Thursday, November 21, 2013

इक्‍कीसवीं सदी की सच्‍चाइयाँ और अक्‍टूबर क्रान्ति की प्रेरणाएँ एवं शिक्षाएँ

(सोवियत समाजवादी क्रान्ति की 96वीं वर्षगाँठ के अवसर पर)


-कविता कृष्‍णपल्‍लवी


96वर्ष का समय बीत चुका है जब विकसित पश्चिम और पिछड़े पूरब के पुल पर खड़े एक देश में, धरती के  अभागों ने स्‍वर्ग पर धावा बोला था। वे स्‍वर्ग से आग चुराकर धरती पर लाने नहीं गये थे। उनका उद्देश्‍य था जीयस के शाप से प्रोमेथियस को मुक्‍त करना और स्‍वर्ग पर कब्‍ज़ा जमाकर धरती और स्‍वर्ग को एक बना देना। देवताओं को उन्‍होंने पराजित किया और तेजी से अपने उद्देश्‍य की पूर्ति के लिए आगे क़दम बढ़ाये। लेकिन उनकी वह पहली विजय स्‍थायी न बन सकी। धरती और स्‍वर्ग का फ़ासला अभी मिटाया ही जा रहा था कि देवताओं ने फिर से अपनी सत्‍ता पुनर्स्‍थापित कर ली। धरती के अभागों को फिर अंधकार में धकेल दिया गया। प्रोमेथियस को फिर चट्टान से जकड़ दिया गया। लेकिन स्‍वर्ग पर पहला धावा कोई अंतिम धावा नहीं था। प्रोमेथियस का अंत भी देवताओं के वश में नहीं है।
अक्‍टूबर क्रान्ति की मशालें अभी बुझी नहीं है। श्रमजीवी शक्तियाँ धरती के विस्‍तीर्ण-सुदूर भूभागों में बिख़र गयी हैं। उनकी हिरावल टुकडि़याँ तैयार नहीं है, पूँजी के दुर्ग पर नये आक्रमण की रणनीति पर एकमत नहीं है। पूँजी का दुर्ग नीम अँधेरे में आतंककारी रूप में शक्तिशाली भले दीख रहा हो, उसकी प्राचीरों में दरारें पड़ रही हैं, बुर्ज़ कमज़ोर हो गये हैं, द्वारों पर दीमक लग रहे है और दुर्ग-निवासी अभिजनों के बीच लगातार तनाव-विवाद गहराते जा रहे हैं। बीसवीं शताब्‍दी समाजवादी क्रान्यिों के पहले प्रयोगों की और राष्‍ट्रीय जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों के (आमूलगामी ढंग से या क्रमिक उद्विकास की प्रक्रिया से) पूरी होने की शताब्‍दी थी। इक्‍कीसवीं शताब्‍दी पूँजी और श्रम के बीच आमने-सामने के टकराव की, और निर्णायक टकराव की, शताब्‍दी है।  विकल्‍प दो ही हैं -- या तो श्रम की शक्तियों की, यानी समाजवाद की, निर्णायक विजय, या फिर बर्बरता और विनाश। पृथ्‍वी पर यदि पूँजी का  वर्चस्‍व क़ायम रहा तो लोभ-लाभ की अंधी हवस में राजा मीडास के वंशज इंसानों के साथ ही प्रकृति को भी उस हद तक निचोड़ और तबाह कर डालेंगे कि पृथ्‍वी का पर्यावरण मनुष्‍य के जीने लायक़ ही नहीं रह जायेगा। इतिहास की लंबी यात्रा ने मानव जाति की चेतना का जो स्‍तर दिया है, उसे देखते हुए यह विश्‍वासपूर्वक कहा जा सकता है कि समय रहते वह चेत जायेगी और जो सामाजिक- आर्थिक व्‍यवस्‍था भौतिक सम्‍पदा के साथ-साथ बहुसंख्‍यक जनों के लिए रौरव नर्क़ का जीवन, सांस्‍कृतिक-आत्मिक रिक्‍तता-रुग्‍णता और प्रकृति के भीषण विनाश का परिदृश्‍य रच रही है, उसे नष्‍ट करके एक न्‍यायपूर्ण, मानवीय, सृजनशील तथा प्रकृति और मनुष्‍य के बीच के द्वंद्व को सही  ढंग से हल करने वाली सामाजिक-आर्थिक व्‍यवस्‍था स्‍थापित करने की दिशा में आगे बढ़ेगी। इसके लिए सामाजिक परिवर्तन के विज्ञान की रोशनी में आज के सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक जीवन के हर पहलू को समझने वाली, सर्वहारा क्रान्ति के मित्र और शत्रु वर्गों को पहचानने वाली तथा उस आधार पर क्रान्ति की रणनीति एवं आम रणकौशल विकसित करने वाली सर्वहारा वर्ग की पार्टी का पुनर्निर्माण  एवं पुनर्गठन पहली शर्त है। इसके बिना पूरी व्‍यवस्‍था के उस 'कण्‍ट्रोलिंग, कमाण्डिंग ऐण्‍ड रेग्‍यूलेटिंग टॉवर' को, जिसे राज्‍यसत्‍ता कहते हैं, धराशायी किया ही नहीं जा सकता। अक्‍टूबर क्रान्ति के दूसरे संस्‍करण की तैयारी की प्रक्रिया की एकमात्र यही आम दिशा हो सकती है।

पूँजी और श्रम के बीच ऐतिहासिक विश्‍व महासमर डेढ़ सौ वर्षों से भी अधिक समय से जारी है। इस दीर्घकालिक युद्ध में सर्वहारा वर्ग ने कई  दमकते मील के पत्‍थरों के साथ तीन महान कीर्तिस्‍तम्‍भ स्‍थापित किये -- 1871 का पेरिस कम्‍यून, अक्‍टूबर 1917 की सोवियत समाजवादी क्रान्ति और 1966-76 की चीनी महान सर्वहारा सांस्‍कृतिक क्रान्ति। हर क्रान्ति अपने आप में महान, मौलिक और गौरवशाली होती है, लेकिन ये तीन क्रान्तियाँ प्रवृत्ति-निर्धारक और पथान्‍वेषी क्रान्तियाँ थीं।
1871 का पेरिस कम्‍यून वीर कम्‍यूनार्डों के नेतृत्‍व में हुई पहली सर्वहारा क्रान्ति थी। पेरिस में पहली मज़दूर सत्‍ता मात्र 72 दिनों तक ही क़ायम रह सकी, लेकिन इसका समाहार करते हुए मार्क्‍स-एंगेल्‍स ने सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान में महत्‍वपूर्ण इज़ाफ़े किये। उन्‍होंने यह निष्‍कर्ष निकाला कि सर्वहारा वर्ग अपनी लक्ष्‍यपूर्ति के लिए राज्‍य की बनी-बनायी मशीनरी का इस्‍तेमाल नहीं कर सकता। उसे पुरानी राज्‍य मशीनरी का ध्‍वंस करके अपनी नयी राज्‍य मशीनरी -- सर्वहारा अधिनायकत्‍व स्‍थापित करनी होगी। पेरिस कम्‍यून की पराजय का एक मूल कारण यह भी था कि उसे नेतृत्‍व देने के लिए मार्क्‍सवादी विज्ञान से निर्देशित सर्वहारा वर्ग की कोई हरावल पार्टी उस समय मौज़ूद नहीं थी।
ऐसी हरावल पार्टी की, उसके निर्माण एवं गठन की तथा उसकी कार्यप्रणाली की अवधारणा सर्वप्रथम, सांगोपांग रूप में लेनिन ने विकसित की। लेनिन के नेतृत्‍व में बोल्‍शेविक पार्टी ने लगातार विविध संशोधनवादी-अर्थवादी-अंधराष्‍ट्रवादी विजातीय प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष किया। साम्राज्‍यवाद की सांगोपांग विवेचना करते हुए लेनिन ने बताया कि पूँजी की वैश्विक इजारेदारी की नयी अवस्‍था में क्रान्तियों के तूफ़ानों का केन्‍द्र विकसित पश्चिम से पिछड़े पूरब में स्‍थानांतरित हो चुका है और पिछड़े, औपनिवेशिक-अर्धऔपनिवेशिक देशों की राष्‍ट्रीय जनवादी क्रान्तियाँ भी अब विश्‍व सर्वहारा क्रान्ति की कड़ी बन चुकी हैं। लेनिन ने जनवादी क्रान्ति में कम्‍युनिस्‍ट भागीदारी के रणकौशलों को भी पहली बार सूत्रबद्ध किया। रूस में जनवादी क्रान्ति के तत्‍काल बाद अक्‍टूबर में बोल्‍शेविकों ने समाजवादी क्रान्ति सम्‍पन्‍न की और पेरिस कम्‍यून के वारिस के रूप में सोवियत सत्‍ता अस्तित्‍व में आयी।
गृहयुद्ध के संकट, साम्राज्‍यवादी आक्रमण, अकाल-भुखमरी आदि अकथनीय आपदाओं को  झेलते हुए भी सोवियत संघ में समाजवादी ने आगे डग भरे। भूमि और उद्योगों का राष्‍ट्रीकरण कर दिया गया। शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, आवास जैसी नागरिकों की बुनियादी ज़ि‍म्‍मेदारियों को पूरा करना राज्‍य का बुनियादी दायित्‍व हो गया। लेनिन अपनी आखिरी साँस तक समाजवादी संक्रमण के दीर्घकालिक, रणनीतिक, नीतिगत और वैचारिक प्रश्‍नों से जूझते रहे, सर्वहारा सत्‍तातंत्र और पार्टी तंत्र में पैदा हुई नौकरशाहाना विकृतियों और बुर्ज़ुआ विरूपताओं को चिन्हित करते रहे तथा पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के ख़तरे के मूल स्रोतों की शिनाख्‍़त करते रहे। उन्‍होंने बार-बार इस बात पर बल दिया कि एक कठोर सर्वहारा अधिनायकत्‍व (जो इतिहास की सर्वाधिक जनवादी सत्‍ता भी थी) के बिना समाजवाद क़ायम नहीं रह सकता  और जनवादी केन्‍द्रीयता पर क़ायम एक सुगठित फ़ौलादी पार्टी के नेतृत्‍व के बिना सर्वहारा अधिनायकत्‍व का बने रहना भी असंभव होगा।
अक्‍टूबर क्रान्ति के तोपों के धमाकों ने दुनिया भर के राष्‍ट्रीय मुक्ति संघर्षों को भी नया संवेग दिया। साथ ही, एशिया, लातिन अमेरिका और अरब अफ्रीका के अधिकांश देशों में कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों के गठन की प्रक्रिया तेज़ हो गयी। कम्‍युनिस्‍टों के अन्‍तरराष्‍ट्रीय मंच के रूप में तीसरा इण्‍टरनेशनल अस्तित्‍व में आया।
लेनिन की मृत्‍यु के बाद, स्‍तालिन काल में, इतिहास में पहली बार, दुनिया स्‍वामित्‍व के रूपों के समाजवादी रूपांतरण की साक्षी बनी। इसी दौरान समाजवादी संक्रमण की समस्‍याओं के कुछ ऐसे ठोस रूप और नये आयाम सामने आये, जो लेनिन के जीवन काल में स्‍पष्‍ट नहीं हुए थे। स्‍वामित्‍व के रूपों में समाजवादी रूपां‍तरण के बाद समूचे उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों और अधिरचना के रूपांतरण की समस्‍याओं की समझ या तो आंशिक बनी या बन ही नहीं सकी। समाजवादी समाज में तीन अन्‍तरवैयक्तिक असमानताओं से पैदा होने वाले बुर्ज़ुआ अधिकारों , मूल्‍य के नियमों की मौजूदगी और अधिरचना के सतत् क्रान्तिकारीकरण के प्रश्‍न को यांत्रिक भौतिकवादी दार्शनिक विचलन के कारण पूरी तरह से समझा नहीं जा  सका और फलत: समाजवादी समाज में वर्ग-संघर्ष की प्रकृति एवं प्रक्रिया की सुसंगत सैद्धान्तिक समझदारी नहीं बन सकी। इसके चलते, पार्टी और राज्‍य के तंत्र में बुर्ज़ुआ तत्‍व पनपते रहे और समाज में उनका आधार विस्‍तारित होता रहा। इसी की चरम  परिणति स्‍तालिन की मृत्‍यु के  बाद, ख्रुश्‍चेव के नेतृत्‍व में पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के रूप में सामने आयी। इस त्रासदी के बावजूद, यह इतिहास का तथ्‍य है कि स्‍तालिन के जीवन-काल में सोवियत संघ में उत्‍पादक शक्‍तियों का अभूतपूर्व विकास हुआ और जनता के जीवनस्‍तर में चमत्‍कारी उठान देखने को मिली। फ़ासिज्‍़म को पराजित कर पूरी दुनिया को बर्बरता के प्रकोप से बचाने के साथ ही भूमण्‍डल के अधिकांश भाग पर क्रान्ति के प्रवाह को आगे बढ़ाने  में सोवियत संघ ने महत्‍वपूर्ण भूमिका निभायी।
माओ त्‍से-तुंग ने अर्द्धसामन्‍ती-अर्द्धऔपनिवेशिक समाज में क्रान्ति की रणनीति एवं आम रणकौशल विकसित करते हुए दीर्घकालिक लोकयुद्ध की सामरिक रणनीति  तैयार की, जिसे सफलतापूर्वक लागू करते हुए 1949 में चीन की नवजनवादी क्रान्ति सम्‍पन्‍न हुई और फिर वहाँ भी समाजवाद  की संक्रमण-यात्रा की शुरुआत हुई। एक बेहद पिछड़ा देश और किसानी समाज होने के कारण चीन में समाजवादी संक्रमण की वि‍शिष्‍ट और गम्‍भीर समस्‍याएँ थीं। सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के बाद किसी भी तरह की बाहरी समाजवादी सहायता से वंचित चीन और भी गहन-गम्‍भीर समस्‍याओं से घिर गया। इन हालात में समाजवादी प्रयोगों को जारी रखते हुए, चीन की पार्टी से कई सैद्धान्तिक और व्‍यावहारिक चूकें हुईं, विजातीय प्रवृत्तियों की शिनाख्‍़त करने और उनके विरुद्ध खुला संघर्ष छेड़ने में (जैसे कि ख्रुश्‍चोवी संशोधनवाद के विरुद्ध) कई बार देर भी हुई तथा कई मामलों में विश्‍व-परिस्थितियों के ग़लत मूल्‍यांकन से अन्‍तरराष्‍ट्रीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में विभ्रम भी फैले। पर महत्‍वपूर्ण बात यह थी कि माओ के नेतृत्‍व में पार्टी अपनी ग़लतियों को प्राय: ठीक करते हुए, देर से ही सही, लेकिन सही नतीजों पर पहुँचती रही। सोवियत संघ और चीन के समाजवादी संक्रमण की समस्‍याओं का अध्‍ययन करते हुए तथा ख्रुश्‍चोवी संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष के दौरान सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना की परिघटना को समझते हुए माओ ने इस सन्‍दर्भ में लेनिन के चिन्‍तन की छूटे हुए सिरे को पकड़ा और समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष के नियमों का सूत्रीकरण किया। उन्‍होंने स्‍पष्‍ट किया कि समाजवादी संक्रमण की लम्‍बी अवधि के दौरान वर्ग संघर्ष पूर्वापेक्षा अधिक जटिल और दुर्द्धर्ष रूप में जारी रहेगा और लम्‍बे समय तक पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना का ख़तरा बना रहेगा। माओ ने बताया कि उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों के सतत् उन्‍नत स्‍तर के समाजवादी रूपांतरण के साथ ही अधिरचना का भी सतत् क्रान्तिकारी रूपांतरण जारी रखना होगा। उत्‍पादन की प्रगति, वैज्ञानिक प्रयोग और वर्ग-संघर्ष -- समाजवादी के ये तीन बुनियादी कार्यभार होंगे, लेकिन इनमें से कुंजीभूत कड़ी की भूमिका वर्ग-संघर्ष की ही होगी। संक्षेप में, यही था सर्वहारा वर्ग के सर्वतोमुखी अधिनायकत्‍व के अन्‍तर्गत सतत् क्रान्ति का सिद्धान्‍त, विशेषकर अधिरचना में सतत् क्रान्ति का सिद्धान्‍त, जो 1966-76 की पहली महान सर्वहारा सांस्‍कृतिक क्रान्ति के दौरान अमल में आया। अपने ढंग की यह पहली क्रान्ति पथान्‍वेषी और प्रवृत्ति-निर्धारक क्रान्ति थी, अत: स्‍वभावत: इसमें अनगढ़ता थी, इसमें कई भूलें भी हुई, असंतुलन भी और अतिरेक भी।  परन्‍तु बुनियादी बात यह थी कि इसने समाजवादी संक्रमण की मूल गुत्‍थी को सुलझाने का तथा उसकी आम दिशा तय करने का काम किया। इसी अर्थ-सन्‍दर्भ में यह पेरिस कम्‍यून और अक्‍टूबर क्रान्ति के बाद विश्‍व सर्वहारा क्रान्ति की इतिहास यात्रा का तीसरा कीर्तिस्‍तम्‍भ थी।


उदात्‍त त्रासदियों का रचयिता महानतम कवि -- विश्‍व इतिहास अ‍त्‍यधिक द्वंद्ववादी है। सर्वहारा वर्ग जब अपनी वैचारिक समृद्धि के नये शिखर तक पहुँचा तो इसकी कीमत उसने अपने सभी मुक्‍त क्षेत्रों को खोकर चुकाई। समस्‍या की जड़ तक पहुँचने में चीन में जो समय लगा , उस समय तक वहाँ पूँजीवादी पथगामियों की जड़ें मजबूत हो चुकी थीं, वर्ग शक्ति-संतुलन बदल चुका था। 1976 में समाजवाद का अंतिम दुर्ग भी ढह गया।
आज दुनिया में न कोई समाजवादी देश है, न कोई अनुभवी पार्टी, न मान्‍य अन्‍तरराष्‍ट्रीय नेतृत्‍व और न  ही कम्‍युनिस्‍टों का कोई अन्‍तरराष्‍ट्रीय मंच। और ठीक यही वह काल रहा है जब विश्‍व पूँजीवाद की संरचना, कार्यप्रणाली और उसके संकट की प्रकृति में बुनियादी बदलाव आये हैं। वास्‍तविक अर्थव्‍यवस्‍था पर परजीवी, अनुत्‍पादक वित्‍तीय अल्‍पतंत्र की अभूतपूर्व निर्णायक जकड़बन्‍दी (लेनिन के समय से भी कई गुना अधिक) स्‍थापित हुई है। नये राष्‍ट्रपारीय (ट्रांसनेशनल) निगमों में पूँजी निर्यात, अधिशेष विनियोजन और विश्‍वबाजार  पर प्रभुत्‍व के नये-नये तौर-तरीके ईजाद किये हैं। उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों-नवउपनिवेशों का दौर  बीत चुका है, संरक्षित बाजारों की जगह पूरी दुनिया साम्राज्‍यवादी पूँजी की पैठ और होड़ के लिए खुली पड़ी है। उत्‍पादक शक्तियों के विकास के स्‍तर के हिसाब से विश्‍व स्‍तर पर निचोड़े गये अधिशेष में अलग-अलग देशों की पूँजीपतियों की हिस्‍सेदारी तय हो रही है। इस संस्‍तरीकरण में सबसे नीचे तीसरी दुनिया के देशों पूँजीपति बैठे हैं। यह 'एंपायर विदाउट कालोनी' वाली दुनिया की नयी सच्‍चाई है। विश्‍व स्‍तर पर पूँजी का प्रवाह अधिकतम  सम्‍भव निर्बन्‍ध हो चला है। राष्‍ट्र-राज्‍यों की भूमिका बदल गयी है। विश्‍व बाजार में देश विशेष की पूँजी का हित साधन करने के अतिरिक्‍त राज्‍य का मुख्‍य काम श्रम को नियोजित-नियंत्रित करना हो गया है। 'फोर्डिस्‍ट असेम्‍बली लाइन' और 'टेलर सिस्‍टम मैनेजमेण्‍ट' का समय मुख्‍यत: बीत चुका है। स्‍वचालन की नयी प्रविधियों ने असेम्‍बली लाइन को विखंडित करके सिर्फ एक देश के भीतर ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में छोटे-छोटे वर्कशापों में बिखेर देना सम्भव बना दिया है। इस तरह एक 'अदृश्‍य' भूमण्‍डलीय असेम्‍बली लाइन' अस्तित्‍व में आयी है। इससे बिखरी हुई सर्वहारा आबादी की संगठित शक्ति को तोड़कर, उसका अनौपचारिकीकरण करके, उससे ज्‍यादा से ज्‍यादा अधिशेष निचोड़ना सम्‍भव हो गया है। दुनिया के अधिकांश उत्‍तर-औपनिवेशिक समाजों में, सत्‍तारूढ़ होने के बाद वहाँ के देशी बुर्ज़ुआ वर्ग का चरित्र बदला है। अब वह समेकित होकर विश्‍वपूँजीवादी तंत्र में साम्राज्‍यवादी शक्तियों का 'जूनियर पार्टनर' बन गया है। साम्राज्‍यवादी देशों से सौदेबाजी में वह तरह-तरह से उनके अन्‍तरविरोधों का लाभ उठाता है, लेकिन सम्‍पूर्णता में उसने सभी साम्राज्‍यवादी शक्तियों के कनिष्‍ठ साझीदार और मातहतों की भूमिका के वस्‍तुगत यथार्थ को स्‍वीकार कर लिया है। कमोबेश, सभी उत्‍तर-औपनिवेशिक समाजों में विगत करीब आधी सदी के दौरान विकास की क्रमिक मंथर प्रक्रिया ('प्रशियाई मार्ग') से प्राक्पूँजीवादी भूमि-सम्‍बन्‍ध मूलत: और मुख्‍यत: बदलकर पूँजीवादी हो गये हैं। पहली बार एशिया, अफ्रीका, लातिन अमेरिका के सापेक्ष्‍ात: विकसित उत्‍पादक शक्तियों वाले देश साम्राज्‍यवाद विरोधी, पूँजीवाद विरोधी -- यानी एक नये प्रकार  की समाजवादी क्रान्ति के दौर में प्रविष्‍ट हो चुके हैं।
चूँकि दुनिया भर में मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी संगठन और ग्रुप आज गतिरोध और विपर्यय के इस अभूतपूर्व दौर में बिखरे हुए हैं, अपरिपक्‍व हैं तथा विचारधारात्‍मक रूप से कमजोर और अनुभवहीन हैं, इसलिए आज की दुनिया की इन नयी सच्‍चाइयों को समझने की जगह वे कोमिण्‍टर्न से  लेकर आधी सदी पहले 1963 में चीन की पार्टी द्वारा विश्‍व सर्वहारा क्रान्ति की आम दिशा विषयक उस सूत्रीकरण पर ही अडिग हैं कि तीसरी दुनिया के सभी देश अभी भी नवउपनिवेश या अर्द्धउपनिवेश हैं और यहाँ अगर होगी तो नवजनवादी क्रान्ति ही होगी। उनके लिए दुनिया आधी सदी पहले से ठहरी खड़ी है। वे उपनिवेशों-नवउपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों की मौजूदगी को साम्राज्‍यवादी की बुनियादी अभिलाक्षणिकता मानते हैं। यह सूत्रीकरण लेनिन के बजाय साम्राज्‍यवाद-विषयक काउत्‍सकी और रोज़ा लक्‍ज़ेमबर्ग के सूत्रीकरण के निकट है।
बीसवीं शताब्‍दी की सर्वहारा क्रान्तियों की पीठ पर इतिहास के छूटे हुए कार्यभार -- राष्‍ट्रीय जनवादी क्रान्ति  को पूरा करने का अवांक्षित ऐतिहासिक कार्यभार लदा  हुआ था। यह कार्यभार पूरा करते-करते विश्‍व कम्‍युनिस्‍ट कतारों में जैसे यह जड़ धारणा घर कर गयी कि जबतक साम्राज्‍यवाद रहेगा, उपनिवेश-अर्द्धउपनिवेश या नवउपनिवेश बने ही रहेंगे ('प्रशियाई मार्ग' से क्रमिक पूँजीवादी रूपांतरण को वे समझते ही नहीं) और विश्‍व सर्वहारा क्रान्ति के 'हॉट स्‍पॉट्स' में सर्वहारा क्रान्तियों को अनिवार्यत: दो मंजिलों से (पहले राष्‍ट्रीय जनवादी क्रान्ति, फिर समाजवादी क्रान्ति) गुज़रना ही होगा।
समस्‍या यह है कि मार्क्‍सवादी विज्ञान का यदि गहन अध्‍ययन न हो तो ठोस परिस्थितियों का विश्‍लेषण कर पाने की अक्षमता के चलते व्‍यक्ति या संगठन बने-बनाये फार्मूलों को ही ध्रुवसत्‍य मानकार बने-बनाये कार्यक्रम-प्रारूप के साँचे में जिन्‍दगी की नयी सच्‍चाइयों को ठूँस-ठाँसकर फिट करने की कोशिश करते रहते हैं। यही जड़सूत्रवाद है। आज दुनिया के और हमारे देश के ज्‍यादातर कम्‍युनिस्‍ट क्रान्तिकारी 1963 में माओ की पार्टी द्वारा विश्‍व-परिस्थितियों का जो विश्‍लेषण किया, उसे ही आज की दुनिया पर लागू करना चाहते हैं और थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ 1949 की चीनी नवजनवादी क्रान्ति जैसी ही क्रान्ति करना चाहते हैं। इस जड़ समझ को लिए हुए वे प्राय: कुछ रुटीनी कार्यवाइयाँ करते रहते हैं, ग़लत वर्ग-संश्रय को लागू करने की कोशिश में (विशेषकर किसानी के सवाल पर) वस्‍तुगत तौर पर सर्वहारा हितों के विरोध में जा खड़े होते रहे हैं, या फिर, छापामार युद्ध और मुक्‍त क्षेत्र बनाने की लाइन लागू करने की कोशिश में देश के कुछ पिछड़े आदिवासी क्षेत्रों में जाकर ''वाम'' दुस्‍साहसवादी लाइन को लागू करने की कोशिश करते रहते हैं। परिस्थितियों के आकलन विषयक माओ त्‍से-तुंग  की समझ को ये सभी लोग  विचारधारात्‍मक महत्‍व का दर्जा देते हैं, जबकि महान सर्वहारा सांस्‍कृतिक क्रान्ति की शिक्षाओं के रूप में जो उनका विचारधारात्‍मक अवदान है, उसे निहायत सतही ढंग से समझते हैं।
इस जड़सूत्रवादी धारा के दूसरे ध्रुवांत पर ''मुक्‍त चिन्‍तन'' का एक ज्‍यादा ख़तरनाक भटकाव हमारे देश और पूरी दुनिया के कम्‍युनिस्‍ट क्रान्तिकारी शिविर में पैदा हुआ है। कुछ लोग समाजवादी के पराजय के वस्‍तुगत और आत्‍मगत कारणों को गम्‍भीरता से समझे बिना अतीत की क्रान्तियों की बुनियादी शिक्षाओं को ही सिरे से खारिज करके नये-नये सूत्रीकरण देने में लग गये हैं। बुनियादी तौर पर वे सर्वहारा वर्ग की पार्टी की लेनिनवादी अवधारणा और सर्वहारा अधिनायकत्‍व की लेनिन द्वारा प्रस्‍तुत तथा माओकाल तक विकसित समझ को ही निहायत सतही तरीकेसे ढीला कर रहे हैं और खारिज कर रहे हैं। अकादमिक मार्क्‍सवाद के प्रभाव में ऐसे लोग वर्ग, पार्टी और  राज्‍य के अन्‍तर्सम्‍बन्‍धों के बारे में अक्‍टूबर क्रान्ति की सारी शिक्षाओं पर लीपापोती कर रहे हैं और लेनिन के बजाय 'वर्कर्स अपोजीशन', मात्तिक, पान्‍नेकोएक आदि 'काउंसिल कम्‍युनिस्‍टों' की अवस्थिति अपना रहे हैं। निहायत हेगेलियन  ढंग से, आत्‍मगत पहलू पर अतिशय बल देते हुए इनमें से कई यह सवाल उठाते हैं कि सर्वहारा सांस्‍कृतिक क्रान्ति ने यदि समाजवादी की समस्‍याओं को हल प्रस्‍तुत किया तो फिर चीन में पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना क्‍यों हो गयी? और फिर वे उस  प्रयोग के दौरान हुई ग़लतियों-विचलनों की गणना में प्रोफेसरों के समान तल्‍लीन  हो जाते हैं। दरअसल, ऐसे लोग कुछ राजनीतिक नौदौलतिये हैं जो माओ के ''उत्‍तराधिकारी'' के स्‍थान ग्रहण करने के लिए व्‍यग्र हैं। नेपाल में प्रचण्‍ड और भट्टराई जैसे लोग हवाई अतिमौलिक ''अवदानों'' से मार्क्‍सवाद को समृद्ध करने  की कोशिश में संशोधनावादी सीवर में जा गिरे। अमेरिका के क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी  के बड़बोले नेता बॉब अवॉकिएन विश्‍व क्रान्ति का सिद्धान्‍तकार बनने के चक्‍कर में जोकर और अर्द्धविक्षिप्‍त प्रलापी की स्थिति में जा पहुँचे हैं। भारत में भी 'मार्क्‍िसस्‍ट इंटेलेक्‍शन' पत्रिका निकालने वाली एक धारा है जो बोल्‍शेविक पार्टी, सर्वहारा अधिनायकत्‍व आदि की लेनिनवादी अवधारणाओं को ठीक करने के चक्‍कर में एक ख़तरनाक विसर्जनवादी अंधी घाटी की ओर बौद्धिक स्‍कीइंग कर रही है। लंबे समय की जड़सूत्रवादी समझ और रुटीनी अमल  से थके-हारे पराजय-बोध से ग्रस्‍त कुछ कम्‍युनिस्‍ट क्रान्तिकारी ग्रुपों और व्‍यक्तियों को ये ''मुक्‍त चिन्‍तक'' सम्‍मोहित या आ‍कर्षित भी कर रहे हैं।
सारी स्थिति का समाहार करते हुए कहा जा सकता है कि असाध्‍य ढाँचागत संकट से ग्रस्‍त पूँजीवाद पृथ्‍वी पर यहाँ-वहाँ लगातातर क्रान्तिकारी परिस्थितियों को जन्‍म दे रहा है, लेकिन अपनी विचारधारात्‍मक कमजोरी और नयी वस्‍तुगत परिस्थितियाँ को नहीं समझ पाने के कारण चूँकि सर्वहारा वर्ग की हरावल शक्ति कहीं भी संगठित नहीं है, इसलिए क्रान्तिकारी परिस्थितियाँ क्रा‍न्तियों में रूपांतरित नहीं हो पा रही हैं (और आने वाले दिनों में जल्‍दी इसकी सम्‍भावना भी नहीं है)। क्रान्तिकारी वस्‍तुगत परिस्थितियों के साथ क्रान्तिकारी आत्‍मगत शक्तियाँ तैयार हों तभी क्रान्ति की सम्‍भावनाएँ उत्‍पन्‍न हो सकती हैं, लेनिन ने बार-बार इस बात पर बल दिया था और अक्‍टूबर क्रान्ति की यह बुनियादी शिक्षा है।  


अक्‍टूबर क्रान्ति से शुरू होने वाली बीसवीं शताब्‍दी की सर्वहारा क्रान्तियों की लहर 'ट्रेण्‍डसेटर' और 'पाथब्रेकिंग' क्रान्तियों की लहर थी, लेकिन यह अपने दिक्-काल की ऐतिहासिक सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकी। अक्‍टूबर क्रान्ति के बाद स्‍थापित समाजवाद  विशिष्‍ट, आपातस्थितियों में क़ायम समाजवाद था जो दो महायुद्धों, गृहयुद्ध, भुखमरी आदि को झेलकर कामयाब रहा और  समाजवाद की व्‍यावहारिकता का प्रायोगिक सत्‍यापन करने में सफल रहा। पर वह कम्‍युनिज्‍़म की ओर अग्रवर्ती संक्रमण का दिशा-संधान करने में विफल  रहा। वह पूँजीवाद पर विश्‍व ऐतिहासिक प्रहार नहीं कर सका। अक्‍टूबर क्रान्ति की उत्‍तराधिकारी सर्वहारा क्रान्तियाँ पिछड़े, किसानी समाजों की जटिल समस्‍याग्रस्‍त क्रान्तियाँ थीं जिन्‍हें पहले राष्‍ट्रीय जनवाद का कार्यभार पूरा करना पड़ा। इससे इनके रंगमंचों पर वर्ग संघर्ष जटिल हो गया। आज की दुनिया में ज्‍यादातर पिछड़े पूँजीवादी देशों में भी वस्‍तुगत तौर पर अक्‍टूबर क्रान्ति से उन्‍नत समाजवादी क्रान्ति की ज़मीन तैयार है। पूँजी और श्रम की शक्तियाँ आमने-सामने खड़ी हैं। ध्रुवीकरण तीखा होता जा रहा है। प्राक्पूँजीवादी अवशेषों की चौहद्दी सि‍कुड़ती जा रही है। अक्‍टूबर क्रान्ति और उसके बाद के समाजवादी निर्माण के अनुभवों का वैभव हमारी विरासत है। पेरिस कम्‍यून से लेकर सर्वहारा सांस्‍कृतिक क्रान्ति तक के अनुभवों की सम्‍पदा हमारी धरोहर है।   इस अनुभव सम्‍पदा का आलोचनात्‍मक अध्‍ययन करके, उसका आसवन (डिस्टिलेशन) करके श्रम और पूँजी के बीच विश्‍व-ऐतिहासिक महासमर के दूसरे चक्र के लिए ज़रूरी सबक़ हासिल करने होंगे और सामने मौजूद नयी ठोस परिस्थितियों के विश्‍लेषण के लिए अपनी दृष्टि कुशाग्र बनानी होगी।
आज के समय में पार्टी-निर्माण के काम को नये सिरे से हाथ में लेते हुए अक्‍टूबर क्रान्ति की जिस सर्वप्रमुख शिक्षा पर बल  देना होगा वह यह है कि जनवादी केन्‍द्रीयता की कार्यविधि पर काम करने वाली, इस्‍पाती साँचे-खाँचे में ढली सर्वहारा वर्ग की हरावल पार्टी की लेनिनवादी अवधारणा और मज़दूर वर्ग के संघर्षों के नेता, शिक्षक,  मार्गदर्शक की उसकी भूमिका विषयक लेनिनवादी समझ पर अडिग रहने की आज सर्वोपरि आवश्‍यकता है। जो ऐसा नहीं करता वह विसर्जनवादी के अतिरिक्‍त और कुछ भी नहीं है। साथ ही, जो भी व्‍यक्ति सर्वहारा अधिनायकत्‍व के सोवियत समाजवादी जनवाद वाले स्‍वरूप को किसी भी रूप में तनु(डाइल्‍यूट) करता है, वह बुर्ज़ुआ जनवादी विभ्रमों का शिकार निम्‍नपूँजीवादी फिलिस्‍टाइन है। ऐसे लोग सच्‍चे लेनिनवादी कतार कत्‍तई नहीं तैयार कर सकते। इक्‍कीसवीं शताब्‍दी की नयी सर्वहारा क्रान्ति अक्‍टूबर क्रान्ति के महाकाव्‍य का पुनर्मुद्रण मात्र नहीं होंगी। वे उनका संशोधित एवं परिवर्द्धित नया संस्‍करण होंगी। लेकिन आधार तो हमेशा वह मूल संस्‍करण ही होगा, जिसके बिना किसी नये संशोधित-परिवर्द्धित संस्‍करण की कल्‍पना तक नहीं की जा सकती है।

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