योगी थैलीशाह आकाओं और नागपुर के प्रभुओं के सामने सिद्ध करना चाहता है कि वह पूँजी की सत्ता को सुरक्षित करने के लिए किसी भी हद से गुजर सकता है और सड़कोंपर खून की होली खेल सकता है I वह सिद्ध करना चाहता है कि भविष्य में यदि ज़रूरत पड़े तो फासिस्टों की अक्षौहिणी के सेनापति के रूप में एक विकल्प वह भी है I कल लखनऊ में शिक्षक भर्ती परीक्षा में भ्रष्टाचार के मसले पर आवाज़ उठाने और रोज़गार माँगने पर युवाओं पर जिस बेरहमी से लाठियाँ बरसाईं गयीं, उस बर्बरता का नजारा फेसबुक पर सभी ने देखा I इसके पहले भी लखनऊ की सड़कों पर योगी की जालिम हुकूमत कम से कम एक दर्जन मौकों पर प्रदर्शनकारियों पर बर्बर ढंग से लाठीचार्ज करवा चुकी है I मसला हर बार रोज़गार का ही था I
उत्तर प्रदेश जैसे ही दमन का सिलसिला कमोबेश देश के हर कोने में जारी है I दूसरी ओर अर्थ-व्यवस्था का दिवाला निकल चुका है, शीर्ष वित्तीय संस्थाओं के नौकरशाह बुर्जुआ व्यवस्था के ध्वस्त होने की आशंकाओं से चिंतित हैं और सत्तारूढ़ फासिस्ट गिरोह के मंत्रियों के साथ उनके अंतरविरोध गहराने लगे हैं I सरकार बुर्जुआ जनवाद के हर खम्भे पर बुलडोजर चला रही है Iन्यायपालिका, चुनाव आयोग सभी जेब में हैं I सी.बी.आई., आई.बी.,रॉ,ई.डी.--- राज्यसत्ता के सभी निर्णायक अंगों में नौकरशाह आपस में लड़ रहे हैं और ये सभी संस्थाएँआपस में भिड़ी हुई हैं I उधर सरकार सीधे-सीधे पूँजीपतियों, और विशेषकर कुछ पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी की तरह काम कर रही है I भ्रष्टाचार एकदम खुली लूट की शक्ल ले चुका है I
देखा जाये तो यह सबकुछ अप्रत्याशित एकदम नहीं है I एक फासिस्ट सत्ता के कार्यकाल में इससे भिन्न कुछ होता तो आश्चर्य की बात होती I और यह फासिज्म कोई ऊपर आसमान से टपका नहीं है I बुर्जुआ व्यवस्था अपनी आतंरिक गति से फासिज्म के मुकाम तक पहुँची है I जो लिबरल और सामाजिक जनवादी बुर्जुआ जनवाद के पुराने दिनों को वापस लाने की चिंता में तमान बुर्जुआ दलों और कांग्रेस के साथ संसदीय वामपंथियों का संयुक्त मोर्चा बनवाने के लिए मरे जा रहे हैं वे भारतीय बुर्जुआ जनवाद की लाश में प्राण फूँकने की निष्फल कोशिश ही कर रहे हैं I कोई गैर-भाजपा गठबंधन या कांग्रेस अगर भाजपा को हराकर सत्ता में आयेगी भी तो वह नव-उदारवाद की नीतियों को ही लागू करेगी और इन नीतियों को या तो कोई फासिस्ट या फिर कोई निरंकुश बुर्जुआ (बोनापार्टिस्ट)राज्यसत्ता ही लागू कर सकती है I नेहरू कालीन बुर्जुआ जनवाद के दिनों में वापसी एक झूठा सपना मात्र है, जिसमें संसदीय वामपंथी जड़वामन जी रहे हैं I दूसरी अहम बात यह है कि चुनाव हारकर भी फासिस्ट भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर मौजूद रहेंगे और अपना खूनी खेल खेलते रहेंगे I यानी देश की मेहनतक़श जनता फासिज्म के विरुद्ध संघर्ष को भारतीय पूँजीवाद-विरोधी क्रांतिकारी संघर्ष की एक कड़ी के रूप में जबतक संगठित नहीं करेगी, तबतक या तो कोई निरंकुश दमनकारी बुर्जुआ शक्ति, या फिर फासिस्ट ही इस देश की बागडोर सम्हाले रहेंगे I बीच का कोई रास्ता नहीं है I यह सच्चाई जितनी जल्दी समझ आ जाये, उतना ही अच्छा ! जितनी देरी होगी, उतना ही अधिक खून देकर सीखना पड़ेगा ! समाजवाद या फिर बर्बरता -- देश के सामने बस दो ही विकल्प हैं !
(3नवम्बर,2018)
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