Sunday, November 17, 2013

साधो, ये मुरदों का गाँव ! (2)


-कविता कृष्‍णपल्‍लवी



(पूर्व प्रकाशित टिप्‍पणी में एक विश्‍लेषणपरक अंश जोड़ना बाद में ज़रूरी लगा।  उसे पोस्‍ट कर रही हूँ।-कविता)





भारतीय बुद्धिजीवियों के इस विश्‍वासघात की त्रासद गाथा पिछली लगभग आधी सदी के दौरान एक-एक सर्ग करके लिखी गयी है। इसके अंतिम सर्ग की रचना 1990 से लेकर अबतक जारी है।
दरअसल भारतीय बौद्धिक मानस की निर्मिति एक औपनिवेशिक-सामंती संरचना में हुई थी। यह न तो यूरोप की तरह 'पुनर्जागरण-प्रबोधन-जनवादी क्रान्ति' की प्रक्रिया में संघटित हुई थी, न ही इसने रूस की तरह विलंबित गति से चलती हुई बेलिंस्‍की-हर्जन-चेर्निशेव्‍स्‍की के क्रान्तिकारी जनवाद तक और पुश्किन-लर्मन्‍तोव-गोगोल-तुर्गनेव-तोल्‍स्‍तोय-चेखव के यथार्थवाद तक की यात्रा तय की थी। औपनिवेशिक संरचना के भीतर जो मरियल वैचारिक आधार और सीमित 'जनसंगऊष्‍मा' वाली राष्‍ट्रीय जनवादी चेतना विकसित हुई, यह वर्ग उसका बीसवीं शताब्‍दी में वाहक बनकर विचार, राजनीति और साहित्‍य-कला की परिधियों में सक्रिय हुआ। उस समय भी, इसकी चेतना राष्‍ट्रीय अधिक थी और जनवादी कम। उसमें अनैतिहासिक अतीतोन्‍मुखता थी, धार्मिक प्रतिछायाएँ थीं और जुझारू भौतिकवादी तर्कणा का अभाव था। हाँ, राधामोहन गो‍कुल, राहुल सांकृत्‍यायन, भगतसिंह आदि जैसे कुछ अपवाद ज़रूर गिनाये जा सकते हैं। मज़दूर आंदोलनों क उभार और अक्‍टूबर क्रान्ति के प्रभाव में बुद्धिजीवी वर्ग का जो हिस्‍सा वैज्ञानिक समाजवाद से जुड़ा, उसकी वैचारिकी की तमाम कमज़ोरियों और उनकी त्रासद परिणतियों की जड़ भी मूलत: भारतीय बौद्धिक मानस की निर्मिति की वस्‍तुगत ऐतिहासिक परिस्थितियों में ही निहित थी। स्‍वतंत्रता-प्राप्ति के बाद, राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन के बुर्ज़ुंआ नेतृत्‍व के नायकत्‍व को खण्डित होते और गौरव को पराभूत होते ज्‍यादा समय नहीं लगा। पचास और साठ के दशक में, इसी का परिणाम था कि भारतीय मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवी समुदाय का बड़ा हिस्‍सा पलायनवाद, अस्तित्‍ववाद से लेकर सर्वनिषेधवाद और अंधविद्रोहवाद तक की यात्रा करता रहा या फिर अपने मध्‍यवर्गीय जीवन के सुखों-दुखों और त्रासदियों-विडम्‍बनाओं में शुतुर्मुगी ढंग से गर्दन धँसाये रहा। तेलंगाना संघर्ष की पराजय और फिर सोवियत संघ में ख्रुश्‍चोवी संशोधनवाद के आविर्भाव के बाद, विचार और साहित्‍य-कला के क्षेत्र में वाम धारा पृष्‍ठभूमि में चली गयी थी। प्रतिक्रिया के बुर्ज से शीतयुद्ध की गोलंदाजी के दौर में, मुक्तिबोध,  अमरकान्‍त नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर, केदार, यशपाल, भैरव प्रसाद गुप्‍त, शेखर जोशी, मार्कण्‍डेय आदि-आदि साहित्‍य की दुनिया में सक्रिय तो थे, पर चर्चा के विषय नहीं थे और अलग-अलग सीमाओं में उनकी सर्जना के  अपने अन्‍तरविरोध भी थे।
1967 का नक्‍सलबाड़ी जन-उभार कई मायनों में एक नया प्रस्‍थान-बिन्‍दु बनकर सामने आया। मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवियों की एक नयी पीढ़ी 'रैडिकलाइज़' होकर वाम-प्रभाव में आयी। आगे चलकर, अपनी विचारधारात्‍मक कमज़ोरी, वाम दुस्‍साहसवादी विचलन और भारतीय समाज के सही मूल्‍यांकन के अभाव (चीनी क्रान्ति के अंधानुकरण की प्रवृत्ति) के चलते नक्‍सलबाड़ी उभार से पैदा हुई क्रान्तिकारी वामधारा भले ही बिखर गयी हो, लेकिन विचार और साहित्‍य-कला की दुनिया में प्रगतिशील-जनवादी धारा को निश्‍चय ही इसने नया संवेग प्रदान किया। एक छोटा सा दौर था जब अतिवाम के प्रभाव में साहित्‍य में यांत्रिक नारेबाजी का भटकाव ज़ोरों पर था, पर उस उबाल के शांत होते ही अच्‍छा वामपंथी साहित्‍य सामने आया। नक्‍सलबाड़ी के  बाद वाम उभार का दौर व्‍यापक था। यह केवल नक्‍सलबाड़ी धारा से घोषित प्रतिबद्धता वाले दायरे तक ही सीमित नहीं था। लेकिन 1990 का दशक भारतीय वाम की वैचारिकी और कला-साहित्‍य की दुनिया में भी 'ग्‍लास्‍नोस्‍त पेरोस्‍त्रोइका' का दौर लेकर आया। वामपंथी साहित्‍य की दुनिया में भी नवरूपवादी प्रवृत्तियों ने तेजी से प्रभाव-विस्‍तार की शुरुआत की। विचारों की कंगाली और जनजीवन से कटाव के चलते साहित्‍य साहित्‍य में पैदा हुई एकरसता और रिक्‍तता की भरमाई बारीक़ रेशमी कतान और जादुई चमत्‍कारों  से करने की प्रवृत्ति पैदा हुई।
राजनीतिक प्रभावों से भी कहीं अधिक इसके लिए वस्‍तुगत सामाजिकार्थिक परिवर्तन ज़ि‍म्‍मेदार थे। 1980 के दशक तक क्रमिक उद्विकास की प्रक्रिया से गुजरते हुए, तीसरी दुनिया की अगली कतार के अन्‍य उत्‍तर-औपनिवेशिक समाजों की ही तरह, भारतीय समाज भी पूँजीवादी विकास के एक ऐसे दौर के संतृप्ति-बिन्‍दु तक पहुँच चुका था, जहाँ आयात-प्रतिस्‍थापन औद्यो‍गीकरण (इम्‍पोर्ट-सब्‍स्‍टीट्यूशन इण्‍डस्ट्रियलाइजेशन) और राजकीय पूँजीवाद की नीतियाँ, अपनी ज़रूरी भूमिका निभाने के बाद, आगे के पूँजीवादी विकास के रास्‍ते में सापेक्षिक अवरोधक भूमिका निभाने लगी थीं। इसी की तार्किक परिणति 1990 के दशक में नवउदारवाद के दौर के रूप में सामने आयी। उदारी‍करण-निजीकरण का दौर भारतीय पूँजीपति वर्ग की (एकजुट पश्चिमी साम्राज्‍यवादी दबाव के आगे झुकने की) विवशता भी थी और अपने आन्‍तरिक दबावों से पैदा हुई ज़रूरत भी।
यूँ कहें कि बुर्ज़ुआ दायरे में राष्‍ट्रीय जनवाद के कार्यभारों का जिस हद तक और जिस रूप में पूरा होना सम्‍भव था, वह क्रमश: होते जाने के साथ ही मध्‍यवर्ग का विभेदीकरण तीखा होता चला गया, उसका एक हिस्‍सा बुर्ज़ुआ ढाँचे में व्‍यवस्थित होकर व्‍यवस्‍था का मुखर या परोक्ष पक्षधर होता चला गया और पूँजी  के सामाजिक आधार के विस्‍तार के साथ ही यह हिस्‍सा समानुपातिक रूप से बड़ा भी होता चला गया। 1980 के दशक तक प्रोफेसर, पत्रकार, वकील, डॉक्‍टर, इंजीनियर, नौकरशाह और वित्‍तीय क्षेत्र, सेवा क्षेत्र एवं निजी क्षेत्र से जुड़े पेशेवरों की संख्‍या और खुशहाली में भी भारी बढ़ोत्‍तरी हुई थी। वामपंथी बुद्धिजीवियों को ही लें तो उनमें से अधिकांश का जीवन-स्तर काफी ऊँचा हो गया था, जबकि मज़दूरों के जीवन स्‍तर में कोई बदलाव नहीं आया था। वाम राजनीति के कमज़ोर और अनुष्‍ठानिक होते जाने से इन बुद्धिजीवियों की सामाजिक-राजनीतिक भागीदारी भी कम हुई थी, इनके जीवन में कुर्बानी और अनुशासन का पहलू भी क्षरित हुआ था और कैरियरवाद तथा भौतिक तरक्‍क़ी की ख्‍़वाहिशों के चलते अवसरवादी घटियापन भी बढ़ता चला गया था।
दरअसल बुर्ज़ुआ राष्‍ट्रीय जनवादी कार्यभारों के मूलत: और मुख्‍यत: पूरा होने के बाद, भारतीय मध्‍यवर्ग के लिए राष्‍ट्रवाद की अब सकारात्‍मक प्रासंगिकता नहीं रह गयी थी (1990 का दशक आते-आते उसका बड़ा हिस्‍सा राष्‍ट्रवाद के नाम पर या तो अंधराष्‍ट्रवाद का अनुयायी हो चुका था या ''स्‍वदेशी'' टाइप पुनरुत्‍थानवाद का या फिर फासिस्‍ट हिन्‍दुत्‍ववादी ''राष्‍ट्रवाद'' का)। जहाँ तक जनवाद का सवाल था, खाते-पीते मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवियों को आम मेहनतक़श आबादी की अपेक्षा वह काफी हासिल था और वह उतने से संतुष्‍ट था। मुख्‍य सामाजिक अन्‍तरविरोध अब पूँजी और श्रम के बीच था, और अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के अनुरूप, शहरी (ज्‍यादातर महानगरीय) मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवी समुदाय का बहुलांश पूँजी के पाले में खड़ा हो गया था, यथास्थिति के पक्ष में खड़ा हो चुका था। ऊपर वर्णित राजनीतिक परिदृश्‍य के आत्‍मगत प्रभाव के अतिरिक्‍त इस वस्‍तुगत यथार्थ का भी यह नतीज़ा था कि वामपंथी दायरे में भी साहित्यिक सर्जना के स्‍तर पर नवरूपवाद और जीवन के स्‍तर पर घटिया अवसरवाद का घटाटोप छा गया।

नवउदारवाद के गुज़रे तेईस वर्षों में अकादमिक जगत, मीडिया, तकनी‍की क्षेत्र, प्रबंधन और वित्‍तीय क्षेत्र में कार्यरत खुशहाल मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवियों की सामाजिक परत का काफी विस्‍तार हुआ है। आप वामपंथी बुद्धिजीवियों-साहित्‍यकारों को ही लें। ज्‍़यादातर प्रोफेसर, नौकरशाह, मीडियाकर्मी और अच्‍छी आय वाले स्‍वतंत्र पेशेवर हैं। ये वामपंथी साहित्‍य रचते हैं, जनवादी अधिकार पर धरना-प्रदर्शन के अनुष्‍ठान भी करते हैं, पर ज़ि‍न्‍दगी पर कोई जोखि़म तो दूर, अपनी सुविधाओं की कटौती का रंचमात्र ख़तरा भी मोल लेने तक के लिए तैयार नहीं हैं। ये सभी बौद्धिक बनारसी गलियों के छुट्टे आवारा साँड़ हैं। इनकी ज़ि‍न्‍दगी ही ऐसी है कि इन्‍हें बौद्धिक धुरीविहीन आवारगी और सामाजिक सरोकार विहीन शब्‍द-चातुरी के उत्‍तरआधुनिक विचार (सबआल्‍टर्न इतिहासदृष्टि, आइडेण्टिटी पॉलिटिक्‍स, उत्‍तर-मार्क्‍सवादी नारीवाद आदि-आदि भी इसी प्रवर्ग में आ जाते हैं) बहुत रास आते हैं। क्रान्तियों के ''महाख्‍यानों'' को ख़ारिज करते हुए और विखण्डित सामाजिक आन्‍दोलनों तथा क्षुद्र विमर्शों का ''जश्‍न'' मनाते हुए ये सभी लोग  पूँजीवाद के विचारधारात्‍मक मोर्चे के सेनानी की भूमिका निभाने के साथ ही पूँजीवादी तंत्र के सामाजिक अवलम्‍ब के रूप में अपनी भूमिका को भी 'जस्टिफाई' कर रहे होते हैं और अपनी ज़ि‍न्‍दगी की बर्बर जनविमुख खुशहाली को भी। इनमें सबसे घृणित और शातिर जमात उनकी है, जो सृजनकर्म में वाम के साथ उत्‍तरआधुनिक नवरूपवाद का समागम कराते हैं तथा जीवन में सत्‍ता-प्रतिष्‍ठानों में घुसकर चौधरियों की भूमिका निभाते हैं या पद-पीठ-पुरस्‍कारों की मलाई चाटते हैं। ये आपस में भी कभी साँप-नेवले की तरह घात लगाते हैं तो कभी कुत्‍तों की तरह लड़ते हैं, पर यदि आप कहीं से इनकी चादर उघाड़ने का काम करेंगे तो ये सभी एकजुट होकर आपके विरुद्ध खुले युद्ध, शीतयुद्ध या तरह-तरह की षड्यंत्रकारी दुरभिसंधियों में लिप्‍त हो जायेंगे। कुछ ऐसे भी हैं, जो साहित्‍य में घुस पाने की छोटी-सी चाहत, नासमझी या भोलेपन के कारण अनजाने ही इन षड्यंत्रकारी दुष्‍चक्रों के हिस्‍सा बन जाते हैं। 'जलसा' (सं. - असद ज़ैदी) के पहले अंक में प्रकाशित अपनी डायरी के अंश 'कल जो हमने बातें की थीं' में मनमोहन ने एक बहुत ही सटीक बात लिखी है : ''किसी भी कुटिल परियोजना को सफल बनाने में बहुत से प्रतिभाशाली, शरीफ़, भले और भोले लोगों का योगदान रहता है।'' स्थिति सचमुच ही बहुत चिन्‍तापूर्ण है, और चुनौतीपूर्ण है, और चिन्‍तन योग्‍य भी। 

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