Thursday, November 28, 2013

पतन की पराकाष्‍ठा है!


पतन की पराकाष्‍ठा है! डोमाजी उस्‍ताद के साथ तमाम कविजनों-कलाविदों को मुक्तिबोध के काव्‍यनायक ने रात के अँधेरे में एक जुलूस में शामिल देख लिया था। आज दिनदहाड़े डोमाजी उस्‍ताद के साथ कथित प्रगतिशील सुधीजनों की महफिलें सज रही हैं।

कल दिल्‍ली कांस्‍टीट्यूशन क्‍लब में कुख्‍यात बाहुबली नेता पप्‍पू यादव उर्फ राजीव रंजन की आत्‍मकथा 'द्रोहकाल का पथिक' के विमोचन के अवसर पर कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह, लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान और सपा नेता मुलायम सिंह यादव के साथ वामपंथी चिंतक-आलोचक नामवर सिंह भी मौजूद थे। सेक्‍युलर फिल्‍मकार मुजफ्फर अली भी मौजूद थे। सभागार में तो कई वामपंथी लेखक पत्रकार उपस्थित थे।

नामवर ने फरमाया कि 'पप्‍पू यादव जिगर वाले आदमी हैं जो चींटियों के डर से फूँक-फूँक कर कदम नहीं रखते।' दिवंगत राजेन्‍द्र यादव का संदेश उनकी सुपुत्री ने पढ़ा। पप्‍पू यादव ने अपने स्‍टैण्‍डप्‍वाइण्‍ट से एक बात कही जो काफी हद तक विरोधी स्‍टैण्‍डप्‍वाइण्‍ट से भी सही है। उन्‍होंने कहा, ''ये इण्‍टेलेक्‍चुअल देश को बर्बाद कर रहे हैं।''

ये पप्‍पू यादव बिहार के सीमांचल के पुराने बाहुबली हैं। माफिया सरदार से नेता बनने की इनकी पूरी कहानी उस इलाके के जन-जन को पता है। पूर्णिया के माकपा नेता अजित सरकार की हत्‍या के अभियुक्‍त रह चुके हैं। कभी ये लालू यादव के साथ थे। फिर अपनी पार्टी आइ.एफ.पी.डी. बनाई। इन दिनों कांग्रेस के साथ हैं। ये गुण्‍डे ही अब सेक्‍युलर राजनीति के ''मसीहा'' हैं और राजनीति में पिछड़ों के उभार के ''प्रतीकपुरुष'' हैं। हो सकता है कि आने वाले दिनों में कोई उनकी आत्‍मकथा को रूसो  की कृति 'कंफेशंस' जैसी महान ऐतिहासिक कृति घोषित कर दे।

साहित्‍य-कला में रीढ़वि‍हीन केंचुओं-कृमियों की बेशर्म मौक़ापरस्‍ती अपने सारे कीर्तिमान तोड़ रही है। अभी पिछले दिनों कवि केदार नाथ सिंह (नामवर के समधी भी हैं वे) मुलायम सिंह की सैफ़ई महोत्‍सव में जाकर उनकी शान में कसीदे पढ़ आये। उग्र हिन्‍दुत्‍ववादी फासिस्‍ट योगी आदित्‍यनाथ से सम्‍मानित होकर भी उदय प्रकाश कई सारे प्रगतिशीलों के घनिष्‍ठ बने हुए हैं। जो तत्‍काल विरोध करते हैं, वे भी बाद में हमप्‍याला-हमनिवाला हो जाते हैं। लीलाधर जुगाड़ी कभी उत्‍तराखण्‍ड के भाजपाई मुख्‍यमंत्री को पितातुल्‍य बता रहे थे, अब बहुगुणा सरकार की बाँध नीति के सबसे मुखर बौद्धिक पैरोकार बन बैठे हैं। शोध छात्रा के यौन उत्‍पीड़न के आरोपी अजय तिवारी (जिन्‍हें बचाने में उत्‍तरआधुनिकतावादी शब्‍दचपल चपड़चूँ सुधीश पचौरी की अहम भूमिका थी) अभी भी कुछ प्रगतिशील-वामपंथी आयोजनों और साहित्यिक पत्रिकाओं के पृष्‍ठों पर विराजमान दीखते  हैं। दशकों पहले केदारनाथ सिंह ने गुहा नियोगी की हत्‍या का षड्यंत्र रचने वाले पूँजीपतियों के संस्‍थान से पुरस्‍कार लिया था और वह बात लगभग भुलाई जा चुकी है। अभी पिछले दिनों प्रकाशित जे.एन.यू. विषयक अपने संस्‍मरण में उर्मिलेश ने नामवर और केदारनाथ सिंह के जातिवाद और विभागीय तिकड़मी राजनीति की चर्चा की है। कहाँ तक बयान किया जाये! 'हरि अनंत  हरिकथा अनंता।'

ये ग़लीज़ मौक़ापरस्‍त लोग प्रगतिशील साहित्‍य के शलाका पुरुष हैं। बहुतेरे युवा कवि-लेख़क इनसे आशीर्वाद लेने को आतुर रहते हैं। यही वे लोग हैं जो प्रगतिशीलता को कलंकित लांछित करते हैं और नवोदितों को भी भ्रष्‍टाचार और अवसरवाद के मलकुण्‍ड में घसीटकर सत्‍ताश्रयी बनाते रहने का काला धंधा करते हैं। 

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