मेरी कविता बकबकिहा है
नारेबाजी, तुकबंदी है।
कुछ ज्यादा लाल दीखती है
कवि मन को आहत करती है।
हाँ, नहीं समादृत होगी
यह विद्वज्जन-मण्डल में।
पर नहीं सड़ेगी शोकेसों में,
गोदामों या बण्डल में।
यह रोज़-रोज़ जीवन में
बरती जायेगी।
संघर्षों में नारों-सी
खरची जायेगी।
गम्भीर, क्लासिकी भी
होंगी कुछ कविताएँ
सम्भव है, हम उनसे भी
काफी कुछ पायें।
पर समय आज कविता से
पोस्टर बनने का,
आग्रह करता है
धूल-राख में सनने का।
सीधे-सीधे कहना होगा
सीधी बातें।
बतलाना होगा जन को
पूँजी की घातें।
कवि मित्रो, कबतक यूँ ही
छाती पीटोगे
पगुराओगे शब्दों को
काहिल बैलों से,
तिकड़म करके
पद-पीठ-प्रतिष्ठा झींटोगे।
ये पुरस्कार, ये तमगे
काम न आयेंगे।
जो कलाकार जनविमुख हुए
उनके कृतित्व इतिहासिक
कचरा-पेटी में ही जायेंगे।
--कविता कृष्णपल्लवी
सुन्दर भाव समन्वय
ReplyDeleteआपका पूरा ब्लॉग पढ़ रहा हूँ, ये कविता भी आपके बाक़ी लेखन की तरह ही 'अलग' है। लाल तो है ही। पुरस्कारों का तो हिन्दी जगत में जो हाल हुआ है, आपको कोई पुरस्कार या तमगा न ही मिले तो ठीक। (जो कविता जनता के बीच ज़िंदा रहती है, वही मेरी दृष्टि में पुरस्कृत है और इस लिहाज से कई अपुरस्कृत कवि मेरे आदर्श हैं।) आप ये तो समझेंगी ही, कि लो , एक और 'पुरुष' आ गया मुझ 'स्त्री' सह 'कवयित्रि' को दुलारने-पुचकारने। ख़ैर, मैं आपके लेखन से भी ज्यादा आपके चयन से प्रभावित हूँ। आपने विश्व-साहित्य से जो उद्धरण दिये हैं इस ब्लॉग पर, उनसबको पढ़कर आपसे वैचारिक बंधुता लगी। आपके लेखन का जो तेवर है, वह मुझे जे एन यू की ही एक साथी शुभम श्री की याद दिला रहा था। शायद आप शुभम को जानती हों। मुक्तिबोध ने भी अपनी कविताओं के लिए कहा था -
ReplyDelete"मेरी ये कवितायें,
भयानक हिडिंबा हैं,
सत्य की विस्फारित प्रतिमाएँ
विकृताकृति बिम्बा हैं"।
हिडिंबा भी महाभारत की आदर्श नारियों के बीच सदा उपेक्षित रही, लेकिन एक साहित्यिक की डायरी में नहीं। बस इतना ही।