रवाद , बुर्जुआ जनवादी संस्थाओं का पतन और उनका सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी का भोंपा-चम्मच बन जाना, पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी का काम करने वाली सरकार का चरित्र एकदम नंगा हो जाना, समूचे पूँजीपति वर्ग का हितसाधन करते हुए भी सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी का कुछ ख़ास घरानों के लिए कमीशन एजेंट के रूप में काम करना, कानूनों को ताक पर रखकर दमन-उत्पीड़न, आदि-आदि ... --- इन सबके अतिरिक्त फासिस्ट सत्ता के दौर की कुछ और विशिष्ट अभिलाक्षणिकताएँ होती हैं I उनमें से कुछ इसप्रकार हैं :

(i) बुर्जुआ जनवाद के अतीत के प्रतिष्ठित नायकों, सिद्धान्तकारों और नेताओं पर फासिज्म के वे नेता बेहद घटिया ढंग से चोट करते हैं जो खुद नितांत अज्ञानी, मूर्ख, सड़क के गुंडे, लफंगे, व्यभिचारी और तड़ीपार होते हैं ! इस काम में वे चरित्र-हनन, झूठ, कुत्सा-प्रचार--इन सारी चीज़ों का सहारा लेते हैं, क्योंकि स्वस्थ राजनीतिक विमर्श वे कर ही नहीं सकते I

(2) विचार, दर्शन और साहित्य-कला-संस्कृति के क्षेत्र में भीषण विचारहीनता, सड़क-छाप हल्केपन और अगम्भीरता का घटाटोप छा जाता है I अकादमिक क्षेत्र में गिरावट रसातल जा पहुँचती है और तमाम संस्थानों पर फासिस्टों के वे चाटुकार हावी हो जाते हैं जो बौद्धिक समाज के कूड़ा और तलछट होते हैं !

(3) जो बुद्धिजीवी संजीदा और गंभीर होते हैं, अगर वे बुर्जुआ विचारों के भी हों तो अँधेरे नेपथ्य में खो जाते हैं ! जो जेनुइन प्रगतिशील लोग होते हैं, उन्हें अकादमिक-सांस्कृतिक दुनिया से देश-निकाला सा दे दिया जाता है, उनकी आवाज़ कहीं पहुँचने नहीं दी जाती, उनके ऊपर फर्जी मुक़दमे ठोंक दिए जाते हैं, उनके घरों पर हमले किये जाते हैं और उनकी ह्त्या तक कर दी जाती है I

(4) ऐसे समय में वाम जनवादी माने जाने वाले साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य पर ऐसे छद्म-वामपंथी और छद्म-प्रगतिशील तत्वों का वर्चस्व स्थापित हो जाता है, जो मूलतः पतित सोशल डेमोक्रेट और बुर्जुआ लिबरल होते हैं I ये बेहद कायर होते हैं जिनकी चिंता अपनी चमड़ी बचाने की होती है I साथ ही ये घनघोर कैरियरवादी और निपट अवसरवादी होते हैं ! ये छद्म-प्रगतिशील 'बुरे शरीफ़ज़ादे' अपने को फासिज्म का विरोधी बताते हैं, अपने आप को बर्नस्टीन-काउत्स्की वाली भाषा में 'लोकतांत्रिक समाजवाद' का पक्षधर बताते हैं, 'शान्ति-शान्ति' की रट लगाते हैं और बेशर्मी के साथ फासिस्टो के सांस्कृतिक उपक्रमों-आयोजनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं, उनसे पद-पीठ-पुरस्कार-सम्मान लेते हैं I तात्पर्य यह कि बौद्धिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक क्षेत्र में वामपंथ और प्रगतिशीलता के नाम पर तमाम घटिया, कमीने, अवसरवादियों और कैरियरवादियों का धुमगज्जर मच जाना भी फासिस्ट समय-समाज की ही एक पहचान है !

(21फरवरी, 2019)

No comments:

Post a Comment