Thursday, November 28, 2013





'क्रान्ति ज़ि‍न्‍दाबाद'! सारी सत्‍ता सोवियतों को!


                                  इराक्‍ली तोइद्जे की पेण्टिंग 'द काल ऑफ द लीडर' (1947)


3 comments:

  1. 'क्रान्ति ज़ि‍न्‍दाबाद'!

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  2. Wo khoobsurat sapna tha...khoobsurat logon ne dekhe the wo sapne....ab siyasat dushton ke hath hn...vichardhaaraen kattarta ki shikaar hn...naye vichaar vyapak nahi hn...or unme grahya nahi hai...vishwa par America ka khooni panja haawi hai...or hm icon ki talaash me...kya karen ...kese bachen..duhraana bhi tike rahne ki nishaani hai...bike nahi tike rahen ye to thik hai par sirf jadon ko pakade rahna...ya nae phoolon ki talaash..? dikhti nahi bechaini us nae phool ke lie us nae paani kejharno ko bnaane ki tees kahin nahi dikhaai deti...sukhe paani ke sote or murjhaae phoolo ko kitaabon me rakhe rakhe zamaana beet gaya....charon taraf dalaalon ka samrajya hai...surang andheri hoti to saare dhaawak roushni ki taraf bhaagate...yaha to roushni ka bawandar hai...log nange hn or unhe fakhar hai ki unki jebon me itna paisa hai k wo is nangepan ko hi nai vichardhara..khoon krne or apradh ko duniya ka nya kanoon bna denge...yaqeen kijie wo bna denge...tb bhi kya tike rahna kaargar hoga ?

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  3. कॉमरेड साज़ीना, भावातिरेक क्रान्तिकारिता का शीराज़ा बिखरते देर नहीं लगता। मार्क्‍सवाद क्रान्ति का विज्ञान है। क्रान्ति एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, उसे उसी रूप में देखा-समझा जाना चाहिए। पहली बात, बीसवीं सदी की सर्वहारा क्रान्तियों की पराजय इतिहास का अंत नहीं है। वह श्रम और पूँजी के बीच जारी विश्‍व ऐतिहासिक युद्ध का पहला चक्र था, जो श्रम के पक्ष की पराजय के साथ समाप्‍त हुआ, पर आगे के लिए बहुत सारे अनुभव दे गया। अतीत में भी क्रान्तियों के प्रथम चक्र प्राय: पराजित हुए हैं। दूसरी बात, रूस और चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्‍थापना क्‍यों हुई, समाजवादी समाज में वर्गों और वर्ग-संघर्ष का अस्तित्‍व किन रूपों में लम्‍बे समय तक बना रहता है तथा पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना का भौतिक आधार किन रूपों में मौजूद रहता है, पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना रोकने के लिए सर्वहारा के सर्वतोमुखी अधिनायकत्‍व के अन्‍तर्गत सतत् क्रान्ति और अधिरचना में क्रान्ति का सिद्धान्‍त क्‍या है -- इन प्रश्‍नों पर लेनिन और माओ के लेखन के अतिरिक्‍त आज बहुत सारा साहित्‍य मौजूद है। उसे पढ़ने पर स्‍पष्‍ट हो जायेगा कि क्रान्ति कोई जूए जैसा पूर्णत: अनिश्चितता या 'चांस' का खेल नहीं है। इसमें नियमसंगति है, निश्‍चय ही जिसमें 'चांस' का भी एक पक्ष है। हमारे यहाँ एक समस्‍या यह है कि ज्‍़यादातर कम्‍युनिस्‍ट मार्क्‍सवादी साहित्‍य का गहन अध्‍ययन नहीं करते। प्राय: वे भाववादी ''कम्‍युनिस्‍ट'' होते हैं, इसलिए अतीत की हारों का ठोस अध्‍ययन-विश्‍लेषण करके आगे के वर्गयुद्ध के लिए सबक़ निकालने के लिए वे रोते-बिसुरते और कोसते-सरापते ज्‍़यादा हैं। बहुतेरे तो पाला ही पलट देते हैं। जिसका आशावाद विज्ञान-प्रसूत होता है, वह यर्थाथवादी आशावादी होता है। वह ऐसा आचरण नहीं करता। अक्‍टूबर क्रान्ति की वैचारिक विरासत और क्रान्तिकारी विरासत की आग न बुझी है, न बुझेगी।

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