Friday, September 15, 2017

स्त्री मुक्ति में कहाँ है स्त्री मजदूर की आवाज

(रविवार डाइजेस्‍ट के सितम्‍बर, 2017 के 'रहगुज़र' कालम में प्रकाशित मेरी टिप्‍पणी)


-- कविता कृष्णपल्लवी
 
मजदूर स्त्रियाँ यदि संगठित नहीं की जायेंगी तो स्त्री मुक्ति की बौद्धिक आवाजें नक्कारखाने में तूती की आवाज बनी रहेंगी और शहरी मध्यकवर्गीय दायरों तक सीमित तमाम आन्दोरलनात्मतक सरगर्मियाँ कुछ फौरी रियायतों से ज्याददा कुछ भी नहीं हासिल कर पायेंगी।

हाल के कुछ वर्षों के दौरान देश के विभिन्नग महानगरों की सड़कों पर शिक्षित मध्यक वर्ग की जागरूक युवा स्त्रियाँ पुरुष वर्चस्वि के प्रतिरोध के नये रूपों और नारों के साथ उतरती देखी गयी हैं। पिछले महीने चण्डीपगढ़ में एक वरिष्ठे आईएएस अधिकारी की बेटी के साथ भाजपा के हरियाणा राज्यी के अध्यीक्ष के बेटे और उसके दोस्तों द्वारा छेड़खानी की घटना के बाद italमेरी रात मेरी सड़कital नाम से एक मुहिम शुरू हुई। इस मुहिम के तहत कई शहरों में स्त्रियों, विशेषकर लड़कियों ने सड़कों पर देर रात तकश समय बिता कर बढ़ते स्त्री -विरोधी अपराधों और पुरुषवर्चस्वंवादी वर्जनाओं का प्रतीकात्मयक विरोध किया और सामाजिक स्पेीस में अपने हिस्सेु के दावे का इजहार किया।
इसके पहले, पिछले दो वर्षों के दौरान italपिंजड़ा तोड़ो अभियानital पंजाब और दिल्लीह से शुरू हो कर देश के दर्जनों महानगरों, विशेषकर कैम्पासों तक फैल चुका था और काफी प्रसिद्धि पा चुका था। पिछले वर्ष महानगरों की युवा स्त्रियों, विशेषकर छात्राओं ने एक और अभियान italहैप्पील टु ब्ली डital नाम से चलाया था जिसका उद्देश्या स्त्रियों के मासिक स्राव से जुड़ी धार्मिक और मर्दवादी रू‍ढ़ि‍यों-वर्जनाओं-पूर्वाग्रहों का विरोध करना था।
निःसंदेह, पहले के हालात की तुलना में यह परिदृश्य् महानगरों में युवा स्त्रियों की विकासमान नयी विद्रोही चेतना का सूचक है और इसलिए सभी प्रगति‍चेता स्रीं य-पुरुष नागरिक लाजिमी तौर पर इसका स्वाेगत करेंगे। लेकिन यदि हम वास्तरव में स्त्री मुक्ति के प्रश्नु और स्त्रीो मुक्ति आंदोलन की दिशा को ले कर संजीदा हैं तो हमें इन आंदोलनों की सीमाओं और समस्या ओं के बारे में भी सोचना ही होगा।
यह सही है कि स्त्री उत्पीचड़न, पुरुषस्वाओमित्व वादी रूढ़ि‍यों-परम्प्राओं और घरेलू गुलामी के विरुद्ध उग्र प्रतिवादी स्वउरों की अभिव्यइक्ति लगभग एक दशक पहले तक मुख्यीत: अकादमिक विमर्शों और साहित्यिक लेखन के दायरों तक ही सिमटी हुई थी। पहचान-राजनीति (आइडेण्टिटी पॉलिटिक्सत) आधारित 'नव सामाजिक आंदोलन' (न्यूढ सोशल मूवमेण्ट्सम) के अंग के तौर पर, गत शताब्दी के अंतिम दशक में स्त्री आंदोलन की जो नयी धारा फूटी थी, उसके बड़े हिस्से, को एनजीओ सुधारवाद ने खा-पचा लिया और शेष बचा हिस्सा सेमिनारों-वर्कशॉपों के कर्मकाण्डीस अनुष्ठाधनों में खप गया। यह नया फेमिनिज्म स्त्री उत्पीड़न और पुरुषवर्चस्व वाद की ऐतिहासिक जड़ों और सामाजिक-आर्थिक कारणों की अनदेखी करने में 1950 और 1960 के दशक के नारीवाद से भी आगे थे। केवल 'जेण्डअर आइडेण्टिटी' को 'एसर्ट' करने और दिशाहीन विद्रोह से आगे इसके पास की कोई सांगोपांग और व्याइवहारिक परियोजना नहीं थी। साथ ही, इस अकर्मक विमर्शवादी नारीवाद के भीतर एक किस्मख का मध्योवर्गीय कुलीनतावादी पूर्वाग्रह या अभिनति (बॉयस) भी मौजूद था। सच पूछें तो यह मध्योवर्गीय कुलीनतावाद की प्रवृत्ति संसदीय वामपंथी दलों से संबद्ध स्त्री संगठनों में भी दीखती है जो उसूली तौर पर स्त्री मुक्ति के संघर्ष को सामाजिक मुक्ति के संघर्ष को जोड़ने की बात करते हैं और अपने चार्टर में मजदूर स्त्रियों की माँगों को (भले ही रस्मीष तौर पर, और प्राथमिक क्रम में नीचे) स्थामन देते हैं, लेकिन मजदूर स्त्रियों तक उनकी वास्तकविक पहुँच लगभग नगण्य है।
अभी, विगत दो-तीन वर्षों के भीतर महानगरों की मध्यजवर्गीय शिक्षित युवा स्त्रियों के भीतर जो स्वचत:स्फूवर्त रैडिकल उभार जैसी स्थिति देखने में आ रही है, उसका सकारात्म क पहलू यह है कि इसका चरित्र अकर्मक-अकादमिक न हो कर जनान्दोालनात्मिक है। इसका मंच सभागारों में नहीं, बल्कि सड़कों पर है। एक और सकारात्मजक बात यह है कि धार्मिक कट्टरपंथी फासिस्टं ताकतों द्वारा पोषित-प्रोत्सारहित स्त्री -विरोधी रूढ़ि‍यों-वर्जनाओं का विरोध करते हुए आज की ये युवा स्त्रियाँ फासिस्ट उभार के प्रतिरोध के लिए प्रयासरत सेकुलर-प्रगतिशील शक्तियों के साथ खड़ी हो रही हैं। लेकिन साथ ही, इस नये उभार के कुछ नकारात्मुक पहलू भी हैं और इससे जुड़े कुछ विचारणीय प्रश्नन भी हैं। यह उभार एक स्वकत:स्फूमर्त उभार है। किसी भी स्व त:स्फूीर्त उभार को यदि कोई दृष्टि सम्पेन्नत, विचारशील नेतृत्वी सुनिश्चित दिशा के आधार पर सुस्प‍ष्ट: स्वररूप और सुव्य वस्थित ढाँचा नहीं देता है, तो कालान्तेर में अपनी ऊष्माि और ऊर्जा क्षरित करते हुए वह विसर्जित हो जाता है। दूसरा सवाल जिसे अधिक महत्वा देते हुए मैं यहाँ उठाना चाहती हूँ, वह यह है कि स्त्रियों का कोई भी स्वात:स्फूहर्त उभार एक व्या पक और दीर्घकालिक स्त्री आन्दोजलन की सुनिश्चित शक्लो तभी अख्तियार कर सकता है जब वह आम स्त्रीा समुदाय की अधिकतम सम्भलव आबाचदी तक अपने कार्यक्रम और अमली कार्रवाइयों के जरिये पहुँच बनाये और उन्हें गोलबन्दम और संगठित करने में कामयाबी हासिल करे। मध्या वर्ग की रैडिकल परिवर्तनकामी चेतना वाली शिक्षित-प्रबुद्ध युवा स्त्रियों को इस प्रश्नक पर सोचना ही होगा। यदि वे स्त्री मुक्ति संघर्ष की दीर्घकालिक परियोजना के प्रति गम्भी र हैं तो उन्हें अपनी और अपने आन्दोसलन की वर्गीय सीमाओं को तोड़ कर बहुसंख्यमक मेहनतकश स्त्रियों तक पहुँचना ही होगा और उनकी माँगों को अपने एजेण्डाो पर प्रमुखता के साथ स्था न देना होगा। समूची स्त्री आबादी में कम से कम अस्सीा फीसदी गाँवों और शहरों की मेहनतकश वर्गों की स्त्रियाँ हैं। शेष बीस फीसदी आम मध्य वर्गीय और उच्ची कुलीन स्त्रियाँ हैं। उच्च् कुलीन स्त्रियाँ भी किसी हद तक जेण्डेर-आधारित उत्पीगड़न की शिकार और दोयम दर्जे की नागरिक हैं, पर अपनी विशेष वर्गीय स्थिति के कारण स्त्रीर आन्दो लन में उनकी भागीदारी सम्भ व नहीं। जो गाँवों-शहरों की आम मध्य वर्गीय गृहिणियाँ हैं, उनका बड़ा हिस्सा अपनी दिमागी गुलामी और रूढ़ि‍ग्रस्तरता के चलते आने वाले लम्बेह समय तक स्त्री आन्दोालन में सक्रिय भागीदारी के लिए तैयार नहीं होगा। तब जाहिर है कि मध्यआवर्गीय शिक्षित शहरी युवा स्त्रियों का बहुलांश भी यदि सड़कों पर उतरने को तैयार हो तो वह कुल स्त्रीय आबादी का तीन या पाँच प्रतिशत ही होगा। इससे यही सिद्ध होता है कि कोई भी स्त्री आन्दोकलन सुदृढ़ और सशक्तच हो कर तभी आगे डग भर सकेगा जब उसके चार्टर में मेहनतकश स्त्रियों की माँगों को प्रमुख स्था़न मिलेगा और मेहनतकश स्त्रियाँ उसकी भागीदार बनेंगी।
आज इस प्रश्नर पर विशेष तौर पर जोर देने की जरूरत इसलिए भी है क्योंरकि भारतीय स्त्रियों का जितना बड़ा हिस्सा आज शहरों के विभिन्न उद्योगों में उजरती मजदूर के रूप में काम कर रहा है, उतना पहले कभी नहीं करता था और यह रुझान लगातार तेजी से बढ़ रहा है। सामंती भूमि सम्बान्धोंन के जमाने में खेतों में व पशुपालन जैसे कामों में स्त्रीस श्रम बहुतायत में लगता था। अब मशीनीकरण और किसान जातियों में 'संस्कृ तिकरण' (समाजशास्त्री एम एन श्रीनिवास के शब्दोंर में) की प्रवृत्ति के चलते गाँवों में स्त्रीं श्रम कम लग रहा है। दूसरी और उद्योग में स्त्री मजदूरों की आबादी लगातार बढ़ती जा रही है। औपनिवेशिक काल में भी, 1880 के दशक से ले कर 1930 के दशक में स्त्रियाँ कपड़ा मिलों, जूट मिलों और खदानों आदि में बड़ी संख्यार में काम करती थीं। उन्हें सामाजिक दृष्टि से बहुत हेय माना जाता था, तनख्वाहें पुरुषों के मुकाबले कम होती थीं, काम की स्थितियाँ कठिन थीं, पर उनमें एक सामूहिक ताकत का अहसास था। यूनियनों में पुरुष आधिपत्यम का माहौल था, लेकिन मजदूर आन्दोालनों में स्त्री मजदूरों ने जुझारू भूमिका निभायी और अपनी (स्त्रीा मजदूरों की) विशिष्ट माँगों को ले कर भी कई संघर्ष किये। पहले इस विषय पर बहुत कम इतिहास लेखन हुआ था। हाल के वर्षों में इस पर कई नये शोध 'लेबर हिस्ट्री ' के शोधकर्ताओं ने किये हैं। मजदूर संघर्षों की बदौलत, कई महत्वेपूर्ण अधिकार जब मजदूर वर्ग को हासिल हो गये तो 1930 के दशक से स्त्री मजदूरों को कारखानों से बाहर धकेला जाने लगा और उनकी संख्या 1950 तक काफी घट चुकी थी। नेहरूकालीन सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में लगी श्रम शक्ति में भी स्त्रियों को नगण्य। स्था न मिला। 1980 के दशक से विकासमान इलेक्ट्रॉ निक सेक्टमर और मशीनरी सेक्टकर में स्री् मजदूरों की संख्या बढ़ने लगी। इसका एक कारण यह भी था कि पूँजी की मार से गाँवों के छोटे किसान अब उजड़ कर सपरिवार शहर आने लगे थे और गृहस्थीज चलाने के लिए स्त्रियों का भी काम करना जरूरी हो गया था, मजदूरी चाहे जितनी कम मिले। नवउदारवाद के दौर में जब छोटे-छोटे वर्कशॉपों में काम को बिखेर कर ठेका, पीस रेट और दिहाड़ी पर, सस्तीब से सस्तीे दरों पर काम कराने का चलन शुरू हुआ, तो 1990 के दशक से उद्योगों में स्त्री मजदूरों की संख्यां तेजी से बढ़ने की शुरुआत हुई और यह रुझान आज तक जारी है।
लेकिन एक विशिष्ट ता यह है कि 1880-1930 के दौरान कारखानों-खदानों में काम करने वाली स्त्री मजदूरों की आबादी एक दृश्य और प्रेक्षणीय आबादी थी, जब कि आज मैन्यूाफैक्चझरिंग और असेम्बकलिंग में लगी यह आबादी काफी हद तक अदृश्यज और अप्रेक्ष्ाैणीय है। ये स्त्रियाँ बड़े-बड़े कारखानों की असेम्बसली लाइन पर काम नहीं करतीं, बल्कि पीस रेट पर घरों में काम करती हैं, छोटे-छोटे वर्कशॉपों में ठेके पर काम करती हैं, सब से खराब किस्मि के कैजुअल वर्कर ('जीरो रिकार्ड वर्कर' या 'वाउचर वर्कर') के रूप में काम करती हैं, या 'बदली मजदूर' के रूप में कारखानों में काम करती हैं। काम के घण्टेव, न्यूूनतम मजदूरी या किसी भी किस्मल के श्रम कानून के दायरे से ये बाहर होती हैं और निकृष्टघतम कोटि की उजरती गुलाम होती हैं। नियोक्ता्ओं के रिकार्ड्स पर आधारित श्रम सांख्यिकी के आँकड़ों से इनकी वास्ततविक संख्याै का सही पता भी नहीं चलता। ये स्त्रियाँ घरों और छोटे-छोटे वर्कशॉपों में बिखरी हुई, 'भूमण्डनलीय असेम्बीली लाइन' पर खट रही हैं और 'पूँजी के परिपथ' का हिस्साय हैं, लेकिन ज्याभदातर मामलों में, उनकी मजदूर पहचान न सामाजिक रूप से स्पोष्टी है, न ही स्वायं उनकी नजर में। ये श्रम शक्ति का सब से सस्ताम ही नहीं, बल्कि सब से लचीना हिस्सा हैं जिसे मंदी के किसी हल्केे या 'सेक्टोीरल' दौर में भी सब से पहले बेकार कर दिया जाता है। जिसे 'फेमिनाइजेशन ऑफ लेबर' कहा जाता है, वह स्त्री करण, ठेकाकरण और 'कैजुअलाइजेशन' का कुल योग है, क्यों कि संगठित मजदूर आबादी को (जो खुद भी लगातार घटती जा रही है) में पुरुष मजदूरों का स्थाबन स्त्रीं मजदूर नहीं ले रही है, बल्कि वह लगातार बढ़ते ठेका, कैजुअल और पीस रेट मजदूरों की सब से निजली कोटि है, जिसकी श्रम शक्ति सब से सस्तीब है और काम करने की परिस्थितियाँ सब से कठिन हैं। इन सभी स्त्री मजदूरों के अतिरिक्तै शहरों के लगातार बढ़ते खुशहाल मध्य वर्गीय घरों में झाड़ू-पोंछा-बरतन-बासन, खाना बनाने और आया का काम करने वाली घरेलू मजदूर औरतें हैं, जिनकी संख्याप (केन्द्री य श्रम मंत्री के अनुसार) दो करोड़ के आसपास है और जिन्हें कोई भी श्रम सुरक्षा कानूनी तौर पर हासिल नहीं है।
इससे इनकार नहीं कि पुरुष स्वाऔमित्वशवाद की पारिवारिक-सा‍माजिक संरचना में मध्य वर्गीय स्त्रियाँ भी आधुनिक घरेलू गुलाम ही होती हैं, और यदि वे आर्थिक रूप से स्वा वलम्बीस हों, तो भी घर के भीतर और बाहर सड़क पर बराबर की नागरिक नहीं होतीं। लेकिन एक मजदूर स्त्री को सस्तीि मज़दूरी और कठिन काम के साथ-साथ स्त्रीित्वन की जो कीमत चुकानी पड़ती है और यौन उत्पी ड़न तथा भेदभाव के जिन रूपों का सामना करना पड़ता है, उनसे मध्य़वर्गीय स्त्रीो समुदाय का साबका कभी नहीं पड़ता। वैसे तो ज्या दातर अनौपचारिक मजदूर आज ट्रेड यूनियनों में हैं ही नहीं, पर जो थोड़ी-बहुत यूनियनें हैं भी, वे स्त्री मजदूरों की माँगों को दरकिनार ही करती हैं और उन्हेंी अपने दायरे में ही नहीं लेतीं। दूसरी ओर, जो रैडिकल नारीवादी संगठन और संसदीय वाम दलों से सम्बसद्ध स्त्रीम संगठन हैं उनके चार्टरों में मजदूर स्त्रियों की माँगों और मसलों की मौजूदगी या तो होती ही नहीं या महज रस्म अदायगी के तौर पर होती है। यूँ कहें कि मजदूर आन्दोमलन के भीतर मजदूर स्त्रियाँ जेण्डीर-आधारित पूर्वाग्रहों और भेदभाव का शिकार हो जाती हैं तथा स्त्रीी आन्दोरलन में वे वर्ग-आधारित पूर्वाग्रहों और उपेक्षा का शिकार हो जाती हैं।
मजदूर स्त्रियाँ यदि संगठित नहीं की जायेंगी तो स्त्री मुक्ति की बौद्धिक आवाजें नक्काीरखाने में तूती की आवाज बनी रहेंगी और शहरी मध्यावर्गीय दायरों तक सीमित तमाम आन्दोनलनात्माक सरगर्मियाँ कुछ फौरी रियायतों से ज्यांदा कुछ भी नहीं हासिल कर पायेंगी। दूसरे विश्व्युद्ध के बाद पश्चिम में जो नारीवादी आन्दोसलन शुरू हुआ था (जिसकी लहर बाद में पूरब तक भी पहुँची), वह ज्याोदातर बौद्धिक विमर्श तक सीमित था और पढ़ी-लिखी मध्यपवर्गीय स्त्रियों के प्रबुद्ध हिस्सेन तक ही इसकी पहुँच थी। इसके विपरीत, उन्नी सवीं शताब्दीी में यूरोप-अमेरिका में जिस स्त्रीध आन्दो लन की शुरुआत हुई थी, उसमें मजदूर स्त्रियों की व्याापक भागीदारी थी। बल्कि यह कहना सही होगा कि उसकी शुरुआत ही स्त्री मजदूरों के संगठित और आन्दो लित होने से हुई थी। उस स्त्री आन्दोतलन ने स्त्रीज मताधिकार और कई सारे सामाजिक-राजनीतिक अधिकार हासिल किये और स्त्री मजदूरों के लिए भी कई कानून बने। बीसवीं शताब्दी की सर्वहारा क्रांतियों में स्त्री मजदूरों ने बढ़-चढ़ कर हिस्साी लिया और नये समाज में समूचे स्रीसि समुदाय को बराबरी के अभूतपूर्व अधिकार मिले तथा घरेलू गुलामी से लगभग पूरी तरह छुटकारा मिल गया।
इस इतिहास से यही सबकअ निकलता है कि जेण्ड र-उत्पी ड़न के सवाल को वर्गीय शोषण से जोड़ना होगा और मेहनतकश स्त्रियों को संगठित करके उन्हेंत स्त्री मुक्ति आन्दोालन की मुख्यस शक्ति बनाना होगा। इसके बिना सारा स्त्री मुक्ति विमर्श एक बौद्धिक जुगाली से अधिक कुछ भी नहीं होगा और समय-समय पर उभड़ने वाले शहरी मध्य वर्गीय युवा स्त्रियों के स्व त:स्फू-र्त आन्दोालन भी कालान्त र में दिशाहीन और ऊर्जाहीन हो कर अंधी गली में पहुँचते रहेंगे और बिखरते रहेंगे। इन आन्दोफलनों के बीच से रैडिकल, मुक्तिकामी, प्रबुद्ध स्त्रियों की जो नयी पीढ़ी उभरकर सामने आ रही है, उन्हीं में से शायद एक नया नेतृत्वक निकलेगा जो इन बुनियादी सवालों पर गम्भीररता और गहराई से सोचेगा और गतिरोध को तोड़ने के लिए कोई सार्थक पहल करेगा।

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