- यह पूरा लेख, भगतसिंह की तस्वीर और इस टिप्पणी के साथ- यह लेख 'भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़(राहुल फाउण्डेशन,लखनऊ, सं. सत्यम वर्मा) के प्रथम संस्करण की भूमिका के रूप में प्रकाशित हुआ था। -कविता कृष्णपल्लवी
''भगतसिंह पर ही इतना ज़ोर क्यों?'' - इतिहास के एक
प्रतिष्ठित विद्वान ने पिछले दिनों पूछा। उनका कहना था कि देश के हालात आज इतने
बदल चुके हैं कि भगतसिंह ने जो कुछ भी लिखा-सोचा और बयान दिया, वे आज हमारे लिए मार्गदर्शक नहीं हो सकते। फिर क्या यह महज़ भावनाओं,
भावुकता या उत्तेजना के सहारे इतिहास-निर्माण का प्रयास नहीं है,
क्या यह भी नायक-पूजा का एक उपक्रम नहीं है?
प्रश्न
को सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता था। अन्य प्रकाशनों और क्रान्तिकारी राजनीतिक
संगठनों को जाने दें,
विगत एक दशक के दौरान भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण
लेखों-वक्तव्यों-पत्रों को अलग-अलग, और संकलनों के रूप में,
हम लोग लगातार छापते रहे हैं और भगतसिंह की दुर्लभ जेल नोटबुक को
पहली बार हिन्दी में छापने और अब तक उसके कई संस्करण निकालने का काम भी हम लोगों
ने ही किया। और अब यह पुस्तक - ‘भगतसिंह और उनके साथियों के
सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’। कहीं उक्त प्रोफेसर साहब का
प्रश्न सही तो नहीं था? हम समझते हैं, उसी
प्रश्न के उत्तर में इस पुस्तक के प्रकाशन का औचित्य-प्रतिपादन - इसके ऐतिहासिक
महत्त्व और अनन्य उपयोगिता का तर्क निहित है।
यह
सही है कि भगतसिंह और उनके साथियों के (और निस्सन्देह उनमें अग्रणी विचारक
क्रान्तिकारी भगतसिंह ही थे) विचार-पक्ष के बारे में, देश के शिक्षित लोगों और युवा पीढ़ी के बीच अपरिचय-अज्ञान की एकदम वैसी
स्थिति नहीं है जैसी आज से पच्चीस-तीस वर्षों पहले थी। भगतसिंह एक बेहद
प्रतिभाशाली और अध्ययनशील क्रान्तिकारी थे, यह जानकारी तो
उन्हें भी थी जिन लोगों ने ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन
एसोसिएशन’ में भगतसिंह के साथ काम कर चुके क्रान्तिकारी
जितेन्द्रनाथ सान्याल की पुस्तक ‘भगतसिंह’ और शिव वर्मा, अजय घोष, भगवानदास
माहौर, सदाशिव मलकापुरकर, यशपाल आदि
साथियों के तथा सोहन सिंह जोश, राजाराम शास्त्री आदि
समकालीनों के भगतसिंह विषयक संस्मरण पढ़े थे। गोपाल ठाकुर की एक छोटी-सी पुस्तिका
भी पचास के दशक में ही प्रकाशित हो चुकी थी, जिसमें
एच.एस.आर.ए. और नौजवान भारत सभा के घोषणापत्र तथा अदालत में दिये गये बयानों के
आधार पर भगतसिंह के गहन वैचारिक पक्ष और वैज्ञानिक समाजवाद की ओर उनके झुकाव के
बारे में लिखा गया था। लेकिन उस समय भी नीचे से लेकर ऊपरी कक्षाओं तक की
पाठ्यपुस्तकों और स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास की सबसे स्थापित पुस्तकों में
एच.एस.आर.ए. और भगतसिंह व उनकी पीढ़ी के क्रान्तिकारियों का उल्लेख अति संक्षेप में,
मात्र राष्ट्रवादी सशस्त्र क्रान्तिकारी धारा की एक कड़ी के रूप में
ही होता था। एच.एस.आर.ए. के क्रान्तिकारी और विशेषकर भगतसिंह किस प्रकार समाजवाद
को आदर्श मानने के बाद वैज्ञानिक समाजवाद का गहन अध्ययन कर रहे थे और
किसानों-मज़दूरों के व्यापक जन-संगठन खड़े करने के बारे में सोच रहे थे, इसका अकादमिक इतिहासकारों की पुस्तकों में उल्लेख तक नहीं होता था और
चन्द-एक शोध-पत्रों और शोध-प्रबन्धों के अपवादों को छोड़ दें तो यही स्थिति कमोबेश
आज भी बनी हुई है।
पहली
बार,
शताब्दी के आठवें दशक के प्रारम्भ में भगतसिंह की भतीजी वीरेन्द्र
सिन्धु द्वारा सम्पादित भगतसिंह के पत्रों और दस्तावेज़ों का एक संकलन प्रकाशित हुआ,
जिसने मात्र तेईस वर्ष की उम्र में शहीद हो जाने वाले उस वीर युवा
के अपार सम्भावनासम्पन्न विचारक-पक्ष की एक झलक प्रस्तुत की। इसी के आसपास
वीरेन्द्र सिन्धु द्वारा लिखी गयी भगतसिंह की एक महत्त्वपूर्ण जीवनी ‘युगद्रष्टा भगतसिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे’ नाम से
प्रकाशित हुई। आठवें दशक के पूर्वार्द्ध में ही दिल्ली के कुछ युवा क्रान्तिकारी
वामपन्थियों ने भगतसिंह के लेखों, बयानों, उद्धरणों का एक छोटा-सा संकलन निकालकर उनके द्वारा मार्क्सवाद को स्वीकार
करने और उसका गहन अध्ययन करने का तथ्य रेखांकित किया। अब धीरे-धीरे मात्र ”एक वीर क्रान्तिकारी“ से अलग भगतसिंह की छवि एक
मेधावी, युवा क्रान्तिकारी विचारक के रूप में बनने लगी थी।
जब इतिहासकार बिपनचन्द्र ने आठवें दशक के उत्तरार्द्ध में भगतसिंह का तब तक
अनुपलब्ध निबन्ध ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ अपनी भूमिका के साथ प्रकाशित किया तो उनके गहन और अकुण्ठ भौतिकवादी चिन्तन
के नये आयाम और नयी गहराई की पहली बार लोगों को जानकारी मिली। भगतसिंह का एक और
लेख ‘ड्रीमलैण्ड की भूमिका’ पहले
वीरेन्द्र सिन्धु सम्पादित दस्तावेज़ों के संकलन में प्रकाशित हो चुका था, लेकिन ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ के साथ यह निबन्ध दुबारा बिपनचन्द्र की परिचयात्मक टिप्पणी के साथ
प्रकाशित हुआ, तो विशेषतौर पर इतिहास और साहित्य के
अध्येताओं का ध्यान भगतसिंह की कुशाग्र आलोचनात्मक दृष्टि और उसमें अन्तरनिहित द्वन्द्वात्मकता की ओर आकृष्ट हुआ। इन दो लेखों ने स्पष्ट कर दिया कि
अपने छोटे से जीवन के अन्तिम कुछ वर्षों के दौरान भगतसिंह की वैज्ञानिक समाजवाद के
प्रति जो प्रतिबद्धता विकसित हुई थी, वह महज भावनात्मक या
अनुभवसंगत नहीं थी, बल्कि उसके पीछे गहन-गम्भीर अध्ययन से
उपजी, सतत विकासमान वैचारिक समझ मौजूद थी। बिपनचन्द्र के
अतिरिक्त सुमित सरकार, इरफान हबीब और हरबंस मुखिया आदि कई
प्रतिष्ठित इतिहासकारों ने और क्रान्तिकारी वामधारा से जुड़े कई बुद्धिजीवियों ने
भगतसिंह के वैचारिक पक्ष को रेखांकित किया।
विगत
शताब्दी के अन्तिम दो दशकों के दौरान भगतसिंह और उनकी पीढ़ी के भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव, विजयकुमार सिन्हा, बटुकेश्वर
दत्त जैसे अन्य क्रान्तिकारियों की, क्रान्तिकारी आन्दोलन के
वैचारिक विकास में भूमिका और उसके ऐतिहासिक महत्त्व को रेखांकित करने वाली
महत्त्वपूर्ण शोध-कृतियों, जीवनियों और अब तक अनुपलब्ध
दस्तावेज़ों का बड़े पैमाने पर प्रकाशन हुआ। ‘हिन्दुस्तान
रिपब्लिकन एसोसिएशन’ से जुड़े वरिष्ठ क्रान्तिकारी मन्मथनाथ
गुप्त (जो क्रान्तिकारी आन्दोलन के इतिहास पर पहले भी कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकें
लिख चुके थे) की पुस्तक ‘भगतसिंह एण्ड हिज़ टाइम्स’ नवें दशक के पूर्वार्द्ध में प्रकाशित हुई। फिर इस दिशा में सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण काम हुआ, और वह था जगमोहन सिंह और चमनलाल
द्वारा सम्पादित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़’
का 1986 में प्रकाशन, जिसमें
कुल 105 दस्तावेज़ शामिल थे। फिर 1986 में
अंग्रेज़ी में और 1987 में हिन्दी में भगतसिंह के साथी
क्रान्तिकारी शिव वर्मा के सम्पादन में भगतसिंह की चुनी हुई रचनाओं का एक और संकलन
प्रकाशित हुआ जिसमें 28 दस्तावेज़ भगतसिंह के अपने नाम से तथा
परिशिष्ट के रूप में अन्य साथियों के कुछ दस्तावेज़ और कुछ सरकारी दस्तावेज़ (कुल
दस) शामिल थे। 1986 में प्रकाशित जगमोहन सिंह और चमनलाल
द्वारा सम्पादित दस्तावेज़ों के संकलन में कुल 105 दस्तावेज़
शामिल थे जिनमें बहत्तर भगतसिंह का लेखन हैं और शेष तैंतीस भगवतीचरण वोहरा,
सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, महावीर सिंह आदि साथियों का लेखन हैं। ‘बम का दर्शन’
शीर्षक दस्तावेज़ का पहला मसौदा भगतसिंह ने जेल से लिखकर बाहर
भिजवाया था जिसे छपवाने से पहले अन्तिम रूप देने का काम भगवतीचरण वोहरा ने किया
था। उल्लेखनीय है कि यह दस्तावेज़ गाँधी के लेख ‘कल्ट ऑफ दि
बम’ के उत्तर में लिखा गया था।
‘भगतसिंह और साथियों के दस्तावेज़’ के प्रकाशन के
अतिरिक्त, भगतसिंह की दुर्लभ जेल नोटबुक का प्रकाशन पिछली
शताब्दी के अन्तिम दो दशकों के दौरान की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। इस बहुमूल्य और
इतिहास के विद्वानों तक के लिए अज्ञात दस्तावेज़ का प्रकाशन सबसे पहले भूपेन्द्र
हूजा ने 1991 में अपनी पत्रिका ‘इण्डियन
बुक क्राॅनिकल’ में क़िस्तों में शुरू किया और फिर 1994 में इसका (अंग्रेज़ी में) पुस्तकाकार प्रकाशन हुआ। फिर अप्रैल,
1999 में इसका हिन्दी अनुवाद (अनुवादक विश्वनाथ मिश्र और सम्पादक
सत्यम वर्मा) नयी भूमिका और नोटबुक की खोज-विषयक नये तथ्यों सहित लिखे गये दो
लम्बे निबन्धों (आलोक रंजन और एल.वी. मित्रोखिन) के साथ तथा नयी
सन्दर्भ-टिप्पणियों के साथ, परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ से (अब इस नोटबुक का नया हिन्दी संस्करण राहुल फाउण्डेशन से प्रकाशित
हुआ है) प्रकाशित हुआ। इस नोटबुक के इस हिन्दी संस्करण को हम दोनों प्रस्तावनामूलक
निबन्धों के साथ इस संकलन में भी शामिल कर रहे हैं। आलोक रंजन के लेख से पाठकों को
भगतसिंह की जेल नोटबुक के प्रकाश में आने की पूरी कहानी का पता चल जायेगा। पहली
बार इस जेल नोटबुक की चर्चा जी. देवल ने 1968 में ‘पीपुल्स पाथ’ नामक पत्रिका में प्रकाशित अपने लेख
में की थी। इसे उन्होंने फरीदाबाद में रह रहे भगतसिंह के छोटे भाई कुलबीर सिंह के
पास देखा था और अध्ययन करके आवश्यक नोट्स लिये थे। पुनः 1977
में रूसी विद्वान एल.वी. मित्रोखिन भारत आये और कुलबीर सिंह के पास मौजूद नोटबुक
के बारे में एक लेख लिखा जो उनकी पुस्तक ‘लेनिन एण्ड इण्डिया’
का एक अध्याय बना। सम्भवतः आठवें दशक के अन्त में कभी नोटबुक की एक
फोटो प्रतिलिपि कुलबीर सिंह के परिवार ने दिल्ली में नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम
लाइब्रेरी (तीन मूर्ति भवन) को प्रकाशित नहीं करने की शर्त के साथ दी। 1979 के बाद इतिहास के कई शोधार्थियों ने इसे वहाँ देखा था और अध्ययन किया था।
1986
में प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के
दस्तावेज़’ के दूसरे संस्करण (1991) की
भूमिका में जगमोहन सिंह और चमनलाल ने भी इसका उल्लेख किया है। इसी जेल नोटबुक की
एक और फोटो प्रतिलिपि डाॅ. प्रकाश चतुर्वेदी मास्को अभिलेखागार से फोटो-प्रति
कराकर लाये थे। नोटबुक की जिस प्रतिलिपि को पहली बार भूपेन्द्र हूजा ने 1991
में प्रकाशित किया, वह गुरुकुल कांगड़ी के तत्कालीन
कुलपति जी.बी. कुमार हूजा को 1981 में संस्था के मुख्य
अधिष्ठाता स्वामी शक्तिवेश से प्राप्त हुई थी। नोटबुक की अभी तक प्राप्त सभी
प्रतिलिपियाँ एक-दूसरे से शब्दशः मेल खाती हैं, जिनसे इसकी
आधिकारिकता की ही पुष्टि होती है। ‘परिकल्पना प्रकाशन’
से प्रकाशित भगतसिंह की जेल नोटबुक के हिन्दी अनुवाद का पहला
संस्करण अब तक छह बार पुनर्मुद्रित हो चुका है, और बहुत कम
करके आकलन करने के बावजूद कहा जा सकता है कि पचास हज़ार से अधिक हिन्दी पाठकों तक
तो यह पुस्तक पहुँच ही चुकी है।
इस
महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ के अतिरिक्त गत शताब्दी के अन्तिम दशक में भगतसिंह और उनके
साथियों पर काफी कुछ प्रकाशित हुआ जिसमें हंसराज रहबर और विष्णु प्रभाकर द्वारा
लिखी गयी दो जीवनियाँ भी शामिल हैं। भगतसिंह और उनके साथियों के चुने हुए तेरह
दस्तावेज़ों और उनके पत्रों-परचों के कुछ उद्धरणों का एक संकलन 1998 में परिकल्पना प्रकाशन से प्रकाशित हुआ, जिसके अब
तक पाँच संस्करण आ चुके हैं। ऐसे प्रकाशनों का सिलसिला नयी शताब्दी में भी जारी
रहा। हाल के वर्षों में दो ऐसी महत्त्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। पहली,
कुलदीप नैयर की पुस्तक, डंतजलत ठींहंज ैपदही
रू म्गचमतपउमदजे पद त्मअवसनजपवदए और दूसरी ए.जी. नूरानी की पुस्तक, श्ज्ीम ज्तपंस व िठींहंज ैपदही। सन्दर्भ-स्रोतों और व्याख्या की दृष्टि से
कुलदीप नैयर की पुस्तक में तो कोई नयी बात नहीं है, लेकिन
सरकारी दस्तावेज़ों की विस्तृत एवं गहन पड़ताल ए.जी. नूरानी की पुस्तक की विशिष्टता
है। साथ ही, अपनी वस्तुपरकता के कारण भी यह पुस्तक विशेष रूप
से महत्त्वपूर्ण है।
भगतसिंह
और उनके साथियों की राजनीतिक गतिविधियों के अतिरिक्त उनके वैचारिक पक्ष के बारे
में विगत पच्चीस वर्षों के दौरान इतना सबकुछ प्रकाशित होने के बावजूद, अब भी भगतसिंह पर हमारा इतना ज़ोर क्यों? - इतिहास के
उन प्रतिष्ठित विद्वान महोदय के उसी प्रश्न पर हम वापस लौटते हैं, जहाँ से हमने अपनी बात की शुरुआत की थी। हमारी यह स्पष्ट और दृढ़ सोच है कि
हिन्दी, अंग्रेज़ी, पंजाबी और अन्य सभी
भारतीय भाषाओं को मिलाकर, तमाम पुस्तकों और लेखों के बावजूद,
अभी भारत के तमाम शिक्षित नागरिकों में से कुछ लाख भी ऐसे लोग शायद
मुश्किल से ही मिलेंगे, जो फाँसी के तख़्ते पर सहर्ष चढ़ने
वाले वीर युवा क्रान्तिकारी की छवि से अलग, उस मेधावी युवा
के युग-प्रवर्तक और प्रतिभाशाली चिन्तन से परिचित हों। हमारे देश में इतिहास के
शोध-ग्रन्थ और शोध-पत्र विश्वविद्यालयों-शोध संस्थानों के पुस्तकालयों में बन्द
रहने और उन विद्वानों के अध्ययन के लिए होते हैं, जिनका कोई
सामाजिक सरोकार नहीं होता और जो सिर्फ अपने कैरियर और प्रतिष्ठा को सम£पत होते हैं। ऐसे विषयों पर आम पाठकों के लिए लिखी गयी पुस्तकों, जीवनियों, संस्मरणों और लेखों की भी पहुँच वास्तव
में बहुत सीमित लोगों तक ही होती है। इसके कई कारण हैं। ज़्यादातर प्रकाशकों का
एकमात्र या सर्वोपरि लक्ष्य पुस्तकालय आपू£त करके पैसे कमाना
होता है। न तो उनके प्रकाशनों की क़ीमत पाठकों की जेब के अनुकूल होती है, न ही उनके पास आमजनों तक ऐसी सामग्री पहुँचाने लायक विक्रय-वितरण का
नेटवर्क ही होता है। पूँजीवादी प्रकाशकों के अतिरिक्त पूँजीवादी पत्र-पत्रिकाओं का
भी आज जो स्वरूप है, उसे देखते हुए यह सम्भव नहीं कि उनके
माध्यम से भगतसिंह के विचारों की वास्तविक अन्तर्वस्तु जन-समुदाय तक पहुँच सके। सच
तो यह है कि पूँजी-केन्द्रित प्रकाशन-तन्त्र या व्यक्तिगत उपक्रम के द्वारा यह
सम्भव ही नहीं है। क्रान्तिकारी विचारों की ऐतिहासिक विरासत और नये-नये आयामों को
व्यापक जनगण के अलग-अलग संस्तरों तक अलग-अलग रूपों में पहुँचाने का काम एक
वैकल्पिक जन-मीडिया के द्वारा, एक ऐसे क्रान्तिकारी
प्रकाशन-तन्त्र के द्वारा ही सम्भव है, जो लोभ- लाभ के
उद्देश्य से या पूँजी और सत्ता प्रतिष्ठान की सहायता से नहीं, बल्कि क्रान्तिकारी परिवर्तन के लक्ष्य से निर्देशित और अकुण्ठ
जन-सरोकारों से संचालित हो, जिनके पीछे जनता के क्रान्तिकारी
आन्दोलन की शक्ति और समर्थन का आधार हो। राष्ट्रीय आन्दोलनकालीन पत्रकारिता और
प्रकाशन के इतिहास का यदि अध्ययन करें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है। अपने अनुभव की
विनम्रतापूर्वक चर्चा करते हुए हम कहना चाहेंगे कि भगतसिंह, राहुल,
गणेश शंकर विद्यार्थी आदि से लेकर क्रान्तिकारी साहित्य की वैश्विक
विरासत तक का प्रकाशन अनेक बुर्जुआ प्रकाशकों ने किया है, लेकिन
जन-संसाधनों, कार्यकर्ता- आधारित प्रकाशन-वितरण तन्त्र और
सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक कार्यों के समर्थन-आधार के आधार पर पुस्तकों-पुस्तिकाओं,
पत्रिकाओं-परचों आदि के रूप में, राहुल
फाउण्डेशन-परिकल्पना-जनचेतना के सम्मिलित तन्त्र ने विगत दस वर्षों के दौरान आबादी
के जितने बड़े हिस्से तक क्रान्तिकारी साहित्य की पहुँच और पैठ को सम्भव बनाया है,
वह किसी बुर्जुआ प्रकाशक या मुट्ठीभर महत्त्वाकांक्षी बुद्धिजीवियों
के किसी साझा उपक्रम के लिए न तो सम्भव है, न ही हो सकता है।
और यह स्थिति तब है जबकि यह कोई आन्दोलनात्मक उभार का दौर नहीं है। जनता के
आन्दोलन की लहरों पर सवार होकर यह धारा और तेज़ गति से आगे बढ़ती है, लेकिन ठहराव के कालखण्डों में, एकदम प्रतिकूल
स्थितियों में, ऐसे वैचारिक-सांस्कृतिक उपक्रमों की आवश्यकता
एक ज़रूरी तैयारी के रूप में होती है। इसी सोच के तहत अपने देश और पूरी दुनिया के
क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में भगतसिंह और
उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को हमने बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों
और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब
भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ
प्रकाशित कर रहे हैं।
यह
सन्तोष एक शुतुर्मुर्गी हरक़त होगी कि भगतसिंह और उनके साथियों के चिन्तन और उसके
ऐतिहासिक महत्त्व से,
अब इतने सारे प्रकाशनों के बाद, इस देश के लोग
परिचित हो चुके हैं। अभी भी उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों, बुद्धिजीवियों,
साहित्यकारों और इतिहास के युवा विद्यार्थियों में कितने ऐसे लोग
मिलेंगे, जो यह जानते हैं कि अपने जीवन के अन्तिम वर्षों,
विशेषकर जेल-जीवन के दौरान किये गये अध्ययन के बाद भगतसिंह समाजवाद
के प्रति रूमानी प्रतिबद्धता से आगे बढ़कर एक प्रखर मार्क्सवादी बन चुके थे?
कितने ऐसे लोग हैं जो जानते हैं कि जेल से लिखे गये अपने अन्तिम
दस्तावेज़ों में भगतसिंह ने क्रान्ति के लिए पेशेवर क्रान्तिकारियों पर आधारित एक
कम्युनिस्ट पार्टी और उसके नेतृत्व वाली जन-सेना तथा किसानों-मज़दूरों के जन-संगठन
बनाने की बात लिखी थी, कांग्रेसी नेतृत्व के बुर्जुआ चरित्र
का कुशाग्र विश्लेषण किया था और कांग्रेस के नेतृत्व में आज़ादी मिलने की स्थिति
में पैदा होने वाली परिस्थितियों का प्रतिभाशाली पूर्वानुमान प्रस्तुत किया था?
बहुत कम लोग जानते हैं कि भगतसिंह अपनी विचारयात्रा के अन्तिम चरण
तक एक कट्टर नास्तिक और अकुण्ठ द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी बन चुके थे। बहुत लोग
जानते हैं कि उन्होंने जेल में मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन आदि की प्रतिनिधि क्लासिकी कृतियों के अतिरिक्त जॉर्ज बर्नार्ड शॉ,
गोर्की, अप्टन सिंक्लेयर, जैक लण्डन आदि की रचनाओं तथा फ्रांसीसी क्रान्ति से लेकर रूसी क्रान्ति तक
के इतिहास का विशद अध्ययन किया था और इस अध्ययन से निर्मित इतिहास-दृष्टि के सहारे
भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के बारे में आवश्यक एवं बहुमूल्य निष्कर्ष निकाले थे।
बहुत कम लोग अभी भी इस तथ्य से परिचित हैं कि भगतसिंह का लक्ष्य साम्राज्यवाद और
सामन्तवाद से मुक्ति-मात्र नहीं था। राष्ट्रीय जनवाद के संघर्ष को वह समाजवादी
क्रान्ति की दिशा में यात्रा का एक मुकाम मानते थे और अपने चिन्तन के अन्तिम चरण
में राष्ट्रीय जनवाद के संघर्ष में भी मज़दूरों-किसानों की लामबन्दी तथा सर्वहारा
वर्ग के विचारधारात्मक-राजनीतिक वर्चस्व को सर्वोपरि महत्त्व देने लगे थे। क्या यह
निहायत ज़रूरी नहीं है कि इन सच्चाइयों से इस देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावना-सम्पन्न युवाओं को परिचित कराया जाये, जिनके
कन्धों पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है? यदि
भगतसिंह और उनके साथियों के वैचारिक पक्ष से पढ़े-लिखे लोगों का बहुलांश भी परिचित
होता तो यह कदापि सम्भव नहीं होता कि भाजपा और आर.एस.एस. के धार्मिक कट्टरपन्थी
फासिस्ट भी उन्हें अपने नायक के रूप में प्रस्तुत करने की कुटिल कोशिश करते!
जनता
के इतिहास की इस गौरवशाली विरासत को जन-जन तक पहुँचाने का काम जन-मुक्ति संघर्ष के
वैचारिक-सांस्कृतिक मोर्चे पर सन्नद्ध सेनानी ही कर सकते हैं। सरकारी इतिहासकारों
और अकादमिक प्रतिष्ठानों से यह अपेक्षा की ही नहीं जा सकती। इस वर्ष भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु और चन्द्रशेखर आज़ाद की शहादत के
पचहत्तर वर्ष पूरे हो रहे हैं। 2007-2008 भगतसिंह का जन्म
शताब्दी वर्ष होगा। इन तीन वर्षों के दौरान देश के कुछ छात्र-युवा संगठनों,
बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों ने देशभर में स्मृति-संकल्प
यात्रा निकालकर भगतसिंह और उनके साथियों के विचारों और उनकी प्रासंगिकता से देश के
जन-जन को परिचित कराने का, भगतसिंह की जनमुक्ति की अवधारणा
को साकार करने का तथा उनकी स्मृति से प्रेरणा व विचारों से दिशा लेकर नयी समाजवादी
क्रान्ति का सन्देश पूरे देश में फैलाने का संकल्प लिया है। राहुल फाउण्डेशन भी इस
संकल्प का सहभागी है और इसीलिए हम भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध
दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं।
इस
संकलन में वे सभी दस्तावेज़ शामिल हैं जो 1986 में जगमोहन सिंह
और चमनलाल सम्पादित संकलन के पहले संस्करण में हैं। वे तीन दस्तावेज़ भी इसमें हैं
जिन्हें सम्पादक-द्वय ने 1991 में प्रकाशित संकलन के दूसरे
संस्करण में शामिल किया था। इनके अतिरिक्त इसमें एक और पत्र शामिल किया गया है जो ‘महारथी’ पत्रिका (दिल्ली) के सम्पादक के नाम भगतसिंह
ने लाहौर से 27 फरवरी 1928 को लिखा था।
यह पत्र भगतसिंह के सबसे छोटे भाई कुलतार सिंह के सौजन्य से कुछ ही वर्षों पहले
प्रकाश में आया है। इसे चमनलाल द्वारा सम्पादित और 2004 में
प्रकाशित ‘भगतसिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज़’ में शामिल किया गया है। चमनलाल द्वारा सम्पादित इस नये संकलन में जेल
नोटबुक और डॉन ब्रीन की आयरिश स्वतन्त्रता संग्राम विषयक पुस्तक के भगतसिंह
द्वारा किये गये अनुवाद के अतिरिक्त भगतसिंह के कुल 72
दस्तावेज़ों को शामिल किया गया है, लेकिन उनके साथियों के शेष
सैंतीस दस्तावेज़ों को इनमें नहीं रखा गया है। हाँ, परिशिष्ट
के रूप में दो दस्तावेज़ अवश्य दिये गये हैं - पहला, नौजवान
भारत सभा का घोषणापत्र और दूसरा एच.एस.आर.ए. का घोषणापत्र। अब इस संकलन में हम
डॉन ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के
(विश्वनाथ मिश्र द्वारा किये गये और सत्यम वर्मा द्वारा सम्पादित) हिन्दी अनुवाद
के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों के सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित कर रहे हैं। संकलन को एक
सन्दर्भ-ग्रन्थ के रूप में सापेक्षिक सम्पूर्णता प्रदान करने के लिए जेल नोटबुक के
बारे में सम्पादक सत्यम वर्मा की भूमिका तथा आलोक रंजन और मित्रोखिन के उन लेखों
को भी (क्रमशः प्रस्तावना और परिशिष्ट के रूप में) हमने इस संकलन में शामिल कर
लिया है, जो जेल नोटबुक के हिन्दी अनुवाद के साथ 1999 में परिकल्पना से प्रकाशित हुए थे। इस भूमिका के अतिरिक्त इस संकलन की
प्रस्तावना के रूप में भगतसिंह के साथी क्रान्तिकारी शिव वर्मा के सुप्रसिद्ध लेख ‘क्रान्तिकारी आन्दोलन का वैचारिक विकास’ हम यहाँ एक
बार फिर प्रकाशित कर रहे हैं। यह कई बार, कई जगह प्रकाशित हो
चुका है, लेकिन यहाँ फिर इसे देने का कारण इसके ऐतिहासिक
मूल्यांकन की वस्तुपरकता के अतिरिक्त यह भी है कि इसे भगतसिंह के एक साथी ने लिखा
है जो आजीवन कम्युनिस्ट आन्दोलन में सक्रिय रहा और जिसने पश्चदृष्टि से देखकर
क्रान्तिकारी आन्दोलन का मूल्यांकन करते हुए अपने अनुभवों के अतिरिक्त अन्य आवश्यक
ऐतिहासिक सन्दर्भ-स्रोतों की भी सहायता ली है। क्रान्तिकारी आन्दोलन का मूल्यांकन
करने वाले लेखों में आज भी इसे सर्वाधिक वैज्ञानिक दृष्टि-सम्पन्न माना जाता है।
दूसरे स्थान पर, इसी विषय पर केन्द्रित प्रो. बिपनचन्द्र के
एक शोध-निबन्ध ‘1920 के दशक में उत्तर भारत में क्रान्तिकारी
आतंकवादियों की विचारधारा का विकास’ को रखा जा सकता है।
पुस्तक
के पहले खण्ड में भगतसिंह और उनके साथियों के सभी उपलब्ध पत्रों-दस्तावेज़ों के
विषयानुसार,
और कालक्रमानुसार दस उपखण्डों में बाँटकर प्रस्तुत किया गया है। इस
खण्ड के अन्त के ग्यारह परिशिष्टों में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन
के वैचारिक विकास को सही पृष्ठभूमि में समझने के लिए उसके पूर्ववर्ती संगठन
हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के दो दस्तावेज़ और उसके शीर्ष नेताओं के कुछ पत्रों
को भी शामिल कर लिया है। इनके अतिरिक्त इन परिशिष्टों में ग़दर पार्टी के
क्रान्तिकारी नेता व सिद्धान्तकार लाला हरदयाल का लेख ‘वर्ग
रुचि का आन्दोलनों पर असर’ भी शामिल कर लिया गया है जो
सितम्बर 1928 में ‘किरती’ में ‘एक निर्वासित, एम.ए.’
के नाम से प्रकाशित हुआ था। इस लेख में सामाजिक आन्दोलनों के वर्ग
विश्लेषण की जो पद्धति अपनायी गयी है, उसमें उस योजक सूत्र
को ढूँढ़ा जा सकता है जो ग़दर पार्टी की परम्परा से एच.एस.आर.ए. को जोड़ता है और
जिसके चलते ग़दर पार्टी की धारा के क्रान्तिकारियों का बहुलांश आगे चलकर भारत के कम्युनिस्ट
आन्दोलन में शामिल हो गया। उल्लेखनीय है कि लाला हरदयाल के इस लेख पर भगतसिंह और
उनके साथियों ने गहराई से विचार किया था। जब यह लेख ‘किरती’
में प्रकाशित हुआ था, उस समय भगतसिंह भी उसके
सम्पादक-मण्डल में शामिल थे।
अभी
भी यह नहीं कहा जा सकता कि भगतसिंह और उनके साथियों का सम्पूर्ण कृतित्व प्रकाश
में आ चुका है। घर से भागकर कानपुर आने और पत्रकार के रूप में ‘प्रताप’ में काम करने के समय से लेकर जेल जाने के
समय तक ‘प्रताप’ (कानपुर), ‘महारथी’ (दिल्ली), ‘चाँद’
(इलाहाबाद), ‘अर्जुन’ (दिल्ली)
और ‘मतवाला’ आदि कई हिन्दी पत्रिकाओं
में भगतसिंह कई छद्म नामों से लिखा करते थे। ‘किरती’ में वह ‘विद्रोही’ उपनाम से
पंजाबी में लिखते थे और कई सम्पादकीय भी मुख्यतः उन्होंने ही लिखे थे। उर्दू में
भी वह अच्छा लिखते थे। इनमें से जो कुछ भी अब तक ढूँढ़ा जा सका है, उसके अतिरिक्त भी काफी कुछ बचे होने की सम्भावना है क्योंकि हिन्दी,
उर्दू, पंजाबी पत्रिकाओं का इतिहास-लेखन के
स्रोत के रूप में इस्तेमाल करने की दिशा में अभी भी न के बराबर काम हुआ है,
राष्ट्रीय अभिलेखागार के प्रतिबन्धित साहित्य के प्रभाग और सरकारी
दस्तावेज़ों को भी व्यवस्थित ढंग से खँगालने का काम अभी पूरा नहीं हो सका है।
ब्रिटिश अभिलेखागार और इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी तथा पाकिस्तान के अभिलेखागार को भी
अभी पूरी तरह से छाना नहीं गया है। भगतसिंह और उनके साथियों के लेखों-पत्रों की
खोजबीन जब कुछ गम्भीरता से शुरू हुई, तब तक उस युग के अधिकांश
सम्पादक, प्रकाशक और लेखक जीवित नहीं बचे थे।
‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कई महत्त्वपूर्ण
दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी
होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन
को हमने ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ नाम दिया है।
शिव
वर्मा और भगतसिंह के कई साथियों तथा कई इतिहासकारों द्वारा उल्लिखित इस तथ्य की भी
चर्चा यहाँ ज़रूरी है कि भगतसिंह ने जेल में सतत गहन अध्ययन करने, मुक़दमे की कार्रवाई में हिस्सा लेने तथा पत्रों, सन्देशों
और विविध दस्तावेज़ों के लेखन के अतिरिक्त चार पुस्तकें और लिखी थीं:
(1) ‘आत्मकथा’ (2) ‘समाजवाद का आदर्श’ (3) ‘भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन’ और (4) ‘मृत्यु के द्वार पर’। इन पुस्तकों की पाण्डुलिपियों
के ग़ायब होने की कई रहस्यमय कहानियाँ चलन में रही हैं और माना यही जाता है कि वे
नष्ट हो चुकी हैं। लेकिन इस बात से अभी भी पूरी तरह से इन्कार नहीं किया जा सकता
कि जेल नोटबुक की तरह किसी के व्यक्तिगत संग्रह से या किसी अभिलेखागार से सहसा ये
पाण्डुलिपियाँ भी बरामद हो जायें। ‘भगतसिंह के सम्पूर्ण
दस्तावेज़’ (2004) के अपने सम्पादकीय निबन्ध में चमनलाल ने
बिना किसी तथ्य के और निहायत लचर तर्क के आधार पर एक विचित्र अटकल प्रस्तुत की है।
उनका कहना है कि हो सकता है कि इन चार पाण्डुलिपियों का कोई अस्तित्व ही न हो। वह
अटकल लगाते हैं कि ‘आत्मकथा’ और ‘मृत्यु के द्वार पर’ शीर्षक पाण्डुलिपियाँ डाॅन
ब्रीन की आत्मकथा का ही प्रारूप हो सकती हैं। ‘भारत में
क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास’ उनके अनुसार जेल में रहते
हुए लिख पाना असम्भवप्राय था। साथ ही, वह यह भी कहते हैं कि
ता£कक स्तर पर जेल प्रवास के दो साल में चार पुस्तकों का
लेखन असम्भव है। यह अटकल विचित्र ही नहीं, बचकानी ओर
ग़ैर-ज़िम्मेदाराना भी है, जिसकी अपेक्षा कम से कम ऐतिहासिक
दस्तावेज़ों का सम्पादन करने वाले किसी व्यक्ति से नहीं की जानी चाहिए। पहली बात तो
यह कि भगतसिंह को जब 12 सितम्बर 1929
से लिखने के लिए नोटबुक और पढ़ने के लिए किताबों की सुविधा मिलने लगी थी, तो भला यह सम्भव क्यों नहीं है कि वे जेल में रहकर भारत के क्रान्तिकारी
आन्दोलन का इतिहास लिख सकें? बल्कि सम्भावना तो इसी बात की
ज़्यादा है कि सशस्त्र क्रान्ति की मध्यवर्गीय सोच से आगे किसानों-मज़दूरों के
जन-संगठन बनाने तथा साथ ही गुप्त क्रान्तिकारी पार्टी बनाने की मार्क्सवादी
अवस्थिति तक पहुँचने के बाद समाहारमूलक दृष्टि से भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन का
इतिहास लिखने का विचार भगतसिंह के मस्तिष्क में आया हो। जहाँ तक जेल-जीवन के दो
वर्षों के जेल-जीवन के दौरान चार पुस्तकों के लेखन को तार्किक
दृष्टि से असम्भव मानने की बात है, तो यह तो और अधिक
हास्यास्पद है। चमनलाल को साइबेरिया-प्रवास में गये लेखकों-क्रान्तिकारियों से
लेकर पूरी दुनिया के इतिहास से दर्जनों ऐसे उदाहरण दिये जा सकते हैं, जबकि कई प्रतिभाशाली और लक्ष्य के प्रति एकाग्र व्यक्तियों ने चार नहीं बल्कि
दर्जनों जिल्दों में समा पाने वाली गम्भीर और वैविध्यपूर्ण सामग्री का लेखन किया।
भगतसिंह जैसे प्रतिभाशाली युवा के लिए यह कदापि असम्भव नहीं था। ख़ासतौर पर तब
जबकि जेल-जीवन के दौरान के अध्ययन और अनुभव-विश्लेषण एवं समाहार के द्वारा उनका
दृष्टिकोण सुनिश्चित हो चुका था, मुक्ति के रास्ते के बारे
में विचार सुनिश्चित शक्ल अख़्तियार करने लगे थे और वह जानते थे कि उनके पास समय
बहुत कम है। भगतसिंह की जेल नोटबुक से उनके गहन अध्ययन का जो आभास मिलता है,
उसे देखते हुए भी चार पुस्तकों का लेखन अस्वाभाविक नहीं बल्कि इसके
विपरीत अत्यन्त स्वाभाविक लगता है। इस तरह की अटकलबाज़ी के बजाय बेहतर यही होगा कि
हम उन तथ्यों पर भरोसा करें जो शिव वर्मा और कुछ अन्य साथियों ने इस सन्दर्भ में
बयान किये हैं। इसी सोच के तहत हम यह नहीं मानते कि भगतसिंह और उनके साथियों के जो
दस्तावेज़ अभी तक उपलब्ध हो सके हैं, उनके अतिरिक्त कुछ छूट
नहीं गया होगा। हमारा इस बात पर पर्याप्त ज़ोर है कि आगे भी इस दिशा में खोज का काम
सतत जारी रहना चाहिए।
भगतसिंह
और उनके साथियों के वैचारिक पक्ष को जन-जन तक पहुँचाने का संकल्प गलदश्रु भावुकता
या क्रान्तिकारी परम्परा के प्रति श्रद्धालुता के नाते तो ख़ैर क़तई नहीं जन्मा है, इसका उद्देश्य इतिहास की अज्ञात, अल्पज्ञात या
विस्मृत परम्परा और वैचारिक विरासत को उद्घाटित करना-मात्र भी नहीं है। भगतसिंह और
उनके साथियों का चिन्तन सुदूर अतीत की चीज़ नहीं है। यह राष्ट्रीय मुक्ति-संघर्ष के
उस निकट अतीत की विरासत है, जिसके गर्भ से बाहर आकर आज के
भारत का विकास हुआ है।
भगतसिंह
ने अपने समय के राष्ट्रीय आन्दोलन पर जो आलोचनात्मक और समाहारमूलक टिप्पणियाँ की
थीं,
अपने देशकाल की ज़मीन पर खड़े होकर उन्होंने भविष्य की सम्भावनाओं के
बारे में जो आकलन प्रस्तुत किये थे, कांग्रेसी नेतृत्व का
उन्होंने जो वर्ग-विश्लेषण किया था, देश की मेहनतवफश जनता के
सामने, छात्रों-युवाओं के सामने, और
सहयोद्धा क्रान्तिकारियों के सामने क्रान्ति की तैयारी और मार्ग की उन्होंने जो
नयी परियोजना प्रस्तुत की थी, उसका आज के संकटपूर्ण समय में
बहुत अधिक महत्त्व है जब पूरा देश देशी-विदेशी पूँजी की निर्बन्ध लूट और निरंकुश
वर्चस्व तले रौंदा जा रहा है, जब श्रम और पूँजी के बीच
धु्रवीकरण ज़्यादा से ज़्यादा तीखा होता जा रहा है, जब
साम्राज्यवाद के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष (जिसकी भगतसिंह ने भविष्यवाणी की थी)
विश्व-स्तर पर ज़्यादा से ज़्यादा अवश्यम्भावी बनता प्रतीत हो रहा है, जब कांग्रेस ही नहीं सभी संसदीय पार्टियों और नक़ली वामपन्थियों का चेहरा
और पूरी सत्ता का चरित्र एकदम नंगा हो चुका है, जब भगतसिंह
की आशंकाएँ एकदम सही साबित हो चुकी हैं और जब, भारत की मेहनतकश
जनता व क्रान्तिकारी युवाओं को साम्राज्यवाद और देशी पूँजीवाद के विरुद्ध एक नयी
क्रान्ति की तैयारी के जटिल कार्य में नये सिरे से सन्नद्ध हो जाने का समय आ चुका
है।
भगतसिंह
के समय के भारत से आज का भारत काफी बदल चुका है। उत्पादन-प्रणाली से लेकर राजनीतिक
व्यवस्था,
सामाजिक सम्बन्ध और संस्कृति तक के स्तर पर चीज़ें काफी बदल चुकी
हैं। साम्राज्यवादी शोषण-उत्पीड़न आज भी मौजूद है, लेकिन
प्रत्यक्ष औपनिवेशिक शासन के दौर से आज इसका स्वरूप काफी बदल चुका है। वर्ग-संघर्ष,
विगत सर्वहारा क्रान्तियों और राष्ट्रीय मुक्ति-युद्धों के दबाव के
चलते तथा अपने भीतर के आन्तरिक दबावों के फलस्वरूप साम्राज्यवाद के तौर-तरीक़ों में
काफी बदलाव आये हैं। राष्ट्रीय-औपनिवेशिक प्रश्न आज हल हो चुका है और राष्ट्रीय
मुक्ति-युद्धों में कहीं भागीदार और कहीं नेता की भूमिका निभाने वाला, भूतपूर्व औपनिवेशिक देशों का बुर्जुआ वर्ग आज पूरी तरह से पाला बदलकर
साम्राज्यवादी शक्तियों का ‘जूनियर पार्टनर’ बन चुका है। गाँवों में भी बुर्जुआ भूमि-सुधारों की क्रमिक प्रक्रिया ने
भूमि-सम्बन्धों को मूलतः बदल दिया है और नये पूँजीवादी भूमि-सम्बन्धों के अन्तर्गत,
पूँजीवादी भूस्वामी बन चुके भूतपूर्व सामन्ती भूस्वामी तथा
पूँजीवादी फार्मर बन चुके भूतपूर्व धनी काश्तकार आज गाँव के मेहनतवफशों और
छोटे-मँझोले किसानों के शोषक की भूमिका में हैं। मँझोले किसानों की भूमिका उसी
प्रकार दोहरी है जैसे शहरों में आज मध्यवर्ग की भूमिका दोहरी बन चुकी है - यानी इन
वर्गों के ऊपरी संस्तर शासकों के साथ नाभिनालबद्ध हैं जबकि निचले संस्तर मेहनतकशों
के क़रीबी बन रहे हैं। साथ ही गाँव के ग़रीबों को लूटने में देशी-विदेशी वित्तीय एवं
औद्योगिक पूँजी की प्रत्यक्ष भूमिका बन रही है। निचोड़ के तौर पर कहा जा सकता है कि
भारत जैसे अगली क़तारों के भूतपूर्व औपनिवेशिक देश आज पिछड़े पूँजीवादी देश बन चुके
हैं। अब इन देशों के इतिहास के एजेण्डे पर राष्ट्रीय मुक्ति-संघर्ष नहीं बल्कि
समाजवाद के लिए संघर्ष है।
लेकिन
इन महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों के बावजूद, साम्राज्यवाद के
विरुद्ध युद्ध अभी जारी है। और जैसाकि फाँसी से तीन दिन पहले पंजाब के गवर्नर को
फाँसी के बजाय गोली से उड़ाये जाने की माँग करते हुए लिखे गये अपने पत्र में
भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव ने लिखा था: ”...यह युद्ध तब तक चलता रहेगा, जब तक कि शक्तिशाली
व्यक्ति भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार जमाये रखेंगे।
चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज़ पूँजीपति, अंग्रेज़ शासक अथवा
सर्वथा भारतीय ही हों। उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। यदि शुद्ध
भारतीय पूँजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का ख़ून चूसा जा रहा हो तब भी इस स्थिति
में कोई फवऱ्फ नहीं पड़ता।“ इस पत्र के अन्त में
विश्वासपूर्वक यह घोषणा की गयी है कि, ”निकट भविष्य में यह
युद्ध अन्तिम रूप में लड़ा जायेगा और तब यह निर्णायक युद्ध होगा। साम्राज्यवाद एवं
पूँजीवाद कुछ समय के मेहमान हैं।“ यहाँ भगतसिंह की उस प्रखर
इतिहास-दृष्टि से हमारा साक्षात्कार होता है जो राष्ट्रीय मुक्ति-संघर्ष को
जन-मुक्ति-संघर्ष की इतिहास-यात्रा के दौरान बीच का एक पड़ाव-मात्र मानती थी और
साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष को ही अन्तिम निर्णायक संघर्ष मानती थी।
भगतसिंह ने कई स्थानों पर इस बात पर बल दिया है कि इस निर्णायक विश्व-ऐतिहासिक
महासमर का नेतृत्व सर्वहारा वर्ग ही कर सकता है और पूँजीवाद का एकमात्र विकल्प
समाजवाद ही हो सकता है। इस मायने में भगतसिंह और एच.एस.आर.ए. के नेतृत्व के युवा
क्रान्तिकारी न केवल अपने पूर्ववर्ती सशस्त्र क्रान्तिकारियों से बल्कि अपने
समकालीनों से भी काफी आगे थे। आज जब विश्व-स्तर पर पूँजी और श्रम की शक्तियाँ एक
नये, निर्णायक ऐतिहासिक युद्ध के लिए आमने-सामने लामबन्द हो
रही हैं तो भारत के युवाओं और मेहनतकशों के लिए साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के
भविष्य के बारे में भगतसिंह के इस आकलन और भविष्यवाणी का विशेष महत्त्व हो जाता
है।
भगतसिंह, भगवतीचरण वोहरा और एच.एस.आर.ए. के अन्य अग्रणी क्रान्तिकारियों का
दृष्टिकोण भारतीय पूँजीपति वर्ग के बारे में भी एकदम स्पष्ट था। कांग्रेस के
नेतृत्व को वे इन्हीं पूँजीपतियों-व्यापारियों का प्रतिनिधि मानते थे और उनकी यह
स्पष्ट धारणा थी कि राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व यदि कांग्रेस के हाथों में रहा
तो उसका अन्त एक समझौते के रूप में ही होगा। और इसीलिए वह यह स्पष्ट सन्देश देते
हैं कि क्रान्तिकारियों के लिए आज़ादी का मतलब सत्ता पर बहुसंख्यक मेहनतवफश जनता का
क़ाबिज होना है, न कि लाॅर्ड री¯डग और
लाॅर्ड इ£वन की जगह पुरुषोत्तम दास, ठाकुरदास
का अथवा गोरे अंग्रेज़ों की जगह काले अंग्रेज़ों का सत्तासीन हो जाना। उनकी स्पष्ट
घोषणा थी कि यदि देशी शोषक भी किसानों-मज़दूरों का ख़ून चूसते रहेंगे तो हमारी लड़ाई
जारी रहेगी। यहाँ ग़ौरतलब यह भी है कि गाँधी और कांग्रेस की राजनीति का विरोध करते
हुए भगतसिंह की पहुँच और पद्धति नितान्त द्वन्द्वात्मक है। वह मानते हैं कि व्यापक
जनता की राष्ट्रीय आकांक्षाओं को कांग्रेस के नेतृत्व वाला जनान्दोलन एक मंच दे
रहा है। वे इसकी जन-कार्रवाइयों के कायल हैं पर यह भी मानते हैं कि कांग्रेसी
नेतृत्व की राजनीति जन-विरोधी है और इसकी जन-कार्रवाइयों का उद्देश्य जनता की
मुक्ति नहीं बल्कि मुट्ठीभर पूँजीपतियों और अभिजातों को सत्तारूढ़ बनाना है तथा यह
भी कि कांग्रेस साम्राज्यवाद से निर्णायक विच्छेद नहीं कर सकती। गाँधी और गाँधीवाद
का ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मक विश्लेषण करते हुए वह लिखते हैं, ”गाँधी एक दयालु मानवतावादी व्यक्ति हैं। लेकिन ऐसी दयालुता से सामाजिक
तब्दीली नहीं आती, उसके लिए वैज्ञानिक और गतिशील सामाजिक
शक्ति की ज़रूरत है।“ 2 फरवरी, 1931 के
अपने लम्बे लेख में उन्होंने फिर लिखा, ”हमें कांग्रेस
आन्दोलन की सम्भावनाओं, पराजयों व उपलब्धियों सम्बन्धी किसी
क़िस्म का भ्रम नहीं होना चाहिए। आज के इस आन्दोलन को गाँधीवाद कहना ठीक है...इसका
तरीक़ा अनूठा है, लेकिन इसके विचार बेचारे लोगों के किसी काम
के नहीं हैं। गाँधीवाद साबरमती के सन्त को कोई स्थायी शिष्य नहीं दे पायेगा।“
लेकिन साथ ही व्यापक जनता को लामबन्द कर लेने में गाँधी की सफलता का
वे वस्तुपरक मूल्यांकन भी करते हैं, ”इस तरह गाँधीवाद अपने
भाग्यवादी मत के बावजूद क्रान्तिकारी विचारों के क़रीब पहुँचने की कोशिश करता है,
क्योंकि वह जन-कार्रवाई पर निर्भर करता है, चाहे
यह कार्रवाई जनता के लिए नहीं है।“
एक
ओर जहाँ एच.एस.आर.ए. ने जनता को जगाने और अपने उद्देश्यों के प्रचार के लिए कुछ
व्यक्तिगत आतंक की कार्रवाइयों को पूर्ववर्ती क्रान्तिकारी संगठनों की ही भाँति
अंजाम दिया,
वहीं मज़दूर क्रान्तियों और जन-संघर्षों के इतिहास और क्रान्तिकारी
आन्दोलनों के अनुभवों के समाहार के आधार पर भगतसिंह और उनके साथी ज़्यादा से
ज़्यादा इस निष्कर्ष पर पहुँचते जा रहे थे कि क्रान्ति अपनी निर्णायक मंज़िल में
अनिवार्यतः सशस्त्र और ¯हसात्मक होगी, लेकिन
मज़दूरों-किसानों- छात्रों-युवाओं के खुले जन-संगठन बनाये बिना और व्यापक
जनान्दोलनों के बिना क्रान्ति की तैयारियों को निर्णायक मंज़िल तक पहुँचाया ही नहीं
जा सकता। इस सोच की शुरुआती अभिव्यक्ति हमें ‘नौजवान भारत
सभा’ के गठन में देखने को मिलती है और जेल-जीवन के अन्तिम
वर्ष तक मार्क्सवाद-लेनिनवाद के गहन अध्ययन (जिसका प्रमाण भगतसिंह की जेल नोटबुक
के नोट्स हैंद्ध के बाद भगतसिंह इस सोच पर एकदम दृढ़ हो चुके थे। 19 अक्टूबर 1929 को पंजाब छात्र संघ, लाहौर के दूसरे अधिवेशन को भेजे गये अपने सन्देश में भगतसिंह ने लिखा था: ”इस समय हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठायें। आज
विद्यार्थियों के सामने इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य है।...नौजवानों को
क्रान्ति का यह सन्देश देश के कोने-कोने तक पहुँचाना है, फैक्टरी-कारख़ानों
के क्षेत्रों में, गन्दी बस्तियों और गाँवों की जर्जर
झोंपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रान्ति की अलख जगानी है जिससे
आज़ादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।“
फरवरी, 1931 के अपने ऐतिहासिक मसविदा दस्तावेज़
में भगतसिंह ने स्पष्ट कहा था: ”आतंकवाद हमारे समाज में
क्रान्तिकारी चिन्तन की पकड़ के अभाव की अभिव्यक्ति हैऋ या एक पछतावा। इसी तरह यह
अपनी असफलता का स्वीकार भी है।...आतंकवाद अधिक से अधिक साम्राज्यवादी ताक़त को
समझौते के लिए मजबूर कर सकता है। ऐसे समझौते, हमारे उद्देश्य
- पूर्ण आज़ादी - से हमेशा ही कहीं दूर रहेंगे। इस प्रकार आतंकवाद, एक समझौता, सुधारों की एक क़िस्त निचोड़कर निकाल सकता
है और इसे ही हासिल करने के लिए गाँधीवाद ज़ोर लगा रहा है। वह चाहता है कि दिल्ली
का शासन गोरे हाथों से भूरे हाथों में आ जाये। ये लोगों के जीवन से दूर हैं और
इनके गद्दी पर बैठते ही ज़ालिम बन जाने की बहुत सम्भावनाएँ हैं।“ ज़ाहिर है कि अपनी विचार-यात्रा के अन्तिम पड़ाव तक पहुँचते-पहुँचते भगतसिंह
कांग्रेस और गाँधीवाद के असली चरित्र की पहचान करने के साथ-साथ क्रान्तिकारी
आतंकवाद की सीमाओं को भी समझने लगे थे और जैसाकि फरवरी 1931
के मसविदा दस्तावेज़ से स्पष्ट हो जाता है, वह महान मस्तिष्क
अपने अवसान की पूर्वबेला में एक जन-क्रान्ति की तैयारी और पूर्वाधार के प्रश्नों
से गहन रूप से जूझ रहा था।
भगतसिंह
राष्ट्रीय आन्दोलन में पूँजीपति वर्ग की भागीदारी को जहाँ ढुलमुलपन से भरा हुआ और
अन्ततः समझौते की परिणति तक पहुँचने वाला मानते थे, वहीं अध्ययन
और अनुभव ने उन्हें मज़दूर-किसान संश्रय विषयक इस लेनिनवादी निष्पत्ति के निकट
पहुँचा दिया था कि राष्ट्रीय अथवा समाजवादी क्रान्तियों में मज़दूर वर्ग का नेतृत्व
और उसके निकटतम संश्रयकारी के रूप में किसानों की मौजूदगी ही उनकी सफलता की
गारण्टी हो सकती है। उन्होंने यह स्पष्ट लिखा था, ”क्रान्ति
राष्ट्रीय हो या समाजवादी, जिन शक्तियों पर हम निर्भर हो
सकते हैं, वे हैं किसान और मज़दूर।“
अपने
उपरोक्त ऐतिहासिक दस्तावेज़ में भगतसिंह ने युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं को सलाह दी
है कि वे मार्क्स और लेनिन का अध्ययन करें, उनकी शिक्षा को
अपना मार्गदर्शक बनायें, जनता के बीच जायें, मज़दूरों-किसानों और शिक्षित मध्यवर्गीय नौजवानों के बीच काम करें, उन्हें राजनीतिक दृष्टि से शिक्षित करें, उनमें
वर्ग-चेतना उत्पन्न करें, उन्हें संगठित करें, आदि। महत्त्वपूर्ण बात है कि इस दस्तावेज़ में एक कम्युनिस्ट पार्टी के
निर्माण की ज़रूरत पर बल दिया है जो मुख्यतः पेशेवर क्रान्तिकारियों - ऐसे
पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं पर निर्भर हो जिनकी क्रान्ति के सिवा न कोई दूसरी
आकांक्षा हो, न ही जीवन का कोई दूसरा लक्ष्य।
भगतसिंह
और उनके साथी राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति को समाजवाद के लिए संघर्ष के लक्ष्य की
दिशा में यात्रा के दौरान बीच की एक मंज़िल मानते थे, वे सर्वहारा
क्रान्ति के पक्षधर थे और उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष को साम्राज्यवाद की
विश्व-व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष का एक अंग मानते थे। वे राष्ट्रवादी क्रान्तिकारी-मात्र
न होकर उत्कट अन्तरराष्ट्रीयतावादी थे। भाषाई-जातिगत-धार्मिक संकीर्णता से वे पूरी
तरह से मुक्त थे तथा रहस्यवाद और भाग्यवाद की दिमाग़ी ग़ुलामी से छुटकारा पा चुके
थे। भगतसिंह की नास्तिकता एक सच्चे वैज्ञानिक भौतिकवादी की नास्तिकता थी।
इस
पूरी चर्चा का उद्देश्य भगतसिंह के चिन्तन के उन पक्षों को रेखांकित करना है, जो आज के समय में भी हमारे लिए प्रासंगिक हंै। हम यह नहीं कहते कि भगतसिंह
द्वारा सुझाया गया क्रान्ति का रास्ता आज हमारे लिए पूरी तरह से प्रासंगिक है।
तबसे अब तक देश के उत्पादन-सम्बन्धों, सामाजिक-आर्थिक संरचना,
राज्यसत्ता के चरित्र एवं कार्यप्रणाली तथा साम्राज्यवाद के चरित्र
एवं कार्यप्रणाली में महत्त्वपूर्ण बदलाव आये हैं, लेकिन आज
की क्रान्ति के युवा हरावलों के लिए भी भगतसिंह के चिन्तन के कुछ पक्ष नितान्त
प्रासंगिक हैं। इन्हें यदि सूत्रवत बताना हो तो इस रूप में गिनाया जा सकता है: (1)
भगतसिंह और उनके साथियों की निरन्तर विकासमान भौतिकवादी जीवनदृष्टि
और द्वन्द्वात्मक विश्लेषण पद्धति (2) साम्राज्यवाद के
विरुद्ध जारी विश्व-ऐतिहासिक युद्ध के प्रति उनका नज़रिया (3) राष्ट्रीय मुक्ति-युद्ध को साम्राज्यवादी विश्व-व्यवस्था के विरुद्ध
संघर्ष का अंग मानने तथा समाजवादी क्रान्ति की पूर्ववर्ती मंज़िल मानने का उनका
नज़रिया (4) कांग्रेस और गाँधी के वर्ग-चरित्र का
द्वन्द्वात्मक मूल्यांकन और कांग्रेसी नेतृत्व वाली राष्ट्रीय आन्दोलन की
मुख्यधारा की ता£कक परिणति का प्रतिभाशाली पूर्वानुमान (5)
क्रान्तिकारी आतंकवाद का विश्लेषण के बाद उससे आगे बढ़कर
क्रान्तिकारी जन-दिशा पर बल देना, मज़दूरों-किसानों को
क्रान्ति की मुख्य शक्ति मानते हुए उन्हें संगठित करने पर बल देना तथा एक सर्वहारा
क्रान्ति को अपरिहार्य बताना (6) एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट
पार्टी की लेनिनवादी अवधारणा को स्वीकारना और उसके निर्माण को ज़रूरी बताना (7)
धार्मिक-जातिगत-भाषाई कट्टरता का विरोध करना, आदि।
इन्हीं
कारणों से हमारा मानना है कि इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके
विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का
पुनःस्मरण-मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व
का जीवन्त रूप है और आज,
जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर संगठित होकर
साम्राज्यवाद और देशी पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष की दिशा और मार्ग का सन्धान करना
है, जब एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम
रणकौशल विकसित करने का कार्यभार हमारे सामने है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और
उसके निष्कर्षों से हमें कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
परम्परा
कभी भी उँगली पकड़कर भविष्य तक नहीं पहँुचाती। वह एक दिशा देती है, बशर्ते कि हम आलोचनात्मक विवेक के साथ इतिहास का अध्ययन करें और अपनी
परम्परा की पहचान करें। प्राचीनकालीन लोकायत दर्शन, बौद्ध
दर्शन और सांख्य आदि की भौतिकवादी चिन्तन परम्परा हमारी परम्परा है। मध्यकालीन
निर्गुण भक्ति आन्दोलन की परम्परा हमारी परम्परा है। आधुनिक काल में राधामोहन
गोकुलजी, राहुल सांकृत्यायन और भगतसिंह की विकासमान
वैज्ञानिक भौतिकवादी चिन्तन-परम्परा भी हमारी परम्परा है। और यह परम्परा अत्यन्त
समृद्ध है। हम तो यहाँ मात्र कुछ सर्वाधिक आलोकमय शिखरों का नामोल्लेख कर रहे हैं।
पूरी दुनिया के साथ ही, अपने देश की इस क्रान्तिकारी विरासत
का पुनःस्मरण आज के नये सर्वहारा पुनर्जागरण और प्रबोधन का आवश्यक कार्यभार है।
इतिहास कोई जड़वस्तु नहीं होती। जब भी भविष्य-सन्धान का नया कार्यभार सामने आता है,
जब भी नये सिरे से मुक्ति-परियोजनाओं का निर्माण करना होता है तो एक
बार फिर इतिहास का अन्वेषण करना होता है। भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण
कृतित्व का अध्ययन इसीलिए आज उनके लिए बहुत ज़रूरी है जो जन-मुक्ति की नयी परियोजना
तैयार करने और उसे क्रियान्वित करने के लिए संकल्पबद्ध हैं।
इन
पत्रों-दस्तावेज़ों का अध्ययन करते हुए एक बात का ध्यान रखना बेहद ज़रूरी है। इनका
अध्ययन इनके कालक्रम को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। भगतसिंह को समय ने अपने
विचारों को सुस्थिर-सुनिश्चित करने का समय ही नहीं दिया। उनका पूरा चिन्तन एक
तूफानी गति वाली विचार-यात्रा है, जिसमें क्रान्तिकारी जीवन के
अनुभवों के समाहार तथा दर्शन, साहित्य, क्रान्तियों के इतिहास आदि के धुआँधार अध्ययन के बाद, लगातार, बहुत तेज़ी से परिवर्तन आते गये हैं। लगातार
वह ज़्यादा से ज़्यादा वैज्ञानिक दृष्टि-सम्पन्नता की दिशा में आगे बढ़ते गये हैं,
उनका चिन्तन ज़्यादा से ज़्यादा अन्तरविरोध-मुक्त होता गया है तथा
उनकी विश्लेषण पद्धति ज़्यादा से ज़्यादा द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी होती गयी है।
भगतसिंह
ने अपना पहला लेख पंजाब की भाषा और लिपि की समस्या पर सत्रह वर्ष की अवस्था में
लिखा। तब उनका क्रान्तिकारी जीवन शुरू हो चुका था और वह कानपुर में ‘प्रताप’ में काम कर रहे थे। 1928 में एच.एस.आर.ए. के गठन के समय तक उनकी और उनके साथियों की समाजवाद के
प्रति रूमानी प्रतिबद्धता उत्पन्न हो चुकी थी और सशस्त्र कार्रवाइयों के साथ-साथ
युवाओं के खुले जन-संगठन और जनान्दोलन को भी वे ज़रूरी मानने लगे थे। क्रान्तिकारी
जीवन के अनुभवों, गहन अध्ययन तथा सोहन सिंह जोश और लाला छबील
दास के साथ लगातार सम्पर्क-संवाद ने धीरे-धीरे वैज्ञानिक समाजवाद के प्रति उनकी
समझदारी को और गहरा बनाने का काम किया। कानपुर-प्रवास के दौरान राधामोहन गोकुलजी
और सत्यभक्त आदि के विचारों ने तथा वहाँ के मज़दूर आन्दोलन ने भी मध्यवर्गीय
सशस्त्र क्रान्तिवाद को सर्वहारा क्रान्ति की समझ की दिशा में मोड़ने में
महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। जेल में काफी संघर्ष के बाद लिखने-पढ़ने की सुविधा
भगतसिंह को सितम्बर 1929 को मिली। उसके बाद, मुक़दमे के बयानों की तैयारियों, जेल के बाहर के
साथियों से सम्पर्क-संवाद और लम्बी भूख-हड़ताल के अतिरिक्त भगतसिंह ने अपना सारा
समय गहन अध्ययन और लेखन में ख़र्च किया। जेल नोटबुक के प्रकाश में आने के बाद यह
स्पष्ट हो गया है कि इस अध्ययन का दायरा आश्चर्यजनक रूप से व्यापक था, लेकिन इसमें भी क्रान्तियों के इतिहास, महत्त्वपूर्ण
मार्क्सवादी क्लासिक्स और दर्शन का उन्होंने सर्वाधिक गहन अध्ययन किया। नोटबुक के
नोट्स बताते हैं कि यह अध्ययन कितना डूबकर किया गया था। ग़ौरतलब है कि 23 मार्च 1931 तक जारी गहन अध्ययन इस सिलसिले की अवधि
मात्र डेढ़ वर्ष की ही थी। इस छोटे से समय में गहन अध्ययन के जरिये भगतसिंह ने जो
वैचारिक परिपक्वता अर्जित की, वह किसी युगान्तरकारी महान
ऐतिहासिक प्रतिभा के ही बूते की बात थी। मात्र 17 से 23
वर्ष की उम्र के बीच फैली यह अल्पावधि विचार-यात्रा इतिहास की एक
मिसाल है। औपनिवेशिक भारत के पिछड़े सांस्कृतिक-शैक्षिक परिवेश की सीमाओं को देखते
हुए, भगतसिंह की इस युगद्रष्टा प्रतिभा की तुलना यदि युवा
लेनिन की प्रतिभा से की जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। चमनलाल ने ‘भगतसिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज़’ की प्रस्तावना में
उनकी तुलना मात्र चैबीस वर्ष की आयु जीने वाले रूस के क्रान्तिकारी जनवादी चिन्तक
दोब्रोल्यूबोव से ठीक ही की है।
अध्ययन
और चिन्तन की इस अतिसंक्षिप्त, सघन-सान्द्र और तीव्र वेगवाही
अवधि को देखते हुए यह स्वाभाविक ही है कि भगतसिंह के चिन्तन में प्रायः कुछ
अन्तरविरोध और चिन्तन की हर अग्रवर्ती मंज़िल में पूर्ववर्ती मंज़िल की कुछ
प्रभाव-छायाएँ देखने को मिलती हैं। इसलिए इन दस्तावेज़ों का अध्ययन करते समय चिन्तन
की मुख्य दिशा, मूल निष्पत्तियों और विश्लेषण-पद्धति पर
ध्यान देना सबसे ज़रूरी है। भगतसिंह को अपनी स्थापनाओं को सुव्यवस्थित और विस्तारित
करने का अवसर नहीं मिला, लेकिन साम्राज्यवाद के बारे में,
भारतीय पूँजीपति वर्ग और कांग्रेस के बारे में, सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण की आवश्यकता के बारे में
और क्रान्ति की तैयारी के बारे में उनके जो निष्कर्ष थे, उन्हें
इतिहास ने सही सिद्ध किया। जीवन के अन्तिम काल में लिखे गये लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ (अक्टूबर 1930) और अन्तिम ऐतिहासिक दस्तावेज़ ‘क्रान्तिकारी
कार्यक्रम का मसविदा’ (2 फरवरी 1931) में
भगतसिंह का चिन्तन अपनी परिपक्वता के शिखर-बिन्दु पर पहुँचा हुआ दिखायी देता है।
एच.एस.आर.ए.
के क्रान्तिकारियों के अब तक प्रकाशित कुल 105 दस्तावेज़ों में
से 72 भगतसिंह का लेखन हैं और शेष 33
भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव, बटुकेश्वर
दत्त, महावीर सिंह आदि का लेखन हैं। इससे भी यह स्पष्ट है कि
एक विचारक और सिद्धान्तकार के रूप में, अपने साथियों के बीच
भगतसिंह की ही भूमिका नेतृत्वकारी थी। यूँ तो सुखदेव, बटुकेश्वर
दत्त, शिव वर्मा, विजयकुमार सिन्हा आदि
भी मेधावी और अध्ययनशील युवा थे, लेकिन चिन्तन के क्षेत्र
में भगवतीचरण वोहरा भगतसिंह के सर्वाधिक क़रीबी थे। उल्लेखनीय
है
कि भगतसिंह से गहन विचार-विमर्श के बाद नौजवान भारत सभा और एच.एस.आर.ए. का
घोषणापत्र भगवतीचरण वोहरा ने ही तैयार किया था। वह भगतसिंह की विचार-यात्रा के
अनन्य सहयात्री थे।
भगतसिंह
और उनके साथियों की राजनीतिक-वैचारिक समझ 1917 की रूसी
सर्वहारा क्रान्ति के प्रखर रक्तिम आलोक से आलोकित हुई थी। ‘युगान्तर’
और ‘अनुशीलन’ से लेकर ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ तक के मध्यवर्गीय
अराजकतावादी क्रान्तिकारी आन्दोलन के विकासक्रम की गहराई से जाँच-पड़ताल करने,
मज़दूरों-किसानों को संगठित करने की महत्ता को समझने और फिर
वैज्ञानिक समाजवाद को स्वीकारने की मंज़िल तक पहुँचने के पीछे भगतसिंह और भगवतीचरण
वोहरा की महान प्रतिभा का योगदान तो था ही, लेकिन साथ ही,
इसके कुछ सुनिश्चित वस्तुगत ऐतिहासिक कारण भी थे। इस वैचारिक विकास
के पीछे ग़दर पार्टी के निकट अतीत की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण थी। ग़दर पार्टी वह
पहली क्रान्तिकारी पार्टी थी जिसमें किसानों और मज़दूरों की भूमिका और जनान्दोलनों
की भूमिका को सशस्त्र क्रान्ति से जोड़ने की सोच मौजूद थी और जो एक जनवादी गणतन्त्र
की स्थापना की सुनिश्चित अवधारणा प्रस्तुत कर रही थी। यह अनायास नहीं था कि आगे
चलकर ग़दर पार्टी के अधिकांश क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन में शामिल हो गये।
ग़दर पार्टी के संस्थापक लाला हरदयाल की विश्लेषण पद्धति में काफी हद तक जुझारू
भौतिकवादी वर्ग-विश्लेषण के तत्त्व समाहित थे। भगतसिंह और उनके साथियों ने अजीत
सिंह, लाला हरदयाल और कर्तार सिंह सराभा की क्रान्तिकारी
जनवादी परम्परा को आगे विस्तार दिया और उसे मार्क्सवाद की मंज़िल तक उसी तरह आगे
बढ़ाया जिस तरह रूस में प्लेख़ानोव और वेरा ज़ासूलिच आदि की पीढ़ी नरोदवाद की
क्रान्तिकारी जनवादी विरासत से आगे बढ़कर मार्क्सवाद तक पहुँची। अन्तर सिर्फ यह था
कि भगतसिंह, भगवतीचरण वोहरा आदि को अपने मार्क्सवादी चिन्तन
को सुव्यवस्थित ढंग से आगे बढ़ाने और उसे अमल में लाने का अवसर ही नहीं मिला।
भगतसिंह
की मार्क्सवाद तक की यात्रा एम.एन. राय और अन्य विलायतपलट भारतीय कम्युनिस्ट
नेताओं से भिन्न थी। उन्होंने मार्क्सवादी क्लासिक्स का अध्ययन किया और इस
प्रक्रिया में विकसित होती हुई दृष्टि से भारतीय समाज और राजनीति का मौलिक
विश्लेषण करने की कोशिश की। यह कोशिश चाहे जितनी भी छोटी और अनगढ़ रही हो, पर इसकी मौलिकता और इसके विकास की तीव्र गति सर्वाधिक उल्लेखनीय थी।
भगतसिंह और उनके साथियों ने भारत के प्रारम्भिक कम्युनिस्ट नेतृत्व की तरह सोवियत
संघ और ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टियों तथा कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के दस्तावेज़ों
में प्रस्तुत विश्लेषणों-निष्कर्षों को आधार बनाकर भारतीय परिस्थितियों को देखने
और कार्यभार तय करने के बजाय स्वयं अपनी दृष्टि और अध्ययन के आधार पर ब्रिटिश
उपनिवेशवाद, कांग्रेस, गाँधी आदि के
बारे में मूल्यांकन बनाये। अप्रोच की यह मौलिकता विशेष रूप से हमारे देश में
उल्लेखनीय है जहाँ बड़ी पार्टियों और अन्तरराष्ट्रीय नेतृत्व का अन्धानुकरण लगातार
एक गम्भीर बीमारी के रूप में मौजूद रहा है। इस मायने में भगतसिंह, भगवतीचरण वोहरा आदि की विकास-प्रक्रिया माओ त्से-तुघ और हो ची मिन्ह के
अधिक निकट जान पड़ती है जिन्होंने अन्तरराष्ट्रीय नेतृत्व से सीखते हुए भी, अपने-अपने देशों की ठोस परिस्थितियों का स्वयं अध्ययन किया और क्रान्ति की
रणनीति, आम रणकौशल और मार्ग का निर्धारण किया। ऐसा सोचने का
वस्तुगत आधार है कि यदि भगतसिंह जीवित रहे होते और उन्हें अपनी सोच के आधार पर
कम्युनिस्ट पार्टी बनाने या कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होकर उसे अपनी सोच के
हिसाब से दिशा देने का अवसर मिला होता तो शायद इस देश के कम्युनिस्ट आन्दोलन का
इतिहास, या शायद इस देश का ही इतिहास किसी और ढंग से लिखा
जाता।
बहरहाल, आज ऐसा सोचने की एकमात्र प्रासंगिकता यही हो सकती है कि क्रान्तिकारी
विचार और कर्म की उस अधूरी यात्रा को एक बार फिर आगे बढ़ाने और अंजाम तक पहुँचाने
की बेचैनी से हर प्रगतिकामी भारतीय युवा के दिल को लबरेज़ कर दिया जाये। भगतसिंह के
ही सन्देश को आधार बनाकर जन-जन तक इस सन्देश को पहुँचाना होगा कि यही साम्राज्यवाद
और पूँजीवाद के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष का वह ऐतिहासिक काल है जिसकी भविष्यवाणी
भगतसिंह ने की थी। कांग्रेसी नेतृत्व ने राष्ट्रीय आन्दोलन को आधी सदी पहले एक ऐसे
मुकाम तक पहुँचाया, जब पूँजीवादी शासन के रूप में हमें अधूरी,
खण्डित और विकलांग आज़ादी मिली और तबसे लेकर आज तक इतिहास एक अँधेरी
सुरंग का दुखदायी सफरनामा बनकर रह गया। अब एक बार फिर, जैसाकि
भगतसिंह ने कहा था, हमें ”क्रान्ति की
तलवार विचारों की सान पर तेज़“ करनी होगी और साम्राज्यवाद-
पूँजीवाद विरोधी नयी समाजवादी क्रान्ति का सन्देश कल-कारख़ानों-झोंपड़ियों तक,
मेहनतवफशों के अँधेरे संसार तक, हर जीवित हृदय
तक लेकर जाना होगा। भगतसिंह का नाम आज इसी संकल्प का प्रतीक चिह्न है और उनका
चिन्तन क्षितिज पर अनवरत जलती मशाल की तरह हमें प्रेरित कर रहा है और दिशा दिखला
रहा है।
-
सत्यम
10
जनवरी, 2006
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