(रविवार डाइजेस्ट के अगस्त,2017 अंक में 'रहगुज़र' कॉलम में प्रकाशित मेरी टिप्पणी)
-- कविता कृष्णपल्लवी
कथित
गोरक्षकों की भीड़ द्वारा अखलाक और पहलू खान की हत्या के बाद हरियाणा में
बल्लभगढ़ रेलवे स्टेशन पर इस वर्ष 22 जून को पंद्रह साल के जुनैद को एक
भीड़ ने चाकुओं से गोदकर मार डाला। जुनैद ईद की खरीदारी करके अपने भाई और
दोस्तों के साथ दिल्ली से वापस अपने गाँव जा रहा था। भीड़ ने उसे गोमांस
भक्षक कहा और चाकू मारने से पहले उसकी टोपी उतारकर फेंक दी। इस घटना ने
पूरे देश की अन्तरात्मा और विवेक को मानो झकझोरकर रख दिया। सोशल मीडिया पर
की गयी एक पहल ने पूरे देश में विरोध की स्वत:स्फूर्त लहर-सी पैदा कर दी।
पचासों शहरों में 'नॉट इन माइ नेम' नाम से नागरिकों ने विरोध प्रदर्शन
किये। प्रधानमंत्री ने भी इस जघन्य कुकृत्य की निन्दा की, पर इसके पाँच दिन
बाद ही 27 जून को झारखंड में करीब सौ लोगों ने दूध विक्रेता उस्मान अंसारी
की पिटाई कर उसके घर में आग लगा दी। 29 जून को राँची के नजदीक रामगढ़ में
अलीमुद्दीन नाम के एक व्यापारी पर हमला कर भीड़ ने उसकी हत्या कर दी।
पिछले आठ वर्षों के भीतर सिर्फ गाय के नाम पर भीड़ की हिंसा की 63 ऐसी
घटनाएँ घटीं, जिनमें 28 लोगों की जान चली गयी। इनमें से 97 प्रतिशत घटनाएँ
सिर्फ पिछले तीन वर्षों के भीतर घटी हैं। 'इण्डिया स्पेण्ड' की एक रिपोर्ट
के अनुसार, 2017 में गाय से जुड़ी हिंसा के मामलों में अभूतपूर्व बढ़ोतरी
हुई। इस साल के पहले छह महीनों में गाय से जुड़ी 20 हिंसात्मक घटनाएँ घटीं,
जो 2016 में हुई ऐसी कुछ घटनाओं के दो तिहाई से ज्यादा हैं। कथित
गोरक्षकों की भीड़ द्वारा हिंसा की इन घटनाओं में मुसलमानों के अतिरिक्त
दलित आबादी भी निशाने पर रही है और कहीं-कहीं ईसाई और आदिवासी भी। गौरतलब
है कि पिछले लगभग दो दशकों के दौरान भीड़ की हिंसा की अभिव्यक्तियाँ केवल
गाय को लेकर ही सामने नहीं आयी हैं। 'लव जेहाद', धर्मान्तरण आदि की अफवाहों
से प्रभावित भीड़ की हिंसा की घटनाओं का सिलसिला लगातार चलता रहा है।
बेशक, भीड़ की हिंसा की बर्बरता को कोई भी सभ्य नागरिक उचित नहीं ठहरा सकता, लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि इसके पीछे कुछ वास्तविक, औचित्यपूर्ण और न्यायसंगत कारण मौजूद रहते हैं। कई बार लम्बे समय से जारी शासक वर्गों का दमन, आम जनता की असहनीय जीवन-स्थितियाँ, धनिक वर्गों के असीम भोग-विलास, चरम भ्रष्टाचार आदि के चलते भी, किसी संतृप्त बिंदु पर पहुँचकर, समाज में एक विस्फोट की तरह भीड़ की हिंसा सामने आती है और सड़कों पर अराजकता फैल जाती है। प्राय: ऐसा तभी होता है, जब गहराते जनअसंतोष को एक सुव्यवस्थित जनान्दोलन की शक्ल मंर ढालकर आगे ले जा पाने में सक्षम कोई नेतृत्वकारी राजनीतिक शक्ति परिदृश्य पर मौजूद नहीं होती है। इन स्थितियों में हम कह सकते हैं कि भीड़ की हिंसा 'वास्तविक चेतना की स्वतःस्फूर्त विरूपित अभिव्यक्ति' होती है। इसके विपरीत, कुछ स्थितियाँ ऐसी होती हैं जब भीड़ की हिंसा एक 'मिथ्या चेतना' से जन्म लेती है और उसी की अभिव्यक्ति होती है। जिस समाज में धर्म, जाति, गोत्र का 'शुद्धता' की सहस्राब्दियों पुराना प्राक्-आधुनिक सोच जड़ें जमाये बैठा हो, वहाँ यदि माँ-बाप या खाप पंचायतें जाति-गोत्र-धर्म के बाहर प्रेम या शादी करने पर युवकों-युवतियों को सार्वजनिक तौर पर हिंसक दण्ड सुनाते हों तो यह आश्चर्य की बात नहीं है। जो समाज ऐतिहासिक तौर पर 'पुनर्जागरण-प्रबोधन-जनवादी क्रांति' की प्रक्रिया से गुजरकर मध्ययुगीनता के अंधकार से एक झटके से बाहर न आ सके, वहाँ मूल्यों-संस्कारों के रूप में क्रियाशील ऐसी 'मिथ्या चेतना' और उससे पैदा होने वाली भीड़ की हिंसा के रूप प्राय: देखने को मिलते हैं। भारतीय समाज एक ऐसा ही समाज है, जो अपनी स्वतंत्र स्वाभाविक आंतरिक गति से आधुनिक बुर्जुआ समाज बनने की दिशा में आगे बढ़ने के पहले ही उपनिवेश बन गया। दो सौ वर्षों की ग़ुलामी और 70 वर्षों की आजादी के दौरान आधुनिकता और वैज्ञानिक तर्कणा भारतीय जीवन में किसी आमूलगामी सामाजिक क्रांति की प्रक्रिया में नहीं, बल्कि क्रमिक और मंथर गति से आयी है। इसलिए यह सतही और विकृत है तथा आम सामाजिक जीवन में तमाम प्राक्-आधुनिक मूल्यों-संस्थाओं की मौजूदगी भी बनी हुई है। ऐसे समाज में यदि डायन होने के संदेह में भीड़ किसी स्त्री को पीट-पीट कर मार डालती है या कोई खाप पंचायत जाति या गोत्र के बाहर शादी करने पर किसी को मौत की 'सज़ा'दे देती है, तो यह आश्चर्य की बात नहीं है। गौर से देखें, तो ये संस्थाएँ केवल इतिहास की देन होने के नाते जीवित नहीं हैं। ये जीवित हैं, क्योंकि हमारे देश के जन्मना रुग्ण और विकलांग पूँजीवाद ने बहुतेरे मध्ययुगीन मूल्यों-संस्थाओं को पुन:संस्कारित करके अपना लिया है।
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14 जुलाई 1789 को गरीबों की एक भीड़ ने फ्रांस में बास्तीय के किले पर हमला कर गवर्नर और कई अधिकारियों तथा सैनिकों की हत्या कर दी थी और किले की ईंट से ईंट बजा दी थी। इस दौरान भीड़ में शामिल 83 लोग भी मारे गये थे। यही घटना आगे चलकर फ्रांसीसी क्रांति का प्रस्थान बिन्दु बन गयी। बास्तीय दुर्ग पर जिस हिंसक भीड़ ने धावा बोला था, वह लुई सोलहवें के भ्रष्ट और निरंकुश प्रशासन से तंग थी और भुखमरी तथा घनघोर अभाव का शिकार थी। 1814 में मिलान में दंगा फैला और भीड़ ने मनमाने ढंग से कर लगाने वाले नेपोलियन के निरंकुश वित्त मंत्री गिस्पे प्रीना की बेरहमी से हत्या कर दी। भीड़ का यह आतंक भयानक था, पर इसके पीछे भी जेनुइन कारण थे। यह भी वास्तविक चेतना की विरूपित स्वत:स्फूर्त अभिव्यक्ति था।
अठारहवीं शताब्दी के अंत से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक तक अमेरिका में बड़े पैमाने पर मेक्सिकी अप्रवासी मजदूर भीड़ की हिंसा के शिकार हुए। 1780 में अमेरिका में श्वेतों-अश्वेतों की हिंसक भीड़ के टकराव में 5 हजार लोग मारे गये। 1903 से 1906 के बीच, रूस में जार अलेक्सान्द्र द्वितीय के शासन काल के दौरान 2000 से अधिक यहूदी हिंसक भीड़ द्वारा मार डाले गये। 1919 में लीवरपूल में एक अफ्रीकी द्वारा दो गोरों को चाकू मार देने के बाद पूरे ब्रिटेन में नस्ली दंगे भड़क उठे थे और राह चलते आम अश्वेतों को बड़े पैमाने पर भीड़ की हिंसा का शिकार होना पड़ा था। 1949 में दक्षिण अफ्रीका में 142 भारतीयों को और फिर 1985 में 55 भारतीयों को भीड़ ने मौत के घाट उतार दिया था। ये ऐसी अंधी-बर्बर हिंसा की घटनाएँ थीं, जिनमें निराशा में उन्मत्त या प्रतिशोध की भावना से पागल आम लोगों की भीड़ ने उन आम लोगों को अपना शिकार बनाया, जिन्हें वे 'पराया' या 'बाहरी' समझते थे और अपनी जिंन्दगी की समस्याओं के लिए जिम्मेदार मानने के नाते अपना शत्रु समझते थे। ये 'मिथ्या चेतना' की प्रतिनिधिक अभिव्यक्तियाँ थीं। 1984 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी की हत्या के बाद दिल्ली में और देश के बहुतेरे शहरों में सिखों के विरुद्ध बर्बर हिंसा का जो नंगा नाच हुआ था, वह भी ऐसी ही परिघटना का एक प्रतिनिधि उदाहरण था।
लेकिन, जुनैद, पहलू खान, अखलाक और अलीमुद्दीन जैसे आम लोग भीड़ की जिस हिंसा का शिकार हुए, वह एक सर्वथा अलग परिघटना है। गौर से देखें तो उस बेचेहरा हिंसक भीड़ के पीछे हमें एक सुनिश्चित विचारधारा और राजनीति का चेहरा दिखाई देता है, जिसकी सटीक ढंग से शिनाख्त करने के लिए फासिज्म की परिघटना को समझना जरूरी है। फासिज्म के दौर में राजकीय हिंसा, संगठित फासिस्ट गुण्डा-वाहिनियों की हिंसा और भीड़ की हिंसा का एक विचित्र सहमेल स्थापित हो जाता है। फासिज्म सुव्यवस्थित प्रचार द्वारा उन्मादी हिंसक भीड़ की 'मिथ्या चेतना' का निर्माण करता है। फासिज्म के दौर में भीड़ की 'मिथ्या चेतना' स्वतःस्फूर्त नहीं होती,बल्कि उसे व्यवस्थित ढंग से गढ़ा जाता है।
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हमारे देश की सड़कों पर भीड़ की हिंसा के जो रूप आज देखने को मिल रहे हैं, उन्हें समझने के लिए 1930 के दशक के जर्मनी की एक संक्षिप्त इतिहास यात्रा की जानी चाहिए। जर्मन पूँजीवाद को तब ऐसे आक्रामक राष्ट्रीय नेता और पार्टी की जरूरत थी जो सैन्य शक्ति के बल पर यूरोपीय साम्राज्यवादी देशों से दुनिया के बाजार का बड़ा हिस्सा छीनकर मन्दी के संकट से निजात दिला सके और साथ ही, संगठित मजदूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट आन्दोलन की कमर तोड़कर समाजवाद के भूत से भी छुटकारा दिला सके। हिटलर और उसकी नात्सी पार्टी ने इसी जरूरत को पूरा किया। हिटलर ने आर्य नस्ल की 'श्रेष्ठता' और 'शुद्धता' पर आधारित जर्मन अंधराष्ट्रवाद का नारा बुलन्द किया। राष्ट्र की एकता के लिए मजदूर आन्दोलन और कम्युनिस्टों को बाधक बताते हुए उन्हें सबसे पहले निशाना बनाया गया। इसमें राज्य मशीनरी के साथ ही नात्सी पार्टी की गुण्डा वाहिनियों की अहम भूमिका थी। आर्य नस्ल की श्रेष्ठता पर आधारित जर्मन राष्ट्रवाद के अन्तर्निहित तर्क के हिसाब से नात्सियों का अगला निशाना यहूदियों को बनना ही था, जो आर्य नहीं थे और जिनकी आबादी रूस और पोलैण्ड से लेकर सभी यूरोपीय देशों में बिखरी थी। फलत: जर्मन यहूदियों की देशभक्ति को संदिग्ध प्रचारित कर देना भी सुगम था। 1930 के दशक के प्रारम्भ से ही सरकार और नात्सी पार्टी की प्रोपेगैण्डा मशीनरी यहूदियों के खिलाफ शेष जर्मन आबादी के दिलो-दिमाग में लगातार जहर घोल रही थी और उनकी छवि 'पराये', 'अन्य' और 'बाहरी' के रूप में स्थापित कर रही थी। यहूदियों पर और उनके घरों-दुकानों पर यहाँ-वहाँ हमलों की शुरुआत पहले एसएस (नात्सी पार्टी की गुण्डा वाहिनी) के दस्तों ने की। फिर जगह-जगह भीड़ भी उनपर हमले करने लगी। 'क्रिस्टल नाइट' नाम से इतिहास-प्रसिद्ध 9-10 नवम्बर 1938 की रात वह निर्णायक रात थी जब यहूदियों के कत्लेआम के मंसूबे को पूरी ताकत और तैयारी के साथ अमली जामा पहनाया गया। यह काम केवल एसएस के दस्तों ने ही नहीं किया। प्रचार-सम्मोहित हिटलर-समर्थक आम आबादी एक बर्बर भीड़ में तब्दील हो चुकी थी। सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं। प्रेस को चुप रहना था। पुलिस को किनारे खड़ा रहना था और भीड़ को उसका काम करने देना था। दस साल के भीतर हिटलर ने जर्मनी को यहूदियों से खाली करने का निर्देश गोयबेल्स को दिया था। 9-10 दिसम्बर 1938 की रात इसे फैसलाकुन अंजाम तक पहुँचा दिया गया। रक्तपात, आगजनी और तोड़फोड़ की वह रात इतिहास के पन्नों पर हमेशा के लिए दर्ज हो गयी।
हिटलर नाम का व्यक्ति तो इतिहास के कब्रिस्तान में कभी का दफ्न हो चुका है, लेकिन उसकी विचारधारा जीवित है। अतीत से सबक लेकर आज का पूँजीपति वर्ग फासिज्म को एकदम खुला नहीं छोड़ रहा है, बल्कि जंजीर से बँधे हुए खूँखार भेड़िये की तरह इस्तेमाल कर रहा है। फासिस्ट संस्थाओं की प्रोपेगैण्डा मशीनरी लगातार विविध रूपों में ऐसी भीड़ के सामूहिक मानस का निर्माण कर रही है, जो 'पराया' या 'अन्य' समझी जाने वाली किसी भी धार्मिक, भाषायी, नस्ली या अप्रवासी अल्पसंख्यक आबादी पर झपट पड़ने के लिए तैयार है। फासिज्म की अन्तर्वस्तु को समझे बिना इस बात को समझना मुश्किल है कि गाय की रक्षा या 'लव जेहाद', वैलेण्टाइन डे आदि के विरोध के नाम पर जो भीड़ सड़कों पर हिंसा का खूनी खेल खेलती है, वह बेचेहरा लगती है, पर दरअसल वह अपने आप में एक राजनीति-विशेष का चेहरा है। यह राजनीति है, फासिज्म की राजनीति।
फासिज्म वित्तीय पूँजी के आर्थिक हितों की सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी राजनीतिक अभिव्यक्ति होता है, पर यह केवल निरंकुश राज्यसत्ता या तानाशाही के रूप में ही नहीं होता है, बल्कि मध्यवर्ग का एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है। यह परेशानहाल मध्यवर्ग के पीले-बीमार चेहरे वाले युवाओं को लोकलुभावन नारे देकर और 'गढ़े गये' शत्रु के विरुद्ध उन्माद पैदा करके उन्हें अपने साथ गोलबन्द करता है। उत्पादन की प्रक्रिया से बाहर धकेल दिये गये विमानवीकृत (डीह्यूमनाइज्ड) और लम्पट सर्वहाराओं को भी यह अपनी गुण्डावाहिनियों में भर्ती करता है। फासिज्म तृणमूल स्तर पर नाना प्रकार के कैडर-आधारित सांगठनिक ढाँचों के जरिये काम करता है, जो इस प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन के स्नायुतंत्र के समान होते हैं।
फासिज्म हमेशा उग्र अन्धराष्ट्रवादी नारे देता है। वह संस्कृति का लबादा ओढ़कर आता है, संस्कृति का मुख्य घटक धर्म या नस्ल को बताता है और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा देता है। इस तरह देश-विशेष में बहुसंख्यक धर्म या नस्ल का 'राष्ट्रवाद' ही मान्य हो जाता है और धार्मिक या नस्ली अल्पसंख्यक स्वत: 'पराये'या 'बाहरी' हो जाते हैं। एक आधुनिक परिघटना के रूप में राष्ट्रवाद की वैज्ञानिक अवधारणा को अस्वीकार करने के लिए सभी फासिस्ट अपने राष्ट्र को प्राचीन काल से ही 'महान राष्ट्र' के रूप में मौजूद बताते हैं, मिथकों को ऐतिहासिक यथार्थ बताते हैं और इतिहास का मिथकीकरण करते हैं। धार्मिक या नस्ली अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के लिए फासिस्ट संस्कृति और इतिहास का विकृतिकरण करने के लिए तृणमूल स्तर पर मौजूद शिक्षा और प्रचार के अपने वैकल्पिक तंत्र का तथा धार्मिक प्रतिष्ठानों का निरंतर इस्तेमाल करते हैं। सत्ता में आने के बाद, वे मुख्य धारा की मीडिया के बड़े हिस्से को, सरकारी प्रचार तंत्र को और शिक्षा तंत्र को भी इस काम में सन्नद्ध कर देते हैं। इन दिनों सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने में भी फासिस्ट सबसे आगे हैं।
भारत के राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य पर एक खाँटी फासिस्ट संगठन के रूप में आरएसएस 1925 से ही मौज़ूद रहा है और लगातार सक्रिय रहा है। लेकिन स्वातंत्र्योत्तर भारत के पूँजीवादी समाज में सापेक्षिक अर्थों में जबतक विकास की आंतरिक त्वरा बची हुई थी, इसका अनुषंगी राजनीतिक संगठन संसदीय राजनीति में और समाज में हाशिये पर ही बना रहा। व्यवस्था का संकट बढ़ने के साथ ही राजनीति और समाज में इसका प्रभाव-विस्तार होता गया। अपने असाध्य ढाँचागत संकट और गतिरोध से निजात पाने के लिए भारतीय पूँजीवाद ने 1990 के दशक में जब नवउदारवाद की राह पकड़ी, तो इसी दौर में संघ और भाजपा का तेजी से विस्तार हुआ। जो नवउदारवाद का दौर रहा है, वही आडवाणी की रथयात्रा, बाबरी मस्जिद ध्वंस और गुजरात-2002 से लेकर मोदी के सत्तारूढ़ होने तक का भी दौर रहा है। 2014 के बाद से लगातार राजकीय हिंसा, हिन्दुत्ववादी गुण्डा वाहिनियों की हिंसा और भीड़ की हिंसा के त्रिभुज की काली छाया पूरे देश पर फैलती जा रही है।
निचोड़ के तौर पर कहा जा सकता है कि इस समय सड़कों पर उन्मादी भीड़ की अंधी हिंसा का जो 'पैशाचिक उत्सव'जारी है, वह फासिज्म के वर्चस्व के दौर की ही एक परिघटना है। इस भीड़ का कोई चेहरा नहीं है, बल्कि यह भीड़ स्वयं फासिज्म की विचारधारा और राजनीति का एक चेहरा है। केवल बौद्धिक दायरे तक सीमित रहकर और प्रतीकात्मक कार्रवाइयों या शांति और सर्वधर्म समभाव की अपीलों से हम फासिज्म-प्रायोजित भीड़ की हिंसा का मुकाबला नहीं कर सकते। केवल, तृणमूल स्तर से एक प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन संगठित करके ही इसका प्रतिरोध किया जा सकता है। सवाल सिर्फ संसदीय चुनावों में किसी पार्टी विशेष को हराने का नहीं है, बल्कि एक आन्दोलन विशेष के सामाजिक आधार को नष्ट करने का है।
बेशक, भीड़ की हिंसा की बर्बरता को कोई भी सभ्य नागरिक उचित नहीं ठहरा सकता, लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि इसके पीछे कुछ वास्तविक, औचित्यपूर्ण और न्यायसंगत कारण मौजूद रहते हैं। कई बार लम्बे समय से जारी शासक वर्गों का दमन, आम जनता की असहनीय जीवन-स्थितियाँ, धनिक वर्गों के असीम भोग-विलास, चरम भ्रष्टाचार आदि के चलते भी, किसी संतृप्त बिंदु पर पहुँचकर, समाज में एक विस्फोट की तरह भीड़ की हिंसा सामने आती है और सड़कों पर अराजकता फैल जाती है। प्राय: ऐसा तभी होता है, जब गहराते जनअसंतोष को एक सुव्यवस्थित जनान्दोलन की शक्ल मंर ढालकर आगे ले जा पाने में सक्षम कोई नेतृत्वकारी राजनीतिक शक्ति परिदृश्य पर मौजूद नहीं होती है। इन स्थितियों में हम कह सकते हैं कि भीड़ की हिंसा 'वास्तविक चेतना की स्वतःस्फूर्त विरूपित अभिव्यक्ति' होती है। इसके विपरीत, कुछ स्थितियाँ ऐसी होती हैं जब भीड़ की हिंसा एक 'मिथ्या चेतना' से जन्म लेती है और उसी की अभिव्यक्ति होती है। जिस समाज में धर्म, जाति, गोत्र का 'शुद्धता' की सहस्राब्दियों पुराना प्राक्-आधुनिक सोच जड़ें जमाये बैठा हो, वहाँ यदि माँ-बाप या खाप पंचायतें जाति-गोत्र-धर्म के बाहर प्रेम या शादी करने पर युवकों-युवतियों को सार्वजनिक तौर पर हिंसक दण्ड सुनाते हों तो यह आश्चर्य की बात नहीं है। जो समाज ऐतिहासिक तौर पर 'पुनर्जागरण-प्रबोधन-जनवादी क्रांति' की प्रक्रिया से गुजरकर मध्ययुगीनता के अंधकार से एक झटके से बाहर न आ सके, वहाँ मूल्यों-संस्कारों के रूप में क्रियाशील ऐसी 'मिथ्या चेतना' और उससे पैदा होने वाली भीड़ की हिंसा के रूप प्राय: देखने को मिलते हैं। भारतीय समाज एक ऐसा ही समाज है, जो अपनी स्वतंत्र स्वाभाविक आंतरिक गति से आधुनिक बुर्जुआ समाज बनने की दिशा में आगे बढ़ने के पहले ही उपनिवेश बन गया। दो सौ वर्षों की ग़ुलामी और 70 वर्षों की आजादी के दौरान आधुनिकता और वैज्ञानिक तर्कणा भारतीय जीवन में किसी आमूलगामी सामाजिक क्रांति की प्रक्रिया में नहीं, बल्कि क्रमिक और मंथर गति से आयी है। इसलिए यह सतही और विकृत है तथा आम सामाजिक जीवन में तमाम प्राक्-आधुनिक मूल्यों-संस्थाओं की मौजूदगी भी बनी हुई है। ऐसे समाज में यदि डायन होने के संदेह में भीड़ किसी स्त्री को पीट-पीट कर मार डालती है या कोई खाप पंचायत जाति या गोत्र के बाहर शादी करने पर किसी को मौत की 'सज़ा'दे देती है, तो यह आश्चर्य की बात नहीं है। गौर से देखें, तो ये संस्थाएँ केवल इतिहास की देन होने के नाते जीवित नहीं हैं। ये जीवित हैं, क्योंकि हमारे देश के जन्मना रुग्ण और विकलांग पूँजीवाद ने बहुतेरे मध्ययुगीन मूल्यों-संस्थाओं को पुन:संस्कारित करके अपना लिया है।
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14 जुलाई 1789 को गरीबों की एक भीड़ ने फ्रांस में बास्तीय के किले पर हमला कर गवर्नर और कई अधिकारियों तथा सैनिकों की हत्या कर दी थी और किले की ईंट से ईंट बजा दी थी। इस दौरान भीड़ में शामिल 83 लोग भी मारे गये थे। यही घटना आगे चलकर फ्रांसीसी क्रांति का प्रस्थान बिन्दु बन गयी। बास्तीय दुर्ग पर जिस हिंसक भीड़ ने धावा बोला था, वह लुई सोलहवें के भ्रष्ट और निरंकुश प्रशासन से तंग थी और भुखमरी तथा घनघोर अभाव का शिकार थी। 1814 में मिलान में दंगा फैला और भीड़ ने मनमाने ढंग से कर लगाने वाले नेपोलियन के निरंकुश वित्त मंत्री गिस्पे प्रीना की बेरहमी से हत्या कर दी। भीड़ का यह आतंक भयानक था, पर इसके पीछे भी जेनुइन कारण थे। यह भी वास्तविक चेतना की विरूपित स्वत:स्फूर्त अभिव्यक्ति था।
अठारहवीं शताब्दी के अंत से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक तक अमेरिका में बड़े पैमाने पर मेक्सिकी अप्रवासी मजदूर भीड़ की हिंसा के शिकार हुए। 1780 में अमेरिका में श्वेतों-अश्वेतों की हिंसक भीड़ के टकराव में 5 हजार लोग मारे गये। 1903 से 1906 के बीच, रूस में जार अलेक्सान्द्र द्वितीय के शासन काल के दौरान 2000 से अधिक यहूदी हिंसक भीड़ द्वारा मार डाले गये। 1919 में लीवरपूल में एक अफ्रीकी द्वारा दो गोरों को चाकू मार देने के बाद पूरे ब्रिटेन में नस्ली दंगे भड़क उठे थे और राह चलते आम अश्वेतों को बड़े पैमाने पर भीड़ की हिंसा का शिकार होना पड़ा था। 1949 में दक्षिण अफ्रीका में 142 भारतीयों को और फिर 1985 में 55 भारतीयों को भीड़ ने मौत के घाट उतार दिया था। ये ऐसी अंधी-बर्बर हिंसा की घटनाएँ थीं, जिनमें निराशा में उन्मत्त या प्रतिशोध की भावना से पागल आम लोगों की भीड़ ने उन आम लोगों को अपना शिकार बनाया, जिन्हें वे 'पराया' या 'बाहरी' समझते थे और अपनी जिंन्दगी की समस्याओं के लिए जिम्मेदार मानने के नाते अपना शत्रु समझते थे। ये 'मिथ्या चेतना' की प्रतिनिधिक अभिव्यक्तियाँ थीं। 1984 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी की हत्या के बाद दिल्ली में और देश के बहुतेरे शहरों में सिखों के विरुद्ध बर्बर हिंसा का जो नंगा नाच हुआ था, वह भी ऐसी ही परिघटना का एक प्रतिनिधि उदाहरण था।
लेकिन, जुनैद, पहलू खान, अखलाक और अलीमुद्दीन जैसे आम लोग भीड़ की जिस हिंसा का शिकार हुए, वह एक सर्वथा अलग परिघटना है। गौर से देखें तो उस बेचेहरा हिंसक भीड़ के पीछे हमें एक सुनिश्चित विचारधारा और राजनीति का चेहरा दिखाई देता है, जिसकी सटीक ढंग से शिनाख्त करने के लिए फासिज्म की परिघटना को समझना जरूरी है। फासिज्म के दौर में राजकीय हिंसा, संगठित फासिस्ट गुण्डा-वाहिनियों की हिंसा और भीड़ की हिंसा का एक विचित्र सहमेल स्थापित हो जाता है। फासिज्म सुव्यवस्थित प्रचार द्वारा उन्मादी हिंसक भीड़ की 'मिथ्या चेतना' का निर्माण करता है। फासिज्म के दौर में भीड़ की 'मिथ्या चेतना' स्वतःस्फूर्त नहीं होती,बल्कि उसे व्यवस्थित ढंग से गढ़ा जाता है।
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हमारे देश की सड़कों पर भीड़ की हिंसा के जो रूप आज देखने को मिल रहे हैं, उन्हें समझने के लिए 1930 के दशक के जर्मनी की एक संक्षिप्त इतिहास यात्रा की जानी चाहिए। जर्मन पूँजीवाद को तब ऐसे आक्रामक राष्ट्रीय नेता और पार्टी की जरूरत थी जो सैन्य शक्ति के बल पर यूरोपीय साम्राज्यवादी देशों से दुनिया के बाजार का बड़ा हिस्सा छीनकर मन्दी के संकट से निजात दिला सके और साथ ही, संगठित मजदूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट आन्दोलन की कमर तोड़कर समाजवाद के भूत से भी छुटकारा दिला सके। हिटलर और उसकी नात्सी पार्टी ने इसी जरूरत को पूरा किया। हिटलर ने आर्य नस्ल की 'श्रेष्ठता' और 'शुद्धता' पर आधारित जर्मन अंधराष्ट्रवाद का नारा बुलन्द किया। राष्ट्र की एकता के लिए मजदूर आन्दोलन और कम्युनिस्टों को बाधक बताते हुए उन्हें सबसे पहले निशाना बनाया गया। इसमें राज्य मशीनरी के साथ ही नात्सी पार्टी की गुण्डा वाहिनियों की अहम भूमिका थी। आर्य नस्ल की श्रेष्ठता पर आधारित जर्मन राष्ट्रवाद के अन्तर्निहित तर्क के हिसाब से नात्सियों का अगला निशाना यहूदियों को बनना ही था, जो आर्य नहीं थे और जिनकी आबादी रूस और पोलैण्ड से लेकर सभी यूरोपीय देशों में बिखरी थी। फलत: जर्मन यहूदियों की देशभक्ति को संदिग्ध प्रचारित कर देना भी सुगम था। 1930 के दशक के प्रारम्भ से ही सरकार और नात्सी पार्टी की प्रोपेगैण्डा मशीनरी यहूदियों के खिलाफ शेष जर्मन आबादी के दिलो-दिमाग में लगातार जहर घोल रही थी और उनकी छवि 'पराये', 'अन्य' और 'बाहरी' के रूप में स्थापित कर रही थी। यहूदियों पर और उनके घरों-दुकानों पर यहाँ-वहाँ हमलों की शुरुआत पहले एसएस (नात्सी पार्टी की गुण्डा वाहिनी) के दस्तों ने की। फिर जगह-जगह भीड़ भी उनपर हमले करने लगी। 'क्रिस्टल नाइट' नाम से इतिहास-प्रसिद्ध 9-10 नवम्बर 1938 की रात वह निर्णायक रात थी जब यहूदियों के कत्लेआम के मंसूबे को पूरी ताकत और तैयारी के साथ अमली जामा पहनाया गया। यह काम केवल एसएस के दस्तों ने ही नहीं किया। प्रचार-सम्मोहित हिटलर-समर्थक आम आबादी एक बर्बर भीड़ में तब्दील हो चुकी थी। सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं। प्रेस को चुप रहना था। पुलिस को किनारे खड़ा रहना था और भीड़ को उसका काम करने देना था। दस साल के भीतर हिटलर ने जर्मनी को यहूदियों से खाली करने का निर्देश गोयबेल्स को दिया था। 9-10 दिसम्बर 1938 की रात इसे फैसलाकुन अंजाम तक पहुँचा दिया गया। रक्तपात, आगजनी और तोड़फोड़ की वह रात इतिहास के पन्नों पर हमेशा के लिए दर्ज हो गयी।
हिटलर नाम का व्यक्ति तो इतिहास के कब्रिस्तान में कभी का दफ्न हो चुका है, लेकिन उसकी विचारधारा जीवित है। अतीत से सबक लेकर आज का पूँजीपति वर्ग फासिज्म को एकदम खुला नहीं छोड़ रहा है, बल्कि जंजीर से बँधे हुए खूँखार भेड़िये की तरह इस्तेमाल कर रहा है। फासिस्ट संस्थाओं की प्रोपेगैण्डा मशीनरी लगातार विविध रूपों में ऐसी भीड़ के सामूहिक मानस का निर्माण कर रही है, जो 'पराया' या 'अन्य' समझी जाने वाली किसी भी धार्मिक, भाषायी, नस्ली या अप्रवासी अल्पसंख्यक आबादी पर झपट पड़ने के लिए तैयार है। फासिज्म की अन्तर्वस्तु को समझे बिना इस बात को समझना मुश्किल है कि गाय की रक्षा या 'लव जेहाद', वैलेण्टाइन डे आदि के विरोध के नाम पर जो भीड़ सड़कों पर हिंसा का खूनी खेल खेलती है, वह बेचेहरा लगती है, पर दरअसल वह अपने आप में एक राजनीति-विशेष का चेहरा है। यह राजनीति है, फासिज्म की राजनीति।
फासिज्म वित्तीय पूँजी के आर्थिक हितों की सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी राजनीतिक अभिव्यक्ति होता है, पर यह केवल निरंकुश राज्यसत्ता या तानाशाही के रूप में ही नहीं होता है, बल्कि मध्यवर्ग का एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है। यह परेशानहाल मध्यवर्ग के पीले-बीमार चेहरे वाले युवाओं को लोकलुभावन नारे देकर और 'गढ़े गये' शत्रु के विरुद्ध उन्माद पैदा करके उन्हें अपने साथ गोलबन्द करता है। उत्पादन की प्रक्रिया से बाहर धकेल दिये गये विमानवीकृत (डीह्यूमनाइज्ड) और लम्पट सर्वहाराओं को भी यह अपनी गुण्डावाहिनियों में भर्ती करता है। फासिज्म तृणमूल स्तर पर नाना प्रकार के कैडर-आधारित सांगठनिक ढाँचों के जरिये काम करता है, जो इस प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन के स्नायुतंत्र के समान होते हैं।
फासिज्म हमेशा उग्र अन्धराष्ट्रवादी नारे देता है। वह संस्कृति का लबादा ओढ़कर आता है, संस्कृति का मुख्य घटक धर्म या नस्ल को बताता है और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा देता है। इस तरह देश-विशेष में बहुसंख्यक धर्म या नस्ल का 'राष्ट्रवाद' ही मान्य हो जाता है और धार्मिक या नस्ली अल्पसंख्यक स्वत: 'पराये'या 'बाहरी' हो जाते हैं। एक आधुनिक परिघटना के रूप में राष्ट्रवाद की वैज्ञानिक अवधारणा को अस्वीकार करने के लिए सभी फासिस्ट अपने राष्ट्र को प्राचीन काल से ही 'महान राष्ट्र' के रूप में मौजूद बताते हैं, मिथकों को ऐतिहासिक यथार्थ बताते हैं और इतिहास का मिथकीकरण करते हैं। धार्मिक या नस्ली अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के लिए फासिस्ट संस्कृति और इतिहास का विकृतिकरण करने के लिए तृणमूल स्तर पर मौजूद शिक्षा और प्रचार के अपने वैकल्पिक तंत्र का तथा धार्मिक प्रतिष्ठानों का निरंतर इस्तेमाल करते हैं। सत्ता में आने के बाद, वे मुख्य धारा की मीडिया के बड़े हिस्से को, सरकारी प्रचार तंत्र को और शिक्षा तंत्र को भी इस काम में सन्नद्ध कर देते हैं। इन दिनों सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने में भी फासिस्ट सबसे आगे हैं।
भारत के राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य पर एक खाँटी फासिस्ट संगठन के रूप में आरएसएस 1925 से ही मौज़ूद रहा है और लगातार सक्रिय रहा है। लेकिन स्वातंत्र्योत्तर भारत के पूँजीवादी समाज में सापेक्षिक अर्थों में जबतक विकास की आंतरिक त्वरा बची हुई थी, इसका अनुषंगी राजनीतिक संगठन संसदीय राजनीति में और समाज में हाशिये पर ही बना रहा। व्यवस्था का संकट बढ़ने के साथ ही राजनीति और समाज में इसका प्रभाव-विस्तार होता गया। अपने असाध्य ढाँचागत संकट और गतिरोध से निजात पाने के लिए भारतीय पूँजीवाद ने 1990 के दशक में जब नवउदारवाद की राह पकड़ी, तो इसी दौर में संघ और भाजपा का तेजी से विस्तार हुआ। जो नवउदारवाद का दौर रहा है, वही आडवाणी की रथयात्रा, बाबरी मस्जिद ध्वंस और गुजरात-2002 से लेकर मोदी के सत्तारूढ़ होने तक का भी दौर रहा है। 2014 के बाद से लगातार राजकीय हिंसा, हिन्दुत्ववादी गुण्डा वाहिनियों की हिंसा और भीड़ की हिंसा के त्रिभुज की काली छाया पूरे देश पर फैलती जा रही है।
निचोड़ के तौर पर कहा जा सकता है कि इस समय सड़कों पर उन्मादी भीड़ की अंधी हिंसा का जो 'पैशाचिक उत्सव'जारी है, वह फासिज्म के वर्चस्व के दौर की ही एक परिघटना है। इस भीड़ का कोई चेहरा नहीं है, बल्कि यह भीड़ स्वयं फासिज्म की विचारधारा और राजनीति का एक चेहरा है। केवल बौद्धिक दायरे तक सीमित रहकर और प्रतीकात्मक कार्रवाइयों या शांति और सर्वधर्म समभाव की अपीलों से हम फासिज्म-प्रायोजित भीड़ की हिंसा का मुकाबला नहीं कर सकते। केवल, तृणमूल स्तर से एक प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन संगठित करके ही इसका प्रतिरोध किया जा सकता है। सवाल सिर्फ संसदीय चुनावों में किसी पार्टी विशेष को हराने का नहीं है, बल्कि एक आन्दोलन विशेष के सामाजिक आधार को नष्ट करने का है।
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