पूँजी
कारखानों में खेतों में करती है श्रमशक्ति की चोरी
वह मिट्टी में ज़हर घोलती है
हवा से प्राणवायु सोखती है
ओजोन परत में छेद करती है
और अार्कटिक की बर्फीली टोपी को सिकोड़ती जाती है।
वह इंसान को अकेला करती है
माहौल में अवसाद भरती है
मण्डी के जच्चाघर में राष्ट्रवाद का उन्माद पैदा करती है
स्वर्ग के तलघर में नर्क का अँधेरा रचती है।
आत्मसंवर्धन के लिए वह पूरी पृथ्वी पर
कृत्या राक्षसी की भाँति भागती है
वह अनचीते पलों में
दिमाग पर चोट करती है
युद्धों की भट्ठी में मनुष्यता को झोंकती है।
वह कभी मादक चाहत तो कभी
आत्मघाती इच्छा की तरह दिमाग में बसती है
युद्ध के दिनों में हिरोशिमा
और शान्ति के दिनों में
भोपाल रचती है।
-- कविता कृष्णपल्लवी
वह मिट्टी में ज़हर घोलती है
हवा से प्राणवायु सोखती है
ओजोन परत में छेद करती है
और अार्कटिक की बर्फीली टोपी को सिकोड़ती जाती है।
वह इंसान को अकेला करती है
माहौल में अवसाद भरती है
मण्डी के जच्चाघर में राष्ट्रवाद का उन्माद पैदा करती है
स्वर्ग के तलघर में नर्क का अँधेरा रचती है।
आत्मसंवर्धन के लिए वह पूरी पृथ्वी पर
कृत्या राक्षसी की भाँति भागती है
वह अनचीते पलों में
दिमाग पर चोट करती है
युद्धों की भट्ठी में मनुष्यता को झोंकती है।
वह कभी मादक चाहत तो कभी
आत्मघाती इच्छा की तरह दिमाग में बसती है
युद्ध के दिनों में हिरोशिमा
और शान्ति के दिनों में
भोपाल रचती है।
-- कविता कृष्णपल्लवी
Nice Lalit....
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