एक कामरेड बचपन का एक बहुत दिलचस्प किस्सा सुनाते हैं I उनके घर के बड़े-बुजुर्ग एक दिन बैठकर पट्टीदारी के एक व्यक्ति के बारे में, जो रिश्ते में बाबा लगते थे, बातें कर रहे थे कि वह कितने बेईमान, कमीने और मौकापरस्त थे, किसतरह उन्होंने बँटवारे में बेईमानी की, किसतरह फलाँ की तरक्की से कुढ़कर उसके मछलियों से भरे तालाब में ज़हर डलवा दिया, किस गरीब को दी गयी क़र्ज़ की छोटी सी राशि पर सूद जोड़-जोड़कर उसका खेत ले लिया, वगैरह-वगैरह ... I ये सारी बातें वह भी चुपचाप सुन रहे थे I तीन दिन बाद ही उस आदमी की मौत हो गयी ! घर के सभी उनकी अंत्येष्टि में शामिल हुए और लौटकर उसके बारे में काफ़ी अच्छी-अच्छी बातें कर रहे थे I बच्चा कन्फ्यूज हो गया ! उसने आपत्ति की कि वो वाले बाबा तो बेईमान और कमीने थे ! और फिर 'चटाक' की आवाज़ के साथ बच्चे के गाल पर पाँच उंगलियाँ छप गयीं :" बदमाश, ख़ुराफाती कहींका, स्वर्गवासी के बारे में खराब बातें बोलता है !" फिर माँ ने समझाया कि 'किसी के मरने पर उसके बारे में बुरी बातें नहीं करते हैं ! हिन्दू धर्म में इसे पाप माना जाता है !'
हमारे देश के वामपंथियों के भीतर, ऐसा लगता है कि वही जड़ीभूत हिन्दू संस्कार गहराई तक पैठे हुए हैं ! साहित्य की दुनिया में किसी के मरते ही उसे युग-प्रवर्तक, अभिभावक आदि, यानी लगभग अवतारी पुरुष या महानतम घोषित कर दिया जाता है और उनके निधन के बाद एक युग का अंत घोषित कर दिया जाता है I उस व्यक्ति ने साहित्य में भले ही अवसरवादी ढंग से परस्पर-विरोधी स्थापनाएँ दी हों, साहित्य और अकादमिक दुनिया के शक्ति-केन्द्रों का प्रतापी नीति-निर्माता रहा हो, भले ही उसने धुर-दक्षिणपंथियों और कुख्यात गुंडों तक के साथ मंच शेयर किया हो, और कई बार खुले तौर पर अपने जातिवादी पूर्वाग्रहों का प्रदर्शन किया हो, उसके बारे में प्रशंसा-पुष्पों की ऐसी झड़ी लगा दी जाती है कि बस पूछो मत ! मैं यह कत्तई नहीं कहती कि निधन के बाद का समय किसी के बारे में मूल्यांकन-परक लेख लिखने का होता है, या उसकी आलोचना करने का होता है ! सामान्य आदरांजलि काफ़ी है ! लेकिन जब आप कोई मूल्यांकनपरक बात करेंगे तब तो आपको दोनों पक्षों पर संतुलित ढंग से रोशनी डालनी ही पड़ेगी ! आज जो आप भाव-विह्वल होकर लिख रहे हैं, वह लेखन वर्षों बाद भी सुरक्षित बचा रहेगा और उससमय का पाठक उसे आलोचनात्मक मूल्यांकनपरक लेखन के रूप में पढ़ेगा I इसलिए, या तो सिर्फ़ आदरांजलि दीजिये, या दिवंगत के सकारात्मक अवदानों को गिनाइये, तो नपी-तुली संतुलित भाषा में दूसरे पक्ष की भी चर्चा कर दीजिये, ताकि सनद रहे ! ऐसे किसी नाज़ुक मौके पर मैं या तो चुप रहना चाहूँगी, या फिर बस इतना कहूँगी, "विदा ! नमन!" और जो लोग महाविभूति होते हुए भी मेरे ख़याल से जनपक्ष के लोग नहीं होते, उन्हें तो मैं श्रद्धांजलि भी नहीं देती I निंदा या आलोचना भी नहीं करती, बस चुप रहती हूँ ! यही शिष्टाचार का तक़ाज़ा होता है !
मैं जानती हूँ, ऐसी बातें करने से भी कुछ लोग गुस्सा हो जायेंगे, कुछ लोग चिड़चिड़ा जायेंगे I पर बात अगर एकदम दिल से दिल में आयी हो, तो उसे न कह देना अनैतिक लगता है I कुछ लोगों की पाचन-शक्ति इतनी अच्छी होती है कि एथिक्स की पूरी किताब पचा लें, पर कुछ लोगों का छोटी-छोटी बातों से ही पेट फूलने लगता है ! हालाँकि मैं जानती हूँ कि आज के ज़माने में ऐसी बातें करना "अतिआदर्शवादी मूर्खता" मानी जाती है ! आज के ज़माने में फासिस्टों से गलबहियाँ करके, उनकी सरकारों से सम्मानित-पुरस्कृत होकर और अखबारों में पद्दू के एकात्म-मानववाद पर लेख लिख कर भी आप आराम से वामपंथी बने रह सकते हैं !
(21फरवरी, 2019)
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