Monday, September 04, 2017

आधुनिक उद्योग और खेती



आधुनिक उद्योग ने खेती में और खेतिहर उत्पादकों के सामाजिक सम्बन्धों में जो क्रांति पैदा कर दी है, उसपर हम बाद में विचार करेंगे। इस स्थान पर हम पूर्वानुमान के रूप में कुछ परिणामों की ओर संकेत भर करेंगे। खेती में मशीनों के प्रयोग का मजदूरों के शरीरों पर फैक्ट्री-मजदूरों के समान घातक प्रभाव नहीं होता, किन्तु जैसाकि हम बाद में विस्तार से देखेंगे, मजदूरों का स्थान लेने में मशीनें यहाँ फैक्ट्रियों से ज़्यादा तेज़ी दिखाती हैं और यहाँ इसका विरोध भी कम होता है। मिसाल के लिए, कैम्ब्रिज और सफ़ोक की काउंटियों में खेती का रकबा पिछले बीस वर्षों में (1868 तक ) बहुत अधिक बढ़ गया है, पर इसी काल में देहाती आबादी न केवल तुलनात्मक, बल्कि निरपेक्ष दृष्टि से भी घट गई है। संयुक्त राज्य अमेरिका में खेती की मशीनें अभीतक केवल संभावित मजदूरों का ही स्थान लेती हैं; दूसरे शब्दों में, उनकी मदद से किसान पहले से बड़े रक़बे में खेती कर सकता है, लेकिन उनकी वजह से पहले से काम करने वाले मजदूरों को जवाब नहीं मिल जाता। 1861 में इंगलैंड और वेल्स में खेती की मशीनों को बनाने में लगे हुए व्यक्तियों की संख्या 1,043 थी, जबकि खेती की मशीनों और भाप की इंजनों का इस्तेमाल करने वाले खेतिहर मजदूरों की संख्या 1,205 से अधिक नहीं थी।
खेती की ज़मीन पर आधुनिक उद्योग का जैसा क्रांतिकारी प्रभाव पड़ता है, वैसा और कहीं नहीं पड़ता। इसका कारण यह है कि आधुनिक उद्योग पुराने समाज के आधार-स्तम्भ -- यानी किसान -- को नष्ट कर देता है और उसके स्थान पर मजदूरी लेकर काम करने वाले मजदूर को स्थापित करता है। इसप्रकार सामाजिक परिवर्तनों की चाह और वर्गों के विरोध गावों में भी शहरों के स्तर पर पहुँच गए हैं। खेती के पुराने, अविवेकपूर्ण तरीकों के स्थान पर वैज्ञानिक तरीके इस्तेमाल होने लगते हैं। खेती और मैन्यूफैक्चर के शैशवकाल में जिस नाते ने इन दोनों को साथ बांध रखा था, पूंजीवादी उत्पादन उसे एकदम तोड़कर फेंक देता है। परंतु इसके साथ-साथ वह भविष्य में सम्पन्न होने वाले एक अधिक ऊंचे समन्वय -- यानी अपने अस्थायी अलगाव के दौरान प्रत्येक ने जो अधिक पूर्णता प्राप्त की है, उसके आधार पर कृषि और उद्योग के मिलाप -- के लिए भौतिक परिस्थितियाँ भी तैयार कर देता है। पूंजीवादी उत्पादन आबादी को बड़े-बड़े केन्द्रों में जमा करके और शहरी आबादी का पलड़ा अधिकाधिक भारी बनाकर एक ओर तो समाज की ऐतिहासिक चालक शक्ति का संकेन्द्रण कर देता है, और दूसरी ओर, वह मनुष्य तथा धरती के बीच पदार्थ के परिचालन को अस्त-व्यस्त कर देता है, अर्थात भोजन-कपड़े के रूप में मनुष्य धरती के जिन तत्वों का उपयोग कर डालता है, उन्हें धरती में लौटने से रोक देता है, और इसलिए वह उन शर्तों का उल्लंघन करता है, जो धरती को सदा उपजाऊ बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं। इसतरह वह शहरी मजदूर के स्वास्थ्य को और देहाती मजदूर के बौद्धिक जीवन को एक साथ चौपट कर देता है। परंतु पदार्थ के इस परिचलन के जारी रहने के लिए जो परिस्थितियाँ खुद-ब-खुद तैयार हो गईं थीं, उनको अस्त-व्यस्त करने के साथ-साथ पूंजीवादी उत्पादन बड़ी शान के साथ इस बात का तक़ाज़ा करता है कि इस परिचलन को एक व्यवस्था के रूप में, सामाजिक उत्पादन के एक नियामक कानून के रूप में, और एक ऐसी शक़्ल में पुनः क़ायम किया जाए कि जो मानव जाति के पूर्ण विकास के लिए उपयुक्त हो। मैन्यूफैक्चर की तरह खेती में भी पूंजी के नियंत्रण में उत्पादन के रूपान्तरण का अर्थ साथ ही यह होता है कि उत्पादक की हत्या हो जाती है; श्रम का औज़ार मजदूर को ग़ुलाम बनाने, उसका शोषण करने और उसको ग़रीब बनाने का साधन बन जाता है, और श्रम प्रक्रियाओं का स्वाभाविक संयोजन और संगठन मजदूर की व्यक्तिगत जीवन-शक्ति, स्वतन्त्रता और स्वाधीनता को कुचलकर खत्म कर देने की संगठित पद्धति का रूप ले लेते हैं। देहाती मजदूर पहले से बड़े रक़बे में बिखर जाते हैं, जिससे उनकी प्रतिरोध-शक्ति क्षीण हो जाती है, जबकि उधर शहरी मजदूरों की शक्ति संकेन्द्रण के कारण बढ़ जाती है। शहरी उद्योगों की भांति आधुनिक खेती में भी गतिशील किए हुए श्रम की उत्पादकता में वृद्धि तो होती है, पर इस कीमत पर कि श्रम शक्ति खुद तबाह और बीमारियों से नष्ट हो जाती है। इसके अतिरिक्त पूंजीवादी खेती में जो भी प्रगति होती है, वह न केवल मजदूर को, बल्कि धरती को लूटने की कला की भी प्रगति होती है; एक निश्चित समय के वास्ते धरती की उर्वरता बढ़ाने के लिए उठाया जाने वाला हर कदम साथ ही इस उर्वरता के स्थायी स्रोतों को नष्ट कर देने का कदम होता है। मिसाल के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह जितना अधिक कोई देश आधुनिक उद्योग की नींव पर अपने विकास का श्रीगणेश करता है, वहाँ विकास की यह प्रक्रिया उतनी ही अधिक तेज़ होती है। इसलिए पूंजीवादी उत्पादन प्रौद्योगिकी का और उत्पादन की विभिन्न प्रक्रियाओ को जोड़कर एक सामाजिक इकाई का रूप देने की कला का विकास तो करता है, पर यह काम केवल समस्त धन-संपदा के मूल स्रोतों को -- धरती को और मजदूर को -- सोखकर करता है।
--- कार्ल मार्क्स, 'पूंजी' खंड-1, (पृष्ठ-535-538) प्रगति प्रकाशन, मास्को, तीसरा संशोधित संस्करण (1987)

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