(भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने सत्ता-तंत्र के दमन, नागरिक अधिकारों और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर आयेदिन कोई न कोई कानूनी लड़ाई लड़ते रहने वाले सुप्रसिद्ध अधिवक्ता प्रशांत भूषण को नसीहत देते हुए कहा -- 'सकारात्मक रहिये, दुनिया ख़ूबसूरत दिखेगी I' -- https://indianexpress.com/…/cji-advice-to-prashant-bhushan…/)
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मी लार्ड ! मुझे बेहद नकारात्मक होने के संगीन जुर्म में
सज़ा सुनाकर अँधेरी काल कोठरी में बंद करवा दीजिये
मगर मैं इतनी सकारात्मक नहीं होना चाहती
कि दिन पर दिन नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त बदसूरत होती जा रही
इस दुनिया को ख़ूबसूरत कह सकूँ I
और यह दुनिया जिस दिन मुझे सचमुच
ख़ूबसूरत दीखने लगेगी, मैं अपनी धोखेबाज और बेरहम आँखों को
सज़ा-ए-मौत का फरमान सुनाना चाहूँगी !
बेअदबी के लिए मुआफ़ करें मी लार्ड !
गू को मैं हलवा कैसे कहूँ
और अगर कह भी दूँ तो गू तो गू ही रहेगा
हाँ, मेरी ज़ुबान ज़रूर लोगों के भरोसे के क़ाबिल नहीं रह जायेगी I
मी लार्ड ! बुद्ध का अनुयायी होने के एलान के बावजूद
बर्बर तो बर्बर ही रहेगा, हत्यारा हत्यारा ही रहेगा
और लोकतंत्र और संविधान की तमाम दुहाई देने के बावजूद
फासिस्ट तो फासिस्ट ही रहेगा
और क़ानून की तमाम किताबें पढ़ लेने,
और सीने पर तमाम तमगे सजा लेने के बाद
शहर क़ाज़ी की ऊँची कुर्सी पर बैठकर जो शख्स
बादशाह सलामत की मर्ज़ी से इंसाफ़ करेगा
उसे डरे हुए शहरी ऊपरी तौर पर चाहे जितनी इज्ज़त बख्शें
तवारीख़ उसे दुनिया के सबसे गिरे हुए
इंसानों की कतार में ही जगह देगी I
मुआफ़ी बिना माँगे मैं आपसे ही पूछती हूँ हुज़ूर,
कि तमाम बेशुमार तरक्कियों और लकदक रोशनियों के बीच
इसक़दर ज़िल्लत की ज़िंदगी बसर करते
नए ज़माने के बेबस, मशीनी गुलामों की भीड़,
भूख और बीमारी से मरते बच्चों, बिकती औरतों,
करोड़ों बेरोज़गारों, फंदे से झूलते गाँव के गरीबों,
अपनी जगह-ज़मीन से दर-बदर होते और
जोर-ज़बरदस्ती से भगाए जाते लोगों,
धर्म-ध्वजाधारियों के वहशी खूनी उत्पातों,
हरतरफ लूट-मार और मुल्क के कई हिस्सों में
फौज़ी बूटों की धमक के बीच आखिर किस चीज़ को
मैं ख़ूबसूरत कहूँ और ऐसी गंदी-घिनौनी
ग़लतबयानी के लिए अलफ़ाज़ कहाँ से लाऊँ ?
हाँ, एक चीज़ जो ख़ूबसूरत दीखती है वह यह है कि
कुछ लोग अभी भी इस मुल्क में
सर ऊँचा करके चलते हैं,
दबे-कुचले लोगों को उम्मीद और सपने बाँटते हैं
और ज़ोरो-ज़ुल्म के ख़िलाफ़ बग़ावत के लिए उकसाते हैं I
लेकिन ऐसे लोगों को ही नहीं, उनकी कारगुजारियों को
ख़ूबसूरत बताने वालों को भी
दिन-दहाड़े उठा लिया जाता है, ग़ायब कर दिया जाता है
और मीडिया उन्हें कभी शहरी, कभी देहाती तो कभी
जंगली दहशतगर्द बता दिया करती है !
तो बताइये मी लार्ड ! मैं इस क़दर सकारात्मक कैसे बनूँ कि मुझे
ये तमाम चीज़ें ख़ूबसूरत नज़र आने लगें !
अब देखिये न ! आपके पीछे जो इंसाफ़ की देवी खड़ी है
आँखों पर पट्टी बाँधे और हाथ में इंसाफ़ का तराजू थाम्हे,
वह अपनी मलमल की झीनी पट्टी के भीतर से
लोगों के चेहरे पहचानकर इंसाफ़ तोल रही है
और लोगों की नज़र बचाकर डंडी मार रही है
और न्याय की जिस ऊँची कुर्सी पर आप बैठे हैं
उसके चारो पैरों के नीचे लहूलुहान लोग दबे पड़े हैं
और यहाँ से बहता हुआ लहू चुपचाप
बाहर गलियारों में बह रहा है I
अब इस सच को मैं एक ख़ूबसूरत मंज़र की तरह
कैसे देखूँ और बयान करूँ,
मुझे तो कुछ समझ नहीं आता I
और हुज़ूर, आप कुछ समझा सकेंगे
--- इसकी मुझे उम्मीद भी नहीं है !
(18 जनवरी, 2019)
....
( साथ का चित्र गुस्ताव क्लिम्ट का मास्टरपीस जो लंबे समय तक खोया रहा -- 'Jurisprudence—Sovereign Violence and the Rule of Law' )
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मी लार्ड ! मुझे बेहद नकारात्मक होने के संगीन जुर्म में
सज़ा सुनाकर अँधेरी काल कोठरी में बंद करवा दीजिये
मगर मैं इतनी सकारात्मक नहीं होना चाहती
कि दिन पर दिन नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त बदसूरत होती जा रही
इस दुनिया को ख़ूबसूरत कह सकूँ I
और यह दुनिया जिस दिन मुझे सचमुच
ख़ूबसूरत दीखने लगेगी, मैं अपनी धोखेबाज और बेरहम आँखों को
सज़ा-ए-मौत का फरमान सुनाना चाहूँगी !
बेअदबी के लिए मुआफ़ करें मी लार्ड !
गू को मैं हलवा कैसे कहूँ
और अगर कह भी दूँ तो गू तो गू ही रहेगा
हाँ, मेरी ज़ुबान ज़रूर लोगों के भरोसे के क़ाबिल नहीं रह जायेगी I
मी लार्ड ! बुद्ध का अनुयायी होने के एलान के बावजूद
बर्बर तो बर्बर ही रहेगा, हत्यारा हत्यारा ही रहेगा
और लोकतंत्र और संविधान की तमाम दुहाई देने के बावजूद
फासिस्ट तो फासिस्ट ही रहेगा
और क़ानून की तमाम किताबें पढ़ लेने,
और सीने पर तमाम तमगे सजा लेने के बाद
शहर क़ाज़ी की ऊँची कुर्सी पर बैठकर जो शख्स
बादशाह सलामत की मर्ज़ी से इंसाफ़ करेगा
उसे डरे हुए शहरी ऊपरी तौर पर चाहे जितनी इज्ज़त बख्शें
तवारीख़ उसे दुनिया के सबसे गिरे हुए
इंसानों की कतार में ही जगह देगी I
मुआफ़ी बिना माँगे मैं आपसे ही पूछती हूँ हुज़ूर,
कि तमाम बेशुमार तरक्कियों और लकदक रोशनियों के बीच
इसक़दर ज़िल्लत की ज़िंदगी बसर करते
नए ज़माने के बेबस, मशीनी गुलामों की भीड़,
भूख और बीमारी से मरते बच्चों, बिकती औरतों,
करोड़ों बेरोज़गारों, फंदे से झूलते गाँव के गरीबों,
अपनी जगह-ज़मीन से दर-बदर होते और
जोर-ज़बरदस्ती से भगाए जाते लोगों,
धर्म-ध्वजाधारियों के वहशी खूनी उत्पातों,
हरतरफ लूट-मार और मुल्क के कई हिस्सों में
फौज़ी बूटों की धमक के बीच आखिर किस चीज़ को
मैं ख़ूबसूरत कहूँ और ऐसी गंदी-घिनौनी
ग़लतबयानी के लिए अलफ़ाज़ कहाँ से लाऊँ ?
हाँ, एक चीज़ जो ख़ूबसूरत दीखती है वह यह है कि
कुछ लोग अभी भी इस मुल्क में
सर ऊँचा करके चलते हैं,
दबे-कुचले लोगों को उम्मीद और सपने बाँटते हैं
और ज़ोरो-ज़ुल्म के ख़िलाफ़ बग़ावत के लिए उकसाते हैं I
लेकिन ऐसे लोगों को ही नहीं, उनकी कारगुजारियों को
ख़ूबसूरत बताने वालों को भी
दिन-दहाड़े उठा लिया जाता है, ग़ायब कर दिया जाता है
और मीडिया उन्हें कभी शहरी, कभी देहाती तो कभी
जंगली दहशतगर्द बता दिया करती है !
तो बताइये मी लार्ड ! मैं इस क़दर सकारात्मक कैसे बनूँ कि मुझे
ये तमाम चीज़ें ख़ूबसूरत नज़र आने लगें !
अब देखिये न ! आपके पीछे जो इंसाफ़ की देवी खड़ी है
आँखों पर पट्टी बाँधे और हाथ में इंसाफ़ का तराजू थाम्हे,
वह अपनी मलमल की झीनी पट्टी के भीतर से
लोगों के चेहरे पहचानकर इंसाफ़ तोल रही है
और लोगों की नज़र बचाकर डंडी मार रही है
और न्याय की जिस ऊँची कुर्सी पर आप बैठे हैं
उसके चारो पैरों के नीचे लहूलुहान लोग दबे पड़े हैं
और यहाँ से बहता हुआ लहू चुपचाप
बाहर गलियारों में बह रहा है I
अब इस सच को मैं एक ख़ूबसूरत मंज़र की तरह
कैसे देखूँ और बयान करूँ,
मुझे तो कुछ समझ नहीं आता I
और हुज़ूर, आप कुछ समझा सकेंगे
--- इसकी मुझे उम्मीद भी नहीं है !
(18 जनवरी, 2019)
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( साथ का चित्र गुस्ताव क्लिम्ट का मास्टरपीस जो लंबे समय तक खोया रहा -- 'Jurisprudence—Sovereign Violence and the Rule of Law' )
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