एक बहस जो न जाने कहाँ-कहाँ से ग़ुज़र गयी
समाजवाद की समस्याओं और उसकी विफलता के कारणों पर बहस का जो हिस्सा है, उसे अभी 'जारी' या 'असमाप्त' माना जाना चाहिए। हमारी जो अवस्थिति है, उसे मैंने संक्षेप में रख दिया है। बेहतर होता, यदि यह बहस आगे बढ़ती और इसमें दिलचस्पी और पैठ रखने वाले अन्य साहित्यकार-बुद्धिजीवी साथी भी हिस्सा लेते।
यह पूरी बहस, सुगमता से, एक साथ पढ़ी जा सके और आगे भी जारी रखी जा सके, इसके लिए यहाँ ब्लॉग पर पोस्ट कर रही हूँ। यदि कोई पत्रिका इसे छापकर इस बहस को आगे बढ़ाये और इसके दायरे को भी व्यापक बनाये, तो यह मेरे लिए खुशी की बात होगी।-कविता कृष्णपल्लवी)
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उदय प्रकाश(8नवम्बर)
आज १९१७ में हुए सोवियत क्रांति की एक और वर्षगांठ है. जूलियन कैलेंडर के अनुसार २५ अक्टूबर और आजकल दुनियाभर में प्रचलित ग्रेगोरियन कैलेंडर के मुताबिक, ठीक आज के ही दिन, ७ नवंबर को यह समाजवादी क्रांति घटित हुई थी, जिसने दुनिया को बदल डाला था. एक समय ऐसा भी था, जब इस धरती के लगभग ७० प्रतिशत हिस्से में समाजवाद का प्रभाव था. हमारे देश पर भी इसका गहरा असर था. 'हिंदी-पट्टी' पर भी एक समय ऐसा लग रहा था कि सामाजिक समता और न्याय तथा वर्गाधारित शोषण से मुक्त समाज-व्यवस्था के जन्म की संभावना बहुत करीब है.
इस क्रांति ने बीसवीं सदी के उत्पीड़ित तबकों को मुक्ति के नये सपने सौंपे. लेकिन देखते ही देखते इन स्वप्नों को समाज की छुपी हुई क्षुद्र शक्ति-संरचनाओं ने अगुवा कर लिया और कार्ल-मार्क्स तथा लेनिन की वह विचारधारा, वह दार्शनिक सैद्धांतिकी, जो दुनिया को समझने के लिए ही नहीं, बल्कि उसे मानवता के पक्ष में बदल डालने के लिए कारगर हो सकती थी, उसे ठगी, निहित स्वार्थ, भ्रष्टाचार और झांसे का औज़ार बना लिया.
वह 'ईश्वर' जो संसार की वंचित-उत्पीड़ित मनुष्यता को मुक्त करने के लिए अस्तित्व में आया था, वह 'असफल' हो गया.
हम लोग जब युवा थे और जब १९५० के दशकों में आई विवादास्पद लेकिन बहुचर्चित किताब, जिसका संपादन ब्रिटेन के एक सांसद रिचर्ड क्रासमैन ने किया था और जिसमें एक समय इस सोवियत बोल्शेविक क्रांति के समर्थक रह चुके कई महत्वपूर्ण लेखकों के निबंधों की किताब -'गाड दैट फेल्ड' हम सबने ६०-७० के दशक में पढी थी, तब हम इस पर विश्वास नहीं करते थे. हमारे जैसे युवा इसे पूंजीवादी-साम्राज्यवादी ताकतों के द्वारा संचालित-निर्देशित एक साजिशाना हमला मानते थे. इस पुस्तक के लेखकों-साहित्यकारों- आंद्रे जीद, आर्थर कोएसलर, स्टीफेन स्पेंडर या अश्वेत समाजचिंतक रिचर्ड राइट जैसा हमारा 'मोहभंग' इस सोवियत क्रांति से नहीं हुआ था.
लेकिन इसी पुस्तक में उन लुई फ़िशर का भी निबंध था, जिन्होंने बाद में महात्मा गांधी की विश्वविख्यात जीवनी लिखी, जिस पर आटेनबरो की सुप्रसिद्ध, आस्कर अवार्ड विजेता फ़िल्म 'गांधी' बनी.
हमारे कई पुराने साथी, जो अब हमसे छूट चुके हैं, आज भी इस १९१७ की सोवियत क्रांति की स्मृति में जगह-जगह आयोजन कर रहे हैं और प्रख्यात अमेरिकी पत्रकार जान रीड की बहुचर्चित किताब पर आधारित फ़िल्म 'दस दिन जब दुनिया हिल उठी' को अपने आयोजनों में प्रदर्शित करते हुए उस महान क्रांति की सफलता-असफलता पर विचार-विमर्श कर रहे हैं. विडंबना यही है कि वे हमारे समाज की वास्तविक अंतर्संरचना की उन बनावटों (formations) के ही प्रतिनिधि हैं, जिन्होंने इस महान विचारधारा का अपहरण करके उसे असफल और दमनकारी राजनीति का ही एक अंग बना डाला है. जैसा ज़ाइज़ेक ने कहा था - आज हमारे समय का लेफ़्ट बीसवीं सदी के पूर्वार्ध का वह लेफ़्ट नहीं है, जो सर्वहारा, मज़दूर-किसान और शोषित-वंचित वर्गों की विश्वदृष्टि से संपन्न था, बल्कि अब यह नयी ग्लोबल अर्थप्रणाली से लाभान्वित 'नव-धनाढ्य' (नियो-रिच) वर्ग है. यह हर हर तरह के श्रम को नीची निगाह से देखता है. भाषा से लेकर खलिहान, खदान, खेत में पसीना बहाते और हर रोज़ उत्पीड़न-दमन का शिकार होते निचली जातियों और हाशिये की विजातीय अस्मिताओं के प्रति उसके मन में सिर्फ़ और सिर्फ़ द्वेष और घृणा है. हम सबने इस नफ़रत और अन्याय को अपने-अपने जीवन में भोगा है.
'दस दिन जब दुनिया हिल उठी' में १९१७ की सोवियत समाजवादी क्रांति में ट्राट्स्की की ऐतिहासिक भूमिका को जान रीड ने बहुत महत्व दिया था. वही ट्राट्स्की, जिनकी हत्या स्टालिन के समर्थकों ने कर दी थी, उनका कहा आज एक बार फिर याद आता है -
“The party that leans upon the workers but serves the bourgeoisie, in the period of the greatest sharpening of the class struggle, cannot but sense the smells wafted from the waiting grave.”
लेकिन सच यह भी है कि मार्क्सवाद आज के समय में और अधिक प्रासंगिक और अनिवार्य हो चुका है. बस शर्त यही है कि इसे आर्थिक-सामाजिक और सांस्कृतिक सोपानों में सबसे ऊंची जगहों पर बैठे ताकतवरों से विभक्त करते हुए, अलग से इसे इसे अपनाया जाय.
(आज ही मैंने संयोग से हिंदी के सवर्ण-संगठित कवियों-लेखकों के एक ऐसे ब्लाग को देखा, जिनके भीतर हम सबके प्रति इतनी नफ़रत भरी हुई थी कि वे सब गाली-गलौज़ के अलावा उन सब पर 'थूकने' की बात कर रहे थे, जो उनसे सहमत नहीं हैं और जो उनके गिरोहों में नहीं हैं. दुर्भाग्य है कि वे सब वही 'हिंदी-हिंदू वामपंथी' हैं, जिनकी इस दिल्ली शहर में ही नहीं, दूसरे राज्यों की राजधानियों के संस्थानों पर कब्जा है. इन जैसे घटिया तत्वों ने ही उस 'ईश्वर' को 'असफल' किया है, जो एक समय सामाजिक मुक्ति के लिए आया था.)
कविता कृष्णपल्लवी (8नवम्बर)
अक्टू्बर क्रान्ति के बारे में उदय प्रकाश के दिल में अभी भी कुछ भावनाएँ बची हैं, जानकर अच्छा लगा। पर फिर उनका मोहभंग हो गया और इस क़दर हो गया कि वे न केवल एक ओर उत्तरआधुनिकतावाद, 'सबआल्टंर्न स्कूल ऑफ़ हिस्ट्री ' और 'आइडेंटिटी पॉलिटिक्स' के अनुगामी हो गए, बल्कि दूसरी ओर उग्र हिंदुत्ववादी योगी आदित्य नाथ के साथ मंचासीन होकर पुरस्कार भी लेने लग गए।
उदयप्रकाश के मोहभंग का मूल कारण यह रहा कि समाजवाद उनके लिए मानवमुक्ति का सवेरा लाने वाला ''ईश्वर'' था। (पुराने ईश्वर के बरक्स एक नए ''ईश्वर'' के निर्माण के लिए लेनिन ने गोर्की और लुनाचार्स्की की काफ़ी आलोचना की थी)। ''ईश्वर'' को विफल तो होना ही होता है। ''ईश्वर'' की मृत्यु तो होनी ही होती है।
समाजवाद पूँजीवाद की हर समस्या का कोई अंतिम समाधान था ही नहीं। समाजवाद एक लंबा संक्रमण काल था, जिसमें पूँजीवादी रास्ते और कम्युनिज़्म की ओर भविष्योन्मुख रास्ते के बीच का संघर्ष लंबे समय तक जारी रहना था और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के ख़तरे भी मौजूद रहने थे। उदयप्रकाश काफ़ी पढ़ते हैं, समाजवादी संक्रमण की समस्याओं के बारे में मार्क्स ('गोथा कार्यक्रम की आलोचना'), लेनिन (1918-1922 के बीच के लेख), स्तालिन ('सोवियत संघ में समाजवाद की आर्थिक समस्याएँ') और माओ (1959 के बाद की रचनाएँ) वे पढ़ लेते तो बेहतर होता। और भी अच्छा होता यदि वे समाजवादी संक्रमण के बारे में बेतेलहाइम-स्वीज़ी बहस, रेमंड लोट्टा-अल्बर्ट-श्ज़िमांस्की बहस तथा मार्टिन निकोलस, विलियम हिंटन, रॉबर्ट वील, मार्टिन हार्टलैंड्सबर्ग आदि की रचनाओं से परिचित होते। स्तालिन और त्रॉत्स्की के बारे में राय बनाने से पहले लूडो मार्टेन्स, कोस्तास मावराकिस आदि की कृतियों और ग्रोवर फ़र की वेबसाइट से भी वाकिफ़ हो लेते तो अच्छा होता।
समाजवाद की पूरी अवधि सघन वर्ग संघर्ष की अवधि थी। पाँच स्रोतों से पूँजीवादी पुनर्स्थापना के ख़तरों की चर्चा लेनिन ने ही की थी। विश्व सर्वहारा क्रान्ति के प्रथम चक्र की पराजय मायूसी पैदा करने के बावजूद इतिहास की गति थी। समाजवादी प्रयोगों के पहले संस्करणों में यदि कुछ ग़लतियाँ हुईं, उनमें यदि कुछ अनगढ़पन था और अंतत: वे पराजित हो गईं तो ऐतिहासिक पश्चदृष्टि से देखने पर कुछ अजूबा नही लगता। प्रकृति विज्ञान में भी ऐसा होता रहा है। प्रारंभिक प्रयोगों की पराजय क्रान्ति के विज्ञान की पराजय नहीं होती। आज के विश्व पूँजीवाद और उसके संकटों को समझने और एक वैकल्पिक ढाँचे द्वारा उसे विस्थापित करने की वैज्ञानिक दृष्टि आज भी मार्क्सवाद ही बताता है।
बेशक हम बीसवीं शताब्दी की सर्वहारा क्रान्तियों की रणनीति की कार्बन कॉपी नहीं कर सकते क्योंकि विश्व पूँजीवाद की उत्पादन एवं विनिमय की प्रणाली तथा सत्ता तंत्र और बौद्धिक वर्चस्व की प्रणाली में काफ़ी अंतर आये हैं। हमें अपने समय और समाज को समझना होगा। जड़सूत्रवाद हमें जड़वामन बना देता है। दुनिया के सामने और भारत के सामने दो ही मार्ग हैं - समाजवाद या फ़ासीवादी बर्बरता। समाजवाद से मायूस होकर यदि कोई फ़ासीवादी बर्बरता का शरणागत हो जाये, तो इसका मतलब यह है कि वह वैज्ञानिक समाजवादी कभी था ही नहीं।
उदयप्रकाश की समस्या यह है कि वह जब मार्क्सवादी थे, तब भी सीपीआई ब्रांड मार्क्सवादी थे जो गोर्बाचोव के ग्लासनोस्त-पेरेस्त्रोइका काल तक सोवियत संघ को समाजवादी मानते थे। पता नहीं उन्होंने सोवियत और चीनी पार्टियों के बीच 1963-64 के बीच चली बहस और मार्टिन निकोलस ('कैपिटलिस्ट रेस्टोरेशन इन यूएसएसआर') भी पढ़ी थी या नहीं। समाजवाद की पराजय तो सोवियत संघ में वस्तुत: 1956 में ही हो चुकी थी, उसके बाद जो था वह ''समाजवाद'' नामधारी पूँजीवाद था, जैसे चीन में 1976 के बाद से ''बाज़ार समाजवाद'' नामधारी मिश्रित पूँजीवादी अर्थव्यवस्था है।
उदयप्रकाश की समस्या यह है कि वे भारतीय कम्युनिस्टों के ''चाल-चेहरा-चरित्र'' से मार्क्सवादी विज्ञान को तौलते हैं जो वस्तुत: कम्युनिस्ट हैं ही नहीं। भाकपा-माकपा से अलग जो क्रान्तिकारी वाम धारा पैदा हुई थी, वह भी ''वाम'' दुस्साहसवाद के दुश्चक्र में फँसकर और चीनी क्रान्ति के कार्यक्रम के अन्धानुकरण के जड़मति दुराग्रह के कारण बिखर चुकी है।
दरअसल यह विपर्यय और बिखराव विश्वव्यापी है, पर यह सर्वहारा संघर्षों का अंत नहीं है, दुनिया का अंत नहीं है, इतिहास का अंत नहीं है, मार्क्सवाद का अंत नहीं है। सामंतवाद पर निर्णायक जीत हासिल करने में पूँजीवाद को भी शताब्दियाँ लगी थीं। अक्टूबर क्रान्ति जो प्रथम सर्वहारा क्रान्ति थी, उसे अभी मात्र 96 वर्ष बीते हैं।
जब तक पूँजीवाद है, सर्वहारा क्रान्ति की ज़रूरत बनी रहेगी। आज पूँजीवाद असाध्य ढाँचागत संकट और आत्मिक रिक्तता-रुग्णता से ग्रस्त है। दूसरी ओर, मेहनतकश जनता को मुक्ति की ज़रूरत है और मुक्ति का विज्ञान भी जीवित है। यह विज्ञान फिर मुक्ति के आकांक्षी, विद्रोह को उद्यत जनसमुदाय तक नवसंगठित हिरावलों के ज़रिए पहुँचेगा और इसी शताब्दी में अक्टूबर क्रान्ति के नए परिष्कृत स्मारकीय संस्करण अस्तित्व में आएंगे (भले ही इस बात को उदयप्रकाश अति-आशावाद और नियतत्ववाद कहकर खारिज कर दें।
उदय प्रकाश
आपकी टिप्पणी पढ़ गया. अभी-अभी. इसका उत्तर यों है : (१) कोई भी ऐसा व्यक्ति, जो अपने भाई, बेटे, पिता, पत्नी या निकट के मित्रे की मृत्यु पर कोई 'पुरस्कार' लेता है, तो उससे अधिक 'अमानवीय' और निकृष्ट कोई हो नहीं सकता. लेकिन यदि ऐसा नहीं है, फिर भी कोई तबका या 'संप्रदाय- जाति' इस असत्य का प्रचार बार-बार करती है, तो वह फ़ाशिसट इसलिए है क्योंकि हिटलर के नाज़ीवादी प्रचारक गोयेबेल्स का मानना था कि अगर किसी 'झूठ' को बार-बार, हज़ार बार दुहराया जाय तो वह 'सच' बन जाता है. मेरी एक कविता की पंक्ति है -'जो यथार्थ को व्यक्त करता है, वह मार दिया जाता है, अफ़वाहों से ..!' (२) 'ईश्वर की मृत्यु' की अवधारणा की दार्शनिक प्रतिपत्ति जिस व्यक्ति ने की थी, उसका नाम था फ़्रेडेरिक नीत्शे. क्या यह कोई नहीं जानता कि नीत्शे ही फ़्यूहरर का 'मेंटर' या पथ-प्रदर्शक' था. क्या यह सिद्ध नहीं होता कि आप उसी नीत्शे के अनुयायी हैं? (३) 'समाजवाद' (यहां मैं 'साम्यवाद' पद का प्रयोग करना चाहूंगा) क्या उसी औद्योगिक सभ्यता का उत्पाद नहीं था, जिसका 'पूंजीवाद ' और 'साम्राज्यवाद' था ? क्या इन दोनों की, मानवीय संदर्भों में, कोई सीमाएं नहीं थीं ? क्या इनमें से एक 'संक्रमणशील' और दूसरा ' आब्सोल्यूट' था ? (४) आपने बार-बार 'वैज्ञानिक' का प्रयोग किया है, क्या यह वही 'साइंटिफ़िक डिटरमिनिज़्म' नहीम है, जिसका विरोध स्वयं लेनिन ने 'क्रिटिसिज़्म इंपीरियोक्रिटिसिज़्म' मेम किया था ? मैं अगर यह कहूं कि क्रांति पूर्व-निर्धारित 'वैज्ञानिक-नियमों' के तहत नहीं बल्कि स्वाभाविक मानवीय 'चेतना' से संभव होती हैं, तो क्या आप मुझे 'भाववादी' (हेगेलियन) कहेंगे ? अगर ऐसा आपने कहा तो मैं आपको 'अमानुषिक फ़ायरबाखियन' कहूंगा. यानी घोर निर्दयी हिंसक संवेदनहीन 'पदार्थवादी'. (५) 'क्रांति' या मनुष्य की आज़ादी के स्वप्न अभी भी 'पराजित' नहीं हुए हैं, जैसा आप सोचते हैं, बल्कि अब वे उन सूक्ष्म-संरचनाओं को भी पहचानने की अंतरदृष्टि हासिल कर रहे हैं, जो निरंतर बुद्ध और अंबेडकर के समय से लेकर आज तक उन परिवर्तनों को रोकने की कोशिश कर रहे हैं. (६) अगर आपने रूसी साहित्य के महान उपन्यासकार मिखाइल बुल्गाकोव के दो उपन्यास पढ़े हों -'मास्टर एंड मार्ग्रीता' और 'हार्ट आफ़ अ डाग', या यदि चीनी भाषा के महान साहित्यकार लुशुन की 'स्टोरीज़ आफ़ आह क्यु' पढ़ रखी हो तो आप जानेंगे कि 'क्रांतियां' हमेशा 'लूट' ली जाती हैं और 'व्यवस्था मेम उन्हीं का प्रभुत्व बना रहता है, जो पहले भी शासक थे. स्व्यं भीष्म साहनी का उपन्यास 'तमस' पढ़ कर देखें, जो सांप्रदायिक दंगा और जन-संहार को पैदा करते हैं, अंत में वही 'शांति और सदभावना' के जुलूस में सबसे आगे होते हैं. (७) आपकी 'नेमड्रापिंग' पर मुझे बेसाख्ता हंसी आयी. मैं यह 'काम' इतना अधिक कर सकता हूं कि फेसबुक के दोस्त चमत्कृत हो उठेंगे. लेकिन एक कनफ़ेशन आप यह करें, (कृपया सच बोलें) कि आपकी 'जातिगत' पहचान क्या है ? क्या आप भी ब्राह्मणवादी सवर्ण हिंदू हैं. (क्या ब्राह्मण-ठाकुर-बनिया हैं?) यह प्रश्न इसलिए मैं पूछ रहा हूं कि हमारे देश में जो 'आइडियोलाजी' सचमुच कार्यशील है, वह है -जातिवाद, सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार ! (इसका उत्तर अवश्य दें)
फिर आपके तर्कों की एक सीमा यह भी है कि आपने निरंतर 'साहित्य' या 'सृजनात्मक' प्रयासों को गौण या 'अ-प्राथमिक' मान लिया है. क्या आपने मार्क्स की -'एटींथ ब्रुमेर आफ़ लुई बोनापार्ट' पढ़ रखी है ? मार्क्स सिर्फ़ एक दार्शनिक, अर्थशास्त्री या समाज-वैज्ञानिक ही नहीं था. वह 'व्यंजना' और 'विद्रूप-विडंबना' की भाषिक क्षमता या सामर्थ्य को जानने वाल एक लेखक भी था. वह चाहता तो एक 'साहित्यकार' बन कर अपना जीवन बिता सकता था. मीना काउत्स्की को लिखा गया उसका उसका पत्र आपने ज़रूर पढ़ रखा होगा. अगर नहीं तो कृपया एक बार अवश्य पढ़िये. इस पत्र मेम उसने काउत्स्की को सलाह दी थी कि यदि अपने समय-समाज और यथार्थ को जानना हो तो समाज-शस्त्रियों को नहीम, बाल्ज़ाक के उपन्यासों को पढ़ो. यह पत्र उपलब्ध है. लेनिन ने भी जड़ कम्युनिस्ट 'साहित्यिक आलोचक' जदानोव का विरोध किया था, जिसने ताल्सताय को सामंतवादी और क्रिष्चियन होने का आरोप लगा कर उसे रूसी साहित्य से बाहर कर देने की वकालत की थी. लेनिन ने उसी ताल्सताय को, जो महात्मा गांधी के भी 'गुरु' थे और उन्हीं के नाम पर दक्षिण अफ़्रीका में उन्होंने अपना 'आश्रम (ताल्सताय आश्रम) बनाया था, को सोवियत समाज का दर्पण घोषित किया था. आप जैसे कठमुल्ले किसी काम के नहीं हैं. न समाज के, न वंचितों के मुक्ति के, न साहित्य के. (उम्मीद है आप नाराज़ नहीं होंगे) (ज़ारी ...)
कविता कृष्णपल्लवी
उदय प्रकाश जी, आपकी आख़िरी टिप्पणी के अंत में (जारी) लिखा है, पूरी होने का इंतज़ार है....
उदय प्रकाश
कविता कृष्णपल्लवी जी ... टिप्पणी तो 'ज़ारी' रहेगी, लेकिन आप पहले मेरे पहले प्रश्न पर अपनी भूमिका साफ़ करें. आपने मुझ पर मेरे भाई की मृत्यु के शोक के अवसर पर 'पुरस्कार' लेने का आरोप लगाया है. यह एक दुखद और कुत्सित आरोप है. इसकी सत्यता प्रमाणित करने के लिए तथ्य दें. मार्क्सवाद एक वैज्ञानिक दर्शन है. वस्तुपरक और तथ्यात्मक. 'झूठ' और 'अफ़वाह' का प्रचार फ़ाशीवाद की एक जानी-पहचानी निशानी है, जो वे अपने से अलग, अन्य, जाति, नस्ल, धर्म के लोगों के बारे में फैलाते हैं और इस तरह उनके विरुद्ध घृणा, संदेह, अविश्वास का वातावरण तैय्यार करते हैं. मेरे निरंतर चुप रहने और सब कुछ सहते रहने के बावज़ूद यह दुष्प्रचार एक उच्च सवर्ण जाति के गुट द्वारा अब तक ज़ारी है. वर्चुअल और प्रिंट, दोनों माध्यमों में. (मौखिक तौर पर यह कितना होगा, इसका अदाज़ा लगाया जा सकता है) मेरा विनम्र आग्रह है कि इस 'पुरस्कार' के बारे में तथ्य प्रस्तुत करें अन्यथा सार्वजनिक रूप से अपनी गलती स्वीकार करें. इस तरह का आरोप मैं ही नहीं कोई भी नहीं सह सकता. मैं आपसे फिर पूछता हूं कि क्या आप अपनी मां, पिता, भाई, पत्नी, पुत्र-पुत्री की मृत्यु के अवसर पर जा कर कोई 'पुरस्कार' लेना चाहेंगे ? उत्तर दें. मैं प्रतीक्षारत हूं.
कविता कृष्णपल्लवी
उदय प्रकाश जी, वैचारिक बहस को आगे बढ़ाने के पहले, आपने यह शर्त लगाई है कि उग्र हिन्दुत्ववादी फासिस्ट योगी आदित्यनाथ के साथ मंचासीन होकर पुरस्कृत होने के बारे में मैं तथ्य प्रस्तुत करूँ। गोरखपुर शहर से मेरा भी रिश्ता रहा है। सही है कि आप अपने रिश्ते के भाई की स्मृति सभा में गये थे। वहाँ योगी आदित्यनाथ के हाथों आपने पहला 'कुँवर नरेन्द्र प्रताप सिंह स्मृति सम्मान' लिया था, जिसकी तस्वीर सहित ख़बरें गोरखपुर के अख़बारों में छपी थीं। योगी के हाथों सम्मानित होते आपकी एक तस्वीर 25जुलाई 2009 को एक ब्लॉग iharmonium.blogspot.in पर भी टिप्पणी सहित आई थी। पुन: धीरेश सैनी के ब्लॉग ek-ziddi-dhun.blogspot.com.in पर 15 जुलाई को आपकी इस करनी के ख़िलाफ़ हिन्दी के अग्रणी लेखकों-कवियों का एक विरोध पत्र प्रकाशित हुआ था। इसी ब्लॉग पर 20 जुलाई, 2009 को 'उदय प्रकाश प्रकरण : भ्रष्ट आचरण को ट्रेण्ड बनाने की कोशिश' शीर्षक टिप्पणी प्रकाशित हुई थी। पुन: इसी ब्लॉग पर प्रणय कृष्ण के प्रकाशित आलेख 'साहित्य, सत्ता और सम्मान (30अगस्त,2009) में आपके पुरस्कार प्रसंग की चर्चा है। अब 'समयांतर' नवम्बर 2013 के अंक में प्रकाशित एक टिप्पणी ('शारीरिक बनाम मानसिक रुग्णता') में विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के अध्यक्ष रहते, आपकी एक कहानी को उपन्यास बताकर साहित्य अकादमी पुरस्कार दिये जाने को अबतक का सबसे भ्रष्ट पुरस्कार बताया गया है और यह भी कहा गया है कि इसके लिए फासिस्ट नेता योगी आदित्यनाथ के दबाव का इस्तेमाल किया गया है। इस तथ्य की प्रामाणिकता अभी मुझे ज्ञात नहीं ( यह 'समयांतर' सम्पादक बतायेंगे), लेकिन गोरखपुर के अखबारों में छपी सारी ख़बरें और तस्वीरें भला ग़लत कैसे हो सकती हैं?
बहस के वैचारिक प्रश्नों पर आप स्वस्थ मन से वापस लौट सकें, इसके लिए 'बेतुका' और 'अतार्किक' मानते हुए भी मेरी जाति से सम्बन्धित आपके प्रश्न का उत्तर दे दूँ (क्योंकि यह उत्तर आपको अवश्य चाहिए)। मैं एक ऐसी जाति के परिवार में जन्मी हूँ, जिसे कुछ लोग सवर्ण तो कुछ शूद्र मानते हैं। पर मेरे लिए जाति का, सिद्धांतत: ही नहीं, बल्कि व्यवहारत: भी कभी कोई मतलब नहीं रहा। जाति के समूल नाश का प्रोजेक्ट मेरी राजनीति का बुनियादी अंग है। हमारे साथियों के दायरे में दलित, मुसलमान, ईसाई सभी पृष्ठभूमि के लोग हैं। हमलोग शादी-ब्याह के मामलों में भी जाति-धर्म-राष्ट्रीयता को पैमाना नहीं बनाते, न ही धार्मिक कर्मकाण्डों में हिस्सा लेते हैं। हम जातिवाद और साम्प्रदायिकता की राजनीति ही नहीं, सामाजिक व्यवहार का भी विरोध करते हैं। सामाजिक कार्यों के दौरान दलित और मुसलमान मज़दूरों के साथ हमारा रहना, उठना-बैठना सामान्य बात है। यह सारी सफाई मैंने आपकी तसल्ली के लिए दे दी है (ताकि विमर्श आगे बढ़े), अन्यथा मुझे नहीं लगता कि वैचारिक बहस में इस तथ्य की कोई भूमिका होनी चाहिए कि बहसकर्ता किस जाति का है! फिर तो यह भी कहा जा सकता है कि ठाकुर जाति के उदय प्रकाश दलितों के पक्षधर भला कैसे हो सकते हैं या यह भी कहा जा सकता है कि योगी आदित्यनाथ के साथ जाति के आधार पर भी उनकी एकता बनती है। लेकिन मैं ऐसा कत्तई नहीं कहूँगी । मेरा विचार है कि चीज़ों का फैसला जाति विशेष में पैदा होने से नहीं बल्कि विचारों से और व्यक्तिगत सामाजिक आचार से होना चाहिए।
उदय प्रकाश
कविता कृष्णपल्लवी जी... अब आपने 'पुरस्कार' का आरोप छोड़ दिया और 'स्मृति सम्मान' की बात करने लगीं/ लगे. कृपया ध्यान दें कि जो बहस एक बड़ी विचारधारा की असफ़लताओं पर केंद्रित हो सकती थी, उसे आपने ही 'योगी आदित्यनाथ' ..'पुरस्कार' आदि के साथ जोड़ कर नितांत 'व्यक्तिगत' लांछन पर तब्दील किया. इसी के संदर्भ में मैंने आपसे तथ्य और प्रमाण मांगे थे. ..हा ...हा...! और इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि आपने इसके लिए वही 'संदर्भ' (रिफ़ेरेन्स) दिये, जिनकी ओर मैंने अपनी मूल पोस्ट के आखीर में, कोष्टक के भीतर संकेत किया था. क्या आपको स्मरण है कि यह आरोप स्वयं आपका था और निहायत जजमेंटल था.( वे न केवल एक ओर उत्तरआधुनिकतावाद, 'सबआल्टंर्न स्कूल ऑफ़ हिस्ट्री ' और 'आइडेंटिटी पॉलिटिक्स' के अनुगामी हो गए, बल्कि दूसरी ओर उग्र हिंदुत्ववादी योगी आदित्य नाथ के साथ मंचासीन होकर पुरस्कार भी लेने लग गए। ) (२) आपने मुझे फ़ैसलाकून तरीके से 'सी.पी.आई. ब्रांड' का भी घोषित कर डाला. फिर आपने स्वयं को 'नास्तिक' भी घोषित किया और अपनी 'जाति' प्रगट नहीं की और किसी ठग पोलितीशियन की तरह स्वयं को 'जाति-संप्रदाय-धर्म' इत्यादि से ऊपर उठा हुआ व्यक्तित्व कहा. जब कि मैंने पहले ही अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर दिया था कि भारतीय समाज में जो कोई भी 'जाति-संप्रदाय-धर्म' और 'भ्रष्टाचार' के बारे में खामोशी अख्तियार करता है, उसे सीधे-सीधे संबोधित नहीं करता, वह दरअसल किसी 'विचारधारा' या राजनीति या निहित स्वार्थों के लिए सामाजिक यथास्थिति को बनाए रखना चाहता है. 'नास्तिकता' अपनी असली जातिगत और सांप्रदायिक आइडेंटिटी को छुपा कर 'अन्यों' को बरगलाने का काम करती आ रही है. यह शहीद भगत सिंह की या राहुल सांकृत्यायन का 'एथीज़्म' नहीं है, जिसे उन्होंने अपने जीवन-कर्म से प्रमाणित किया था. अब यह एक क्लीशे हो चुका झांसे का औज़ार है. (३) ज़ाहिर है कि आप किसी न किसी संगठन से जुड़ी/ जुड़े हैं. वह राजनीतिक ही होगा और यह तय है कि उसकी कोई जातिगत-सांप्रदायिक बनावट ज़रूर होगी. क्योंकि आज हमारे समय में कोई एक भी राजनीतिक दल ऐसी नहीं है, जिस पर इन तीन का वर्चस्व ना हो -जातिवाद, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार. अब इस विमर्श को पुरानी वैचारिकी पर लौटाने के पूर्व मैं आपसे कुछ और जानने का विनम्र आग्रह करता हूं (इसलिए क्योंकि आप मूलत: राजनीतिक एक्टिविस्ट हैं) वह आग्रह है - कृपया प्रकाश करात, दीपांकर भट्टाचार्य, वर्धन-अतुल कुमार अंजान के बारे में अपने मत प्रगट करें तथा इन दलों से जुड़े तीन लेखक संगठनों पर अपनी वैसी ही फ़ैसलाकून टिप्पणी दें जैसी आपने मेरे बारे में दी है -वे तीन संगठन हैं -जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच और प्रगतिशील लेखक संघ. (आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी )
कविता कृष्णपल्लवी
उदय प्रकाश जी, आपतो किसी मीडिया चैनल या हिन्दी विभाग के जातिवादी अध्यक्ष की तरह साक्षात्कार के दौरान जाति जानने पर ही अड़ गये! क्या यह पर्याप्त नहीं कि मैं जाति नहीं मानती? फिर भी आपकी तसल्ली के लिए मैंने अपना पारिवारिक जातिमूल इंगित कर दिया। मेरा अभी भी मानना है कि आपके ठाकुर परिवार में या मेरे कायस्थ परिवार में पैदा होने से हमारी बहस की वैचारिक अंतर्वस्तु पर कोई फर्क नहीं पड़ता। क्या आप अपने प्रशंसकों-परिचितों से भी सबसे पहले उनकी जाति पूछते हैं तभी संवाद करते हैं? चलिये, एक बार फिर आपकी तसल्ली के लिए मैं यह भी बता दूँ कि भाकपा, माकपा और भाकपा (माले) लिबरेशन मेरी दृष्टि में छद्म वाम दल हैं और इनके सांस्कृतिक संगठनों से भी मेरा कोई लेना-देना नहीं। भाकपा(माओवादी) की अतिवाम राजनीति से भी मेरी सहमति नहीं। मैं एक मार्क्सवादी हूँ, क्या मात्र इतना ही पर्याप्त नहीं है कि हम कुछ वैचारिक असहमतियों पर संवाद करें? ग़जब का जनवाद है भाई आपका! और बचाव के लिए बाल की खाल निकालने में भी जवाब नहीं आपका। एक फासिस्ट के हाथों सम्मानित होने और पुरस्कृत होने के बीच भला क्या गुणात्मक फ़र्क है? चलिए, मैं ग़लती ठीक कर लेती हूँ: आप उग्र हिन्दुत्ववादी फासिस्ट योगी आदित्यनाथ के साथ मंचासीन हुए और उसके हाथों सम्मान ग्रहण किया... हा... हा...। मैंने आपकी वैचारिकता को आपके लेखों के ज़रिए ही जाना है। यह जानकारी मुझे कुछ पुराने साहित्य प्रेमियों से ही मिली कि उत्तर आधुनिक 'टर्न्र' लेने के पहले आप भाकपा के निकटस्थ वामपंथी हुआ करते थे। वैसे आपकी ही तर्ज़ पर ये सारे उत्तर देने से पहले मैं भी पूछ सकती थी कि भाजपा को आप फासिस्ट संगठन मानते हैं या नहीं, तमाम अंबेडकरवादी दलित बुद्धिजीवियों और पार्टियों के बारे में आपकी राय क्या है... वगैरह-वगैरह। पर मैं ऐसा नहीं पूछूंगी क्योंकि मैं इसे मूल मुद्दों पर बहस की पूर्व शर्त नहीं मानती। आपके इस निर्णय से भी मेरी सहमति सम्भव नहीं कि जो जाति नहीं मानता वह जाति 'छिपाकर' 'अन्यों' को बरगलाता है। तब तो कोई व्यक्ति आपसे बहस कर सके, इसके लिए यह भी ज़रूरी हो जायेगा कि आपका नाम वह ठाकुर उदय प्रकाश सिंह के रूप में (या ऐसे ही किसी रूप में) देखना चाहे। चलिए, विमर्श की पुरानी वैचारिकी पर लौटने के लिए मैंने, न चाहकर भी, आपके सवालों पर काफी सफाइयाँ पेश कर दीं। अब क्या मूल बहस पर वापस लौटा जाए?
उदय प्रकाश
कविता कृष्णपल्लवी जी चलिये अब आपने अपना ज़रा-सा परिचय दिया. लेकिन आपकी बातों और तर्कों से लगता है कि आपने कुछ धारणाएं अंतिम तौर पर बना डाली हैं. आपने यह भी अभी घोषित किया कि आप 'मार्क्सवादी' हैं. इसके पहले आप जाति-धर्म आदि से ऊपर उठ चुकी/ चुके थीं/ थे. फिर आपने मुझे 'ठाकुर' भी कह डाला. गोरखपुर से भी आपका संबंध है. सारे वामपंथी दल भी आपकी निगाह में छद्म हैं. इनके सांस्कृतिक संगठनों से भी आपका कुछ लेना-देना नहीं. अब एक प्रश्न और. आप मुझे व्यक्ति के रूप में या लेखक के रूप में किस माध्यम से जानती/ जानते हैं. क्या उन्हीं सूत्रों के ज़रिये, जिनका आपने उल्लेख किया है? क्या आपने मेरी कोई रचना कभी पढ़ी है? मेरे व्यक्तित्व और रचनाशीलता के मूल्यांकन के आधार आपके क्या हैं ? ..और 'मूल मुद्दा' आपकी दृष्टि में क्या है? योगी आदित्यनाथ जिसे आपने 'फ़ाशिस्ट' कहा और उसके हाथों पहले 'पुरस्कार' फिर 'सम्मान' फिर 'मंचासीन' होने की बात कही. क्या आप मानती/ मानते हैं कि 'मोहन दास' को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिलने के पीछे 'योगी आदित्यनाथ का दबाव' था ? क्या आपने 'मोहन दास' पढ़ी है ? इस पुरस्कार की ज्यूरी में अशोक वाजपेयी, चित्रा मुद्गल और आपके प्रिय आलोचक मैनेजर पांडेय थे. क्या विश्वनाथ त्रिपाठी समेत इन सब पर योगी आदित्यनाथ का 'दबाव' था ? (मूल मुद्दा यही है) आपसे एक अनुरोध और है. गूगल या किसी भी सर्च में जाकर एक बार 'मोहन दास' या उदय प्रकाश टाइप कर लें. इस पुस्तक पर लगभग सभी भारतीय भाषाओं और कुछ प्रमुख विदेशी भाषाओं के प्रतिष्ठित आलोचकों, साहित्यविदों की समीक्षाएं हैं और उनमें कई मार्क्सवादी आलोचक भी हैं. संसार के प्रमुख प्रकाशकों द्वारा वह प्रकाशित भी है. उस पर एक फ़िल्म बन चुकी है, दूसरी बनने की तैय्यारी है. उसका मंचन इप्टा, हिरावल और अन्य भाषाओं, जिनमें पंजाबी भी सम्मिलित है, हो चुका है. जन नाट्यमंच के कलाकार ने भी फ़िल्म में भूमिका निभाई है. अब आप बतायें कि क्या अपनी राय आप उन्हीं स्रोतों से बनाती हैं, जिनका आपने रिफ़ेरेंस दिया है, या आप स्वयं को 'मार्क्सवादी' घोषित करते हुए किसी भी रचना और किसी भी व्यक्ति पर मनचाहे आरोप-प्रत्यारोप लगा सकते/ सकती हैं? आपकी वाल पर आपके संबंधों के दायरे का पता चलता है. क्या आप अपना और परिचय मुहैय्या करेंगी/ करेंगे?
आपने बार-बार मुझ पर फ़ैसलाकून ढंग से 'उत्तर-आधुनिक' होने का टैग लगा दिया है. इसके पीछे आधार क्या है? 'उत्तर-आधुनिकता' की बुनियादी प्रस्तावनाएं क्या हैं और किन तर्कों या निष्कर्षों से आप यह फ़ैसला दे रही/ रहे हैं कि मैंने कोई 'उत्तर-आधुनिक टर्न' ले लिया है? मुझे तो नहीं लगता कि 'उत्तर-आधुनिकता' से मेरा या मेरी रचनाओं का कोई वास्ता है. (आप कृपया यह स्वीकार कर लें कि आपका इरादा किसी गंभीर और ईमानदार 'बहस'/ 'विमर्श' का नहीं है बस अपने फ़ैसले सुनाने का है. अब आप उस 'थूकने' वाली भाषा पर अपनी राय दें, जिसका उल्लेख मैंने मूल पोस्ट में किया है. क्या वह उचित है? ..और क्या ऐसी गर्हित भाषा का उपयोग कोई सभ्य, लोकतांत्रिक, प्रबुद्ध तथा स्वस्थ मानसिकता का व्यक्ति दूसरों के लिए कर सकता है ? ) .
हा ... हा ...! आपने एक जजमेंट मेरे बारे में और दिया है. इसे कृपया देखें : ''उदयप्रकाश की समस्या यह है कि वह जब मार्क्सवादी थे, तब भी सीपीआई ब्रांड मार्क्सवादी थे जो गोर्बाचोव के ग्लासनोस्त-पेरेस्त्रोइका काल तक सोवियत संघ को समाजवादी मानते थे।'' चलिए आपने मुझे सी.पी.आई. ब्रांड का माना (हालांकि १९८२ के बाद से मैं 'जनवादी लेखक संघ' का सदस्य, केंद्रीय कार्यकारिणी का सदस्य और दिल्ली राज्य का उपाध्यक्ष भी रह चुका हूं. रिकार्ड चेक कर लें.) अब आपसे अनुरोध है कि कृपया फणीश्वरनाथ रेणु, निराला, नागार्जुन, प्रेमचंद, मंटो, निर्मल वर्मा, अज्ञेय, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, हजारीप्रसाद द्विवेदी, भीष्म साहनी, अमरकांत, धर्मवीर भारती, धूमिल, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय के भी 'ब्रांड' बताएं. मैं बेसब्री से प्रतीक्षारत हूं.
कविता कृष्णपल्लवी
उदय प्रकाश जी, अब आप रेणु से लेकर रघुवीर सहाय तक सोलह लेखकों के बारे में राय पूछने लगे! पहली बात, रचनाकारों के 'ब्राण्ड' बनाना-बताना अनुचित होगा और ग़लत भी । उनकी रचनाओं के अन्तरविरोधों की, और समग्रता में जनपक्षधरता की बात की जा सकती है । कई बार लेखक की रचना उसकी विचारधारा और राजनीति के प्रतिकूल भी जा खड़ी होती है, जैसे कि बाल्ज़ाक और तोलस्तोय के साथ हुआ । स्पष्ट कर दें कि यहाँ भी बात उदय प्रकाश के कवि-कथाकार के रूप में मूल्यांकन से नहीं शुरू हुई थी । यहाँ बात आपके राजनीतिक विचारों की आलोचना से शुरू हुई थी (और बात जब राजनीतिक विचारों की होती है तो जीवन-व्यवहार की चर्चा अनुचित नहीं)। इसलिए मैं आपके द्वारा उल्लिखित सोलह लेखकों का न तो 'ब्राण्ड' बताने जा रही हूँ, न ही आगे ऐसे किसी अप्रासंगिक प्रश्न का उत्तर देने जा रही हूँ क्योंकि इसी कड़ी में आप वहाँ तक जा पहुँच सकते हैं कि तुलसीदास, कालिदास, वेदव्यास और होमर के बारे में भी मेरी राय पूछें और यह भी जानना चाहें कि हड़प्पा और मेसोपोटामिया की सभ्यताओं के बारे में मेरी क्या राय है!
(1) चलिए, तमाम कठहुज्जती के बाद आपने यह तो माना कि उग्र हिन्दुत्ववादी फासिस्ट योगी आदित्यनाथ के साथ गोरखपुर में आप मंचासीन हुए थे और उनके हाथों सम्मानित हुए थे। मात्र सूचना-स्रोतों के सन्दर्भों से आप यह मान बैठे हैं कि मैं हिन्दी साहित्य में आपके विरुद्ध सक्रिय किसी ''गिरोह'' की सदस्य हूँ। बहरहाल, इस संदेह-ग्रंथि का कोई इलाज मेरे पास नहीं है । अब पूछ रहे हैं कि आपकी राजनीतिक प्रतिबद्धता के अतीत और आपके उत्तरआधुनिक 'टर्न' के बारे में मेरे ''जजमेण्ट'' के स्रोत/रेफरेंस क्या हैं! यह बात तो आपके जीवन-परिचयों में (इण्टरनेट पर भी) उल्लिखित है कि सोलह वर्ष की आयु में आप वाम राजनीति में सक्रिय हुए और फिर भाकपा के कार्यकर्ता बने, जे.एन.यू. आने से पहले सागर विश्वविद्यालय के दिनों में ही। फिर '80 के दशक में आप माकपा के निकट आये। यही समय था जब आप जलेस के सदस्य और पदाधिकारी रहे। तो इस दौरान आपकी जो राजनीति रही और सोवियत संघ के बारे में उस राजनीति की जो समझ थी, मैंने वही तो बयान किया है! अब रहा सवाल आपके उत्तर-आधुनिक 'टर्न' का! पुरानी पत्रिकाओं की फाइलें पलटते हुए 'हंस' के बहुत पुराने अंकों में आपके लेख पढ़ने को मिले थे, जिनकी मूल तार्किक प्रणाली और निष्पत्तियाँ उत्तरसंरचनावादी और उत्तरआधुनिकतावादी विचार-सरणियों के सर्वथा अनुरूप लगीं। उन्हीं से पता चला कि सुधीश पचौरी के बाद उत्तर-आधुनिक 'टर्न' लेने वाले आपे दूसरे प्रमुख वामपंथी थे। उल्लेख्य है कि यहाँ आपके विचारों और राजनीति की ही चर्चा हो रही है। आपकी रचनाओं में भी इस 'टर्न' को लक्षित किया जा सकता है, पर वह एक अलग विषय है जो काफ़ी विस्तार की माँग करता है और वह यहाँ न तो सम्भव है , न ही हमारे विमर्श का मूल मुद्दा!
2) 'मोहनदास' कहानी मैंने पढ़ी है, यहाँ उस कहानी पर मेरी राय का प्रश्न नहीं है। न ही निर्णायक मण्डल पर मेरी राय का प्रश्न है। निर्णायक मण्डल पर सीधे योगी आदित्यनाथ नहीं, अध्यक्ष वि.प्र.तिवारी तो दबाव बना ही सकते थे और उनकी दक्षिणपंथी रुझानें सर्वज्ञात हैं। लेकिन यह मेरा कहना नहीं है। मैंने पहले ही बता दिया है कि इसकी प्रामाणिकता के बारे में तो 'समयांतर' का टिप्पणीकार ही बता सकता है। यह भी स्पष्ट कर दें कि मेरे लिए यह मुद्दा नहीं था। मेरे लिए मुद्दा उतना ही था, जितना मैंने अपने पहले कमेण्ट में लिखा था। यह मुद्दा तो तब उठा जब आपने मूल प्रतिपाद्य से हटकर परिधिगत मसलों को तूल दिया। लेकिन अब एक और सवाल तो बनता ही है। अमित सेनगुप्ता से एक बातचीत के दौरान (The Sharp Eyed Seer,25अक्टूबर 2006, archive.tehelka.com) आपने अरुंधती राय द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार ठुकराये जाने पर टिप्पणी करते हुए कहा था: ''I fully agree, they call the academy autonomous, but it is like what all statist institutions are, full of brokers, compromisers, people fleecing the system for private gains, awards, recognitions,fellowshipholders, those holding plum posts. she speaks of her mind, how many of writers dare to do against the corrupt power mafia? she has shown the truth of not only corruption in these institutions, but also how global capital has squeezed us, in squeezing us dry everyday in this new era where everything has become so cruel and moneycentric.'' चार वर्ष बाद जब आपने खुद साहित्य-अकादमी पुरस्कार लिया तो क्या वह पाक-साफ और राज्य की जकड़बन्दी से मुक्त हो चुकी थी, क्या वहाँ से दलालों और पद-पुरस्कार लोलुप मौक़ापरस्तों का सफ़ाया हो चुका था? उस समय साहित्य अकादमी के बारे में आपकी राय बदल गयी थी या आप बदल गये थे, या अकादमी तभी तक भ्रष्ट थी जब तक आप पुरस्कृत नहीं हुए थे?
(3) मैं नहीं जानती कि वह कौन सा सवर्ण-संगठित कवि-लेखक गिरोह है, जो ब्लॉग पर अपने से असहमत लोगों पर 'थूकने' की बात कर रहा है। मैंने पढ़ा नहीं है, आप ब्लॉग का नाम बताइयेगा पढ़ लूँगी। जाहिर है, मैं इस भाषा की कायल नहीं, राजनीतिक विवाद में राजनीतिक तल्ख शब्दावली तो आयेगी, पर गाली-गलौज एकदम अलग बात है। इस मसले पर मेरा स्टैण्ड मेरी शैली से स्पष्ट है। मैंने आपके बारे में जो भी कहा, प्राप्त तथ्यों के आधार पर कहा(यदि कोई तथ्य ग़लत हो तो, तो उसे सुधारने की तत्परता के साथ), आपके निजी सम्मान को ठेस पहुँचाने वाली कोई बात नहीं कही, आपके उकसाने के बावजूद। आप लगातार अपने विरोधी किसी गिरोह से जुड़े होने के संदेह से प्रेरित प्रश्न पूछते रहे, एकदम अप्रासंगिक प्रश्न उठाते रहे, जाति जानने पर अड़े रहे और जाति-धर्म-सम्प्रदाय को सिद्धान्त और व्यवहार में न मानने की मेरी प्रतिबद्धता पर निराधार सन्देह करते हुए मेरे ऊपर ''ठग पोलिटीशियन'' जैसा व्यवहार करने तक का आरोप लगा दिया! आपके इन अपशब्दों के बावजूद मैंने अपनी भाषाई मर्यादा नहीं तोड़ी। इससे साफ है कि मैं बहस में 'थूकने-खँखारने' या चोर-उचक्का-ठग कहने जैसी भाषाई गुण्डागर्दी की विरोधी हूँ। राजनीतिक प्रवृत्ति या प्रवर्ग को नाम देना एक बात है, राजनीतिक व्यंग्य भी 'पालिमिक्स' में एक मान्य रीति है, लेकिन गाली देना या अपशब्द इस्तेमाल करना एकदम दीगर बात है।
4) मूल प्रश्न पर आने से पहले, इस बहस को फॉलो कर रहे आम पाठकों में कोई भ्रान्ति न फैले, इसके लिए आप द्वारा प्रस्तुत कुछ ग़लत तथ्यों और सन्दर्भों की संक्षिप्त चर्चा ज़रूरी है। लेनिन ने ज़्दानोव के विरुद्ध कहीं कुछ लिखा-बोला नहीं था क्योंकि उनके जीवन-काल में ज़्दानोव सोवियत संघ के सांस्कृतिक परिदृश्य पर कहीं था ही नहीं। पहली बार, लुनाचार्स्की के इस्तीफे के बाद 1929 में ज़्दानोव 'कमिसारियत ऑफ एनलाइटेनमेण्ट' का प्रभारी बना था। 1934 में 'आल यूनियन राइटर्स कान्फ्रेंस ऑफ सोवियत यूनियन' में, जिसके प्रमुख गोर्की और एक अन्य अग्रणी सिद्धान्तकार पी.यूदिन थे, अपने भाषण से ज़्दानोव चर्चा में आया था। उससमय समाजवादी यथार्थवाद की अवधारणा में कुछ मेटाफिजिकल विचलनों के बावजूद, ज़्दानावियन यांत्रिकता का दौर अभी नहीं आया था। 1930 के दशक में ही मिखाइल लिफ्शित्ज, केमेनोव, आई.सात्ज़ और मार्क रोजेंथाल आदि ने मार्क्सवादी साहित्य-सैद्धातिकी में भोंड़े समाजशास्त्रीय और यांत्रिक वर्ग अपचयनवादी भटकावों के विरुद्ध संघर्ष चलाया था। ज़्दानोवियन यांत्रिकता का वास्तविक बोलबाला 1946 में हुआ जब ज़्दानोव सोवियत सांस्कृतिक नीति का प्रभारी बना और बहुचर्चित 'ज़्दानोव डॅाक्ट्रिन' आया। फिर 1948 में 'एण्टी-फार्मलिज़्म कैम्पेन' चला जब मुरादेली के ऑपेरा और शास्ताकोविच, खाचातुरिन, प्रोकोफि़येव के संगीत आदि को आलोचना को निशाना बनाया गया।
लेनिन ने अपने जीवन-काल में 'प्रोलेतकुल्त' की सांस्कृतिक-साहित्यिक समझ की आलोचना की थी। तोलस्तोय पर किसी का जवाब देते हुए नहीं, बल्कि सकारात्मक रूप से उन्होंने लेख लिखे थे(प्रसंगवश आपकी एक और त्रुटि यहाँ इंगित कर दें, लेनिन ने तोलस्तोय को सोवियत समाज का नहीं, 'रूसी क्रान्ति का दर्पण' कहा था)। प्लेखानोव ने पूर्वप्रचलित भोंड़े समाजशास्त्रीय नज़रिये से, अंतिम मूल्यांकन में तोलस्तोय को 'अभिजनों के घोंसले का चितेरा' कहा था, जबकि लेनिन ने संज्ञान के परावर्तन सिद्धान्त को साहित्य में पहली बार लागू करते हुए तोलस्तोय के यथार्थवाद की प्रगतिशीलता के साथ ही उनकी विचारधारा के प्रतिक्रियावाद की भी चर्चा की थी ('रूसी क्रान्ति का दर्पण' शीर्षक पर न जाइये, लेनिन ने तोल्स्तोय के दोनों पक्षों की द्वंद्वात्मक विवेचना की थी)। न जाने किस स्रोत-सामग्री के आधार पर, आपने तोल्स्तोय के प्रश्न पर ज़्दानोव को सीधे लेनिन से ही भिड़ा दिया है।
(5) तथ्य की दूसरी ग़लती। मिन्ना काउत्स्की के नाम कार्ल मार्क्स ने कोई पत्र नहीं लिखा था। मिन्ना काउत्स्की को फ्रेडरिक एंगेल्स ने एक पत्र (26नवम्बर,1885) लिखा था, जिसमें बाल्ज़ाक के बारे में ऐसी कोई बात नहीं थी, जैसी आपने लिखी है। उस पत्र में उन्होंने यह बात लिखी थी कि प्रयोजनमुखी साहित्य में, ''प्रयोजन को स्वयं परिस्थिति तथा कार्यकलाप में अपने को व्यक्त करना चाहिए, विशेष रूप से लक्षित किये बिना, और लेखक अपने वर्णित सामाजिक टकरावों का भावी ऐतिहासिक समाधान पाठक के सामने तैयारशुदा रूप में प्रस्तुत करने के लिए कर्त्तव्यबद्ध नहीं है।'' हाँ, फ्रेडरिक एंगेल्स का ही एक और पत्र (अप्रैल प्रारम्भ,1888) है मार्गरेट हार्कनेस के नाम। इस पत्र में उन्होंने लिखा है कि बाल्ज़ाक ने फ्रांसीसी समाज का जो पूरा इतिहास समेटा है, उससे उन्हें आर्थिक तफ़सीलों तक के मामले में तमाम इतिहासकारों, अर्थशास्त्रियों तथा सांख्यिकीविदों की पुस्तकों से कहीं अधिक जानकारी मिली। सन्दर्भ मिलाकर अपनी जानकारी दुरुस्त कर लीजियेगा।
(6) तथ्य की तीसरी ग़लती, जो गम्भीर ग़लती है। यह लेनिन की पुस्तक 'मैटीरियलिज़्म एंण्ड इम्पीरियो क्रिटिसिज़्म'(पुस्तक का नाम भी आपने ग़लत लिखा है)। के बारे में है। इस पुस्तक का प्रतिपाद्य 'साइंटिफिक डिटर्निज़्म' नहीं बल्कि 'सब्जेक्टिव आइडियलिज़्म','एग्नॉस्टिसिज़्म' और 'पाजि़टिविज्म' की आलोचना है। माख और अबेनारिउस के 'इम्पीरियोक्रिटिसिज़्म' की यही दार्शनिक अंतर्वस्तु थी, जो काण्ट से आगे बढ़कर ह्यूम और बर्कले तक जा पहुँचती थी। 'साइंटिफिक डिटर्मिनिज़्म' (वैज्ञानिक नियतत्ववाद) एक अलग चीज़ है। यदि वैज्ञानिक का मतलब ही वैज्ञानिक नियतत्ववाद होता है, तब तो समाज की गतिकी की वैज्ञानिक समझ की बात ही नहीं की जा सकती जो कि मार्क्सवाद करता है। जब समाज विज्ञान को कोई व्यक्ति प्रकृति विज्ञान की तरह से ट्रीट करता है और इतिहास विकास की प्रक्रिया में मानवीय अभिकर्ता (ह्यूमन एजेंसी) की भूमिका को नकार देता है, तो इसे वैज्ञानिक नियतत्ववाद कहते हैं(अकादमिक मार्क्सवाद की एक धारा -- संरचनावादी मार्क्सवाद ऐसा ही करता है)। जिसप्रकार आर्थिक मूलाधार को अंतत: निर्णायक मानना आर्थिक नियतत्ववाद नहीं है, वर्गीय संरचना और वर्ग-विश्लेषण को बुनियादी चीज़ मानना वर्ग-अपचयनवाद (क्लास रिडक्शनिज़्म) नहीं है, उसी प्रकार वैज्ञानिक का मतलब वैज्ञानिक नियतत्ववाद नहीं होता। यदि आप या कोई भी अज्ञेयवादी (एग्नॉस्टिक) या अनिश्चयवादी 'साइंण्टिफि़क' का मतलब 'साइंण्टिफि़क डिटर्मिनिज़्म' समझता है तो समझे, लेकिन इसका कलंक कम से कम लेनिन के मत्थे तो न मढ़े। आर्थिक और वैज्ञानिक नियतत्ववाद के विरुद्ध मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन के अतिरिक्त अन्य कई मार्क्सवादियों का विपुल लेखन मौज़ूद है, पर उनकी चर्चा मैं कत्तई नही करुंगी, वर्ना आप फिर 'नेमड्रॉपिंग' का आरोप चस्पां कर देंगे।
(7) बहस के दौरान, 'ईश्वर की मृत्यु' रूपक आते ही आपने मुझे नीत्शे से जोड़ दिया और चूँकि नीत्शेवाद के बुनियादी प्रतिक्रियावादी निष्कर्ष ज़र्मन फासिज़्म के विचारों के स्रोत बने, (वैसे टॉमस मान, इब्सन और श्वाइत्ज़र भी नीत्शे से प्रभावित थे) इसलिए मुझ ''नीत्शे के अनुयायी'' का असली ''चेहरा'' आपने ''एक्सपोज'' कर दिया। महज कुछ जुमले मिलाकर कुछ का कुछ सिद्ध कर देना शास्त्रार्थी ब्राह्मणों की परम्परा है, हमारी नहीं होनी चाहिए। नीत्शे ने ईश्वर के समक्ष लोगों की समानता तथा ''सत्ता की कामना'' का निषेध करने वाली ''आत्मअवमानना'' विषयक ईसाई धर्म के विचारों को ठुकराते हुए ''ईश्वर की मृत्यु'' की तथा आत्मा के अमरत्व के विकल्प के तौर पर ''शाश्वत प्रत्यागमन'' की बात की थी। आपने समाजवाद के लिए ईश्वर का रूपक इस्तेमाल किया, मैंनें नहीं। उस समाजवाद की असफलता के लिए आपने 'ईश्वर की असफलता' का रूपक का इस्तेमाल किया। वह समाजवाद अब नहीं रहा(आप भी मानते हैं), इसपर आप ही के रूपक की भाषा में मैंने ''ईश्वर की मृत्यु'' कह दिया तो इसमें नीत्शे कहाँ से आ टपक पड़ा? और फिर यह रूपक तो आपका गढ़ा हुआ है, मेरा नहीं। मेरा तो मात्र इतना कहना था कि समाजवाद को कठिन वर्ग संघर्ष और प्रयोगों से भरी दीर्घ संक्रमण-अवधि के रूप में देखने के बजाय, जो लोग निर्दोष, परम शुद्ध रूप में आदर्शीकृत करते हुए उसे ईश्वर तुल्य समझते रहे, उनके ''ईश्वर की मृत्यु'' तो होनी ही थी। ऐसा ईश्वर किसी भी रूप में गढ़ना वास्तविकता में ग़लत था और दार्शनिक तौर पर तो किसी भी रूप में ईश्वर गढ़ना रूमानी भाववाद ही होता है। पर यदि मैं आपको हेगेलियन भाववादी कहूँ तो आप मुझे 'अमानुषिक फायरबाखियन पदार्थवादी' कह देंगे, यह धमकी आप पहले ही दे चुके हैं।
(8) आपने बिना किसी प्रसंग या संदर्भ के, साहित्य या सृजनात्मक प्रयासों को गौण या अप्राथमिक मानने का आरोप मेरे सिर पर थोप मारा है जबकि मूल विषय में ऐसा कोई प्रसंग आया ही नहीं है। प्रश्न विचारधारा, साहित्य-कला और राजनीति में से किसी को गौण या प्रधान मानने या न मानने का है ही नहीं। सामाजिक परिवर्तन की पूरी परियोजना में या इतिहास-विकास के पूरे मानचित्र पर, तीनों अधिरचनात्मक उपादानों का अपना अनस्थानांतरणीय, अविनिमेय, अपरिहार्य स्थान है। इन तीनों में तुलना बेमानी है। तीनों के बिना सामाजिक परिवर्तन की कल्पना नहीं की जा सकती। विचारधारा (सचेतन हो या अचेतन) सभी सामाजिक-व्यक्तिगत आचार एवं कार्यों की निर्देशिका होती है। साहित्य-कला इतिहास के सभ्यतागत आसवन (डिस्टिलेशन) से प्राप्त मानवीय सारतत्व है, सामाजिक क्रान्ति के अग्रणी लोगों को और भागीदार जनों को, इस मानवीय सारतत्व का संज्ञान किसी न किसी हद तक देना ही होता है और सामाजिक क्रान्ति का बुनियादी लक्ष्य अन्यायपूर्ण सामाजिक ढाँचे के अमानुषिक अवरोधों को हटाकर इसी मानवीय सारतत्व को समृद्ध करना होता है। राजनीति आर्थिक सम्बन्धों की सर्वाधिक सान्द्र अभिव्यक्ति होती है और पूरी संक्रमण प्रक्रिया के निर्णायक बिन्दु पर क्रान्ति का सवाल बुनियादी तौर पर राज्यसत्ता का (यानी राजनीति का) सवाल बन जाता है क्योंकि एक सामाजिक ढाँचे के नियंत्रक-विनियामक टॉवर (राज्यसत्ता) को ध्वंस करना होता है और शोषण-असमानता के हिमायती वर्गों के बचे रहने तक एक नयी राज्यसत्ता की अनिवार्य ज़रूरत होती है। अत: अलग-अलग अधिरचनात्मक उपादानों की तुलना का सवाल ही नहीं है। बल्कि मेरा तो मानना है कि रूसी क्रान्ति हो ही नहीं सकती थी, बोल्शेविक क्रान्तिकारियों की पीढ़ी तैयार ही नहीं हो सकती थी, यदि पुश्किन, गोगोल, तुर्गनेव, दोस्तोयेव्स्की, तोल्स्तोय, चेखव, चेर्नीशेव्स्की, हर्जेन, दोब्रोल्यूबोव आदि-आदि की समृद्ध परम्परा के साये में वह पली-बढ़ी नहीं होती। पुनर्जागरण और प्रबोधनकाल से लेकर उन्नीसवीं सदी तक के यथार्थवादी और रोमानवादी साहित्य को भी मैं इसी नज़रिये से देखती हूँ। क्रान्तिपश्चातकाल में भी नयी साहित्य-कला-संस्कृति के सृजन के बिना नया मनुष्य तैयार हो ही नहीं सकता था। कई-कई गोर्की, फ़ेदिन, फ़देयेव, शोलोखोव, आइजेंस्ताइन, पुदोवकिन, मेयरहोल्ड, स्तानिस्लाव्स्की, वाख्तांगोव होते, कई तरह के प्रयोग होते, स्वस्थ मतभेद और विवाद होते तो यह समाजवाद के स्वास्थ्य के लिए और अच्छा होता। मेरा यह मानना है कि पहले दौर के समाजवादी प्रयोगों में, अन्य क्षेत्रों की तरह, साहित्य-कला के क्षेत्र में भी ग़लतियाँ हुईं, (जिनमें कुछ गम्भीर थीं) विचलन आये, उनमें प्रथम प्रयोगों की अनगढ़ता भी थी और मौलिकता की पथान्वेषी भटकनें भी। उन सब पर यहाँ विस्तृत चर्चा असम्भव है। फिर भी पश्चदृष्टि से देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कला-साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में भी बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों की उपलब्धियाँ शानदार थीं। ज़्दानोवियन यांत्रिकता की मैं भी विरोधी हूँ। यथार्थवाद के बारे में ब्रेष्ट, आइजेंस्ताइन, मेयेरहोल्ड, वाख्तांगोव आदि के बोध एवं धारणा की एक धारा बनती है जो अधिक द्वंद्वात्मक, सापेक्षत: अधिक सही प्रतीत होती है। पर यह समय न चीज़ों को सिरे से ख़ारिज करने का है, न ही अंतिम फैसला सुनाने का। अध्ययन-विश्लेषण-विमर्श-समाहार की प्रक्रिया अभी लम्बी चलनी चाहिए।
(9) मिख़ाइल बुल्गाकोव का उपन्यास 'मास्टर ऐण्ड मार्गारीता' जादुई यथार्थवादी बनावट-बुनावट वाली 'पॉलिफोनिक' कथाकृति है (मार्खे़ज़ भी बुल्गाकोव को ही जादुई यथार्थवाद का 'ट्रेण्डसेटर' मानते थे)। एक धरातल पर यह कृति विशेषकर '20 के दशक के अंत से '30 के दशक तक सोवियत तंत्र के कुछ खित्तों में प्रभावी नौकरशाही की आलोचना करते हुए समाजवाद के भविष्य को लेकर निराशा प्रकट करती है, दूसरे धरातल पर यह 'फ्रीमैसन' स्टैण्डप्वाइण्ट से नास्तिकता के प्रचारकों के विरुद्ध एक प्रच्छन्न स्टेटमेण्ट है, तीसरे धरातल पर अच्छे और बुरे के ''शाश्वत'' संघात के चित्रित करती हुई यह सवाल उठाती है कि यदि दुनिया पर वोलैण्ड और उसके संगियों का शैतानी प्रभुत्व ही बने रहना है तो फिर इस दुनिया के होने का मतलब क्या है? आपने इस उपन्यास का बहुत चलताऊ अर्थ-संधान किया है। जहाँ तक समाजवादी संक्रमण-अवधि के दौरान सोवियत तंत्र में पैदा हुई नौकरशाही का सवाल था, वह समाजवाद की (ख़ासतौर पर जब उसका रंगमंच कोई पिछड़ा देश हो) अपरिहार्य बुराई थी। लेनिन ने भी सोवियत संघ के सर्वहारा अधिनायकत्व को ''नौकरशाहाना विकृतियों और बुर्जु़आ विरूपणों'' से युक्त बताते हुए एक वस्तुगत यथार्थ का बयान किया था, पर साथ ही उसे किसी भी बुर्जु़आ जनवाद से लाखों गुना अधिक जनवादी भी बताया था। समाजवाद के दौरान, पुराने मालिक वर्गों की, तीन अन्तरवैयक्तिक असमानताओं से, विशेषकर मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के अंतर (जैसे वेतन, सुविधाओं आदि के अंतर के रूप में) से पैदा होने वाले बुर्जु़आ अधिकारों की, माल-मुद्रा के नियमों (श्रम शक्ति के माल होने की स्थिति)के किसी हद तक बने रहने से पैदा होने वाली बुर्ज़आ संस्कृति की, अतीत के अवशेष के रूप में मौजूद संस्कृति की तथा छोटे पैमाने के पूँजीवादी उत्पादन की मौजूदगी से पैदा होने वाले नये बुर्ज़ुआ तत्वों की संस्कृति की मौजूदगी का परावर्तन एवं परिणाम राजनीतिक अधिरचना में भी सामने आता ही है। यह समाजवाद की विफलता नहीं, एक स्वाभाविक समस्या थी और इस समस्या के जड़ों की शिनाख़्त करना और हल निकालना कम्युनिस्ट नेतृत्व के समक्ष चुनौती थी। इस प्रश्न के सैद्धान्तिक-व्यावहारिक धरातल पर हल होने में समय लगा और इससे आगे चलकर ऐतिहासिक क्षति हुई। बुल्गाकोव (और उन जैसे कइयों की) समस्या यह थी कि उन्होंने समाजवाद की समस्याओं को आम मेहनतक़श जनों की अवस्थिति से नहीं बल्कि एक 'फेंससिटर', 'आउटसाइडर' पेटी-बुर्जु़आ बुद्धिजीवी के नज़रिये से देखा और उन्हें ''ईश्वर की असफलता'' की, या ''शैतानी ताक़तों की जीत'' की घोषणा करते अथवा यह नतीजा निकालते देर नहीं लगी कि 'क्रान्तियाँ हमेशा लूट ली जाती हैं और व्यवस्था में उन्हीं का प्रभुत्व बना रहता है जो पहले भी शासक थे।' इसी प्रजाति के लोगों ने आगे चलकर सामाजिक क्रान्तियों के विचारों और इतिहास को ही, प्रबोधनकाल से पैदा होकर विकसित होने वाली मुक्ति एवं समानता की अवधारणा को ही, ''महाख्यान'' कहकर खारिज कर दिया और विखण्डित क्षुद्र सामाजिक आन्दोलनों पर विमर्श का जश्न मनाने लगे। बुल्गाकोव ही नहीं, शिक्षा कमिसारियत में मौजूद नौकरशाही की आलोचना मकारेंको ने भी अपनी कृति 'रोड टु लाइफ़' में और सामूहिक फ़ार्मों में मौजूद नौकरशाही की आलोचना शराफ़ रशीदोव ने भी 'विजेता' और 'तूफ़ान झुका सकता नहीं' जैसे अपने उपन्यासों में प्रस्तुत की है। सैकड़ों और ऐसी कृतियाँ हैं। फ़र्क यह है कि बुल्गाकोव के विपरीत उनका रुख 'इनसाइडर' का है, इनके चलते न तो वे समाजवाद को ही सिरे से ख़ारिज करते हैं, न ही अध्यात्म और रहस्यात्मक संदेहवादी नैराश्य को अपना शरण्य बनाते हैं। बेशक़ समाजवाद को साहित्य के माध्यम से भी जाना-समझा जा सकता है, पर बुल्गाकोव ही क्यों, अलेक्सेई तोल्स्तोय की उपन्यास-त्रयी ('ऑर्डियल' के तीन खण्ड -- 'द सिस्टर्स', '1918' और 'द ब्लीक मॉर्निंग') व अन्य कृतियों, कोंस्तातिन फे़दिन की उपन्यास त्रयी ('पहली उमंगें','आग्नेय वर्ष' के दो खण्ड और 'अलाव') व अन्य कृतियों, शोलोखोव के महाकाव्यात्मक उपन्यासों और ऐसी ही अन्य रचनाओं के माध्यम से क्यों नहीं?समाजवादी जीवन के यथार्थ को देखने का एक वर्गीय नज़रिया बुल्गाकोव का था तो दूसरा फ़ेदिन, अलेक्सेई तोल्स्तोय, शोलोख़ोव जैसों का था। कौन यथार्थ की किस प्रस्तुति को प्रातिनिधिक मानता है, यह भी वर्गीय विचारधारात्मक अवस्थिति का सवाल है।
(10) लूशुन की प्रसिद्ध कहानी 'द ट्रू स्टोरी ऑफ आह क्यू' ('स्टोरीज़ ऑफ आह क्यू' नहीं) का तो आपने एकदम मनमाना अनर्थकारी भाष्य कर डाला है। इस कहानी की अबतक जो मान्य व्याख्या रही है, वह स्वयं लूशुन की एक टिप्पणी से भी स्पष्ट होता है और लूशुन साहित्य के सबसे बड़े विशेषज्ञ चीनी आलोचक फेंग झूएफेंग (1903-76) भी उसी की ताईद करते हैं। सर्वोपरि तौर पर लूशुन एक आदमी के आत्मिक जीवन पर हज़ारों वर्षों के उत्पीड़न के विमानवीकारी (डीह्यूमनाइजिंग) प्रभाव को दर्शाना चाहते हैं और साथ ही यह भी, कि ऐसा एक विमानवीकृत व्यक्ति भी जीवन की सामान्य मानवीय स्थितियों को हासिल करने के लिए विद्रोह और समर्पण के द्वंद्व से गुजरता है। आह क्यू की सबसे बड़ी विफलता यह है कि उसकी यह आदत बन चुकी है कि जब भी वह पराजित होता है तो न सिर्फ दूसरों को बल्कि अपने आपको धोखा देता है और खुद को यह सोचकर तसल्ली देता है कि उसने नैतिक विजय हासिल की है। यह पराजयवाद है। फिर जल्दी ही वह अपने उत्पीड़कों और दुश्मनों को भुला देता है, अपने से कमज़ोर लोगों से एक उत्पीड़क जैसा ही भाव-ताव बनाकर प्रतिशोध लेने लगता है। जब 1911 की क्रान्ति आती है तो स्वभावतया आह क्यू की नियति उससे जुड़ जाती है, उसके द्वंद्व का सुषुप्त पक्ष जागता है, लेकिन यह तथ्य कि उसे क्रान्ति में भाग नहीं लेने दिया जाता, 1911 की क्रान्ति की निर्बलता और विफलता का एक रूपक पेश करता है। आह क्यू की कहानी से क्रान्ति के बारे में आपने जो सामान्यीकृत निषेधवादी निष्कर्ष निकाला है, इससे आपकी 'स्पेक्युलेटिव' सूक्ष्मदर्शी प्रतिभा को देखकर लूशुन भी किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते।
(11) कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा लाकर वांछित निष्कर्ष प्रतिपादित करने के लिए आपने झाड़ू-बुहारू स्टाइल सामान्यीकरण करते हुए 'तमस' को भी घसीट लिया है और ऐसा निष्कर्ष निकाला है जिसके बारे में भीष्म साहनी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में वर्चस्वकारी भूमिका निभाने वाली बुर्ज़ुआ राजनीति के दुरंगे चरित्र को और साम्प्रदायिकता और कथित धर्मनिरपेक्षता के हथकण्डों के उसके द्वारा कुटिल इस्तेमाल की प्रवृत्ति को दिखलाने के साथ ही भीष्म साहनी ने आज़ादी और विभाजन के दौर की सारी ज़मीनी राजनीतिक-सामाजिक परिणतियों को 'तमस' में शानदार ढंग से दिखाया है। 1947 की घटना क्रान्ति नहीं थी और सत्तासीन भारतीय बुर्ज़ुआ वर्ग की राजनीतिक पार्टी से जिस आचरण की अपेक्षा थी, उसने वही किया। 'तमस' के उक्त प्रसंग से कहीं भी यह सार्विक सामान्यीकृत निष्कर्ष नहीं निकलता कि 'क्रान्तियाँ हमेशा लूट ली जाती हैं और व्यवस्था में उन्हीं का प्रभुत्व बना रहता है, जो पहले भी शासक थे'। तब तो कुल जमा नतीज़ा यही निकला न कि चाहे जितने भी पवित्र उद्देश्य से प्रेरित हो, क्रान्ति की दिशा में हर प्रयास ही लोगों को निरर्थक कष्ट और तबाही में झोंक देता है! फिर अक्टूबर क्रान्ति को फ़ालतू में भावुक होकर याद करने का नाटक क्यों? सीधे कहिए न, कि क्रान्ति की इस परिणति को न जानने के कारण लेनिन और उनकी पार्टी ने बेकार ही रूसी जनता को इतनी परेशानियों में धकेल दिया। नतीजा -- 'आगे पूरी व्यवस्था बदलने वाली क्रान्ति की कोई भी विनाशकारी कोशिश नहीं होनी चाहिए। हाँ, कुछ बाँध विरोधी आन्दोलन, पर्यावरण आन्दोलन, सामाजिक आन्दोलन होते रहें तो कोई बात नहीं। और मनुष्यता के शाश्वत दु:खों की त्रासदी और अकेलेपन की पीड़ा पर सुन्दर कविताएँ लिखी जाती रहनी चाहिए क्योंकि 'सुन्दरता ही मनुष्यता को बचायेगी'। क्रान्तियों के महाख़्यान (मेटानैरेटिव्स) मुर्दाबाद! देरिदा आदि से लेकर गायत्री चक्रवर्ती स्पिवॉक तक, ज़िन्दाबाद !'
(12) मैंने टिप्पणी की सीमा देखते हुए उन पुस्तकों का मजबूरन नाम लिया जो समाजवाद के इतिहास का मार्क्सवादी अवस्थितियों से समाहार प्रस्तुत करने की कोशिश करती हैं। यह मजबूरी है क्योंकि आप जैसे लोग एक ख़ास धारा की स्रोत-सामग्री का इस्तेमाल करते हुए बस निर्णायक और सकारात्मक तौर पर अपनी बात कह देते हैं, विरोधी धारा की स्रोत-सामग्री द्वारा प्रस्तुत तर्कों-तथ्यों के साथ टकराते नहीं। जैसे उत्तरआधुनिकतावादियों व अन्य उत्तर-विचारसरणियों के विचारकों को लें। उनकी विशद और गम्भीर आलोचनाएँ पिछले पच्चीस वर्षों के दौरान मार्क्सवादी स्टैण्डप्वाइण्ट्स से प्रस्तुत की गयी हैं, ये विचारकगण इन आलोचनाओं की आलोचना कभी नहीं करते, सीधे 'पॉलिमिक्स' में कभी नहीं उतरते। बीसवीं शताब्दी के समाजवादी प्रयोगों की पराजय की एक अन्य समझ के बारे में आपकी क्या राय है, यह जानने के लिए, और आप उन तर्कों की बिन्दुवार काट रखते हुए हम जैसों लोगों को प्रबोधित करें, इसके लिए जब मैंने कुछ नाम गिनाये तो आपको मेरी ''नेमड्रॉपिंग'' की प्रवृत्ति पर बेसाख़्ता हँसी आ गयी और आपने बताया कि यह 'काम' आप इतना अधिक कर सकते हैं कि फेसबुक के दोस्त चमत्कृत हो उठें। ठीक बात है पर ऐसा करने के लिए आजकल तो आप जैसा दुर्दांत पढ़ाकू होने की भी ज़रूरत नहीं। कोई भी पल्लवग्राही बुद्धिजीवी इण्टरनेट पर विषयवार-लेखकवार 'सर्च' करते हुए पुस्तकों की समीक्षाएँ और परिचय पढ़कर तथा विचारकों पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ पढ़कर यह काम कर सकता है। लेकिन आपने 'ना-ना' करते हुए भी जिस ग़ैरज़िम्मेदारी के साथ 'नेमड्रॉपिंग' की है, वह देखकर तो कोई ठहाका लगाने लगता, लेकिन मैंने नहीं लगाया। एंगेल्स के पत्र को मार्क्स का बता दिया, मार्गरेट हार्कनेस को मिन्ना काउत्स्की बना दिया। लेनिन की प्रसिद्ध दार्शनिक कृति में जो प्रतिपाद्य है, उसके ठीक विपरीत अटकलपच्चू कुछ लिख दिया। 'आह क्यू की सच्ची कहानी' और 'तमस' की कुछ अगड़मबाइस व्याख्या कर डाली। एक तो बहुत सारे नाम गिनाये और जो भी सन्दर्भ बताये, सब ग़लत-सलत। ऐसा नहीं करना चाहिए। लेखकों-विचारकों को अपने विचार तो ख़ूब रखने चाहिए, पर तथ्यों के बारे में आम पाठकों को ग़लत जानकारी नहीं देनी चाहिए, दिग्भ्रमित नहीं करना चाहिए।
(13) आपका विचार है कि क्रान्ति पूर्वनिर्धारित वैज्ञानिक नियमों से नहीं बल्कि स्वाभाविक मानवीय 'चेतना' से सम्पन्न होती है। आप 'नेमड्रॉपिंग' का आरोप लगा देंगे, इसलिए इस धारणा के विरुद्ध मार्क्स-एंगेल्स ने डेढ़ सौ वर्षों पहले जो दार्शनिक तर्क और ऐतिहासिक तथ्य दिये थे, उनके हवाले तो मैं दे नहीं सकती। आप जैसे अध्यवसायी अध्येता ने तो पढ़ा ही होगा, आप ही बतायें, आपके प्रतितर्क क्या हैं? सामाजिक क्रान्तियों के ऐतिहासिक आवश्यकता-प्रसूत होने की जिस वैज्ञानिक नियम संगति को मार्क्सवाद ने दर्शन, इतिहास और अर्थशास्त्र से स्थापित किया था, उसे आप किस आधार पर ख़ारिज करते हैं? यदि महज स्वाभाविक मानवीय चेतना से ही क्रान्तियाँ सम्पन्न होती हों, तबतो समाजवाद तीन-चार सौ साल पहले भी आ सकता था, और हो सकता है कि तीन-चार सौ साल बाद भी न आये (वैसे भी आयेगा तो 'लूट' लिया जायेगा)! आवश्यकता और सांयोगिकता के द्वंद्व को आप नहीं समझते और आपका ज़ोर सिर्फ़ सांयोगिकता पर ही है। दूसरी बात, सामाजिक परिवर्तन की वैज्ञानिक नियम-संगति को ही आप वैज्ञानिक नियतत्ववाद मानते हैं और क्रान्ति की वैज्ञानिक नियमानुकूलता का अर्थ यह मानते हैं कि इसमें चेतना की, 'ह्यूमन एजेंसी की या आत्मगत उपादान की कोई भूमिका ही नहीं होती (आपकी इस हास्यास्पद समझ की चर्चा मैं पहले कर चुकी हूँ)। 'लूई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रूमेर' (जिसे पढ़ने की नेक सलाह आपने मुझे दी थी) आपने किस तरह पढ़ा है कि उसकी शुरुआत से दूसरे पैराग्राफ़ की इन पंक्तियों को ही नहीं समझ सके हैं: ''मानव-जन अपना इतिहास स्वयं बनाते हैं, पर अपने मनचाहे ढंग से नहीं। वे उसे अपनी मनचाही परिस्थितियों में नहीं, अपितु ऐसी परिस्थितियों में बनाते हैं जो उन्हें अतीत से प्राप्त और अतीत द्वारा सम्प्रेषित होती हैं और जिनका उन्हें सीधे-सीधे सामना करना होता है।'' शुरू के पूरे पाँच पृष्ठ जितने अद्भुत काव्यात्मक है, उतने ही समृद्ध दार्शनिक अन्तर्वस्तु से खचित भी। पर इसकी दार्शनिक अन्तर्वस्तु को आप एकदम नहीं पकड़ पाये। हवाले अनगिनत हैं। पर आप जैसे गहन अध्येता ने लेनिन की कृति 'दूसरे इण्टरनेशनल का पतन' का वह अंश तो पढ़ा ही होगा जहाँ लेनिन ने क्रान्तिकारी परिस्थितियों के लक्षण गिनायें हैं और फिर तफ़सील से यह बताया है कि हर क्रान्तिकारी परिस्थिति क्रान्ति को जन्म नहीं देती। क्रान्ति तब तक नहीं हो सकती जबतक वस्तुगत स्थिति के अतिरिक्त आत्मगत शक्तियाँ तैयार न हो, यानी मज़दूर वर्ग संगठित न हो, विचारधारात्मक रूप से समृद्ध एक हरावल के नेतृत्व में संगठित न हो। वह हरावल शक्ति कैसे बनती है, उसकी संरचना और कार्यप्रणाली क्या हो, वह मज़दूर वर्ग को 'क्लास फॉर इटसेल्फ' की चेतना कैसे दे, जनउभारों को क्रान्ति की दिशा में कैसे आगे बढ़ाये, इसपर लेनिन की दो पुस्तकें और पचासों लेख (विशेषकर 1895 से 1905 के बीच के) हैं, पर मैं उनके हवाले नहीं दूँगी। क्रान्ति की पूरी तैयारी में, वस्तुगत स्थितियों और आत्मगत शक्तियों का द्वंद्वात्मक संबंध होता है, लम्बे टाइम-फ्रेम की निश्चितता और छोटे टाइम फ्रेम की अनिश्चितता के बीच का द्वंद्व होता है, सूक्ष्म स्तर की अनिश्चितता और व्यापक स्तर की निश्चितता के बीच द्वंद्व होता है तथा आवश्यकता और सांयोगिकता के बीच का द्वंद्व होता है। अत: जाहिर है कि मैं ''अमानुषिक फ़ायरबाखियन पदार्थवादी'' (वैसे फ़ायरबाख का पदार्थवाद यांत्रिक भले ही हो, अमानुषिक तो कत्तई नहीं था, यह उस महान दार्शनिक के लिए एक गाली है) कत्तई नहीं, बल्कि द्वंद्वात्मक भौतिकवादी हूँ , लेकिन क्रान्ति को ''स्वाभाविक मानवीय चेतना'' का नतीजा मानते हुए आप निरे हेगेलियन भाववादी का आदिप्ररूप (प्रोटोटाइप) ही हैं।
(14) आपका मानना है कि समाजवाद (जिसे आप साम्यवाद कहना चाहते हैं, पर यह एकदम ग़लत है, साम्यवाद समाजवाद की शताब्दियों लम्बी संक्रमण-अवधि के बाद की अवस्था होगी, सन्दर्भ बताने से आप बिदकते हैं, इसलिए इतना ही कहूँगी कि इनके फ़र्क को मार्क्स और लेनिन की प्रसिद्ध कृतियों से जान लीजिये) और पूँजीवाद-साम्राज्यवाद -- दोनों ही औद्योगिक सभ्यता की उपज हैं अत: दोनो की ही कुछ सीमाएँ होंगी। इससे ध्वनित होता है कि दोनों की सीमाओं में कुछ समानता होनी चाहिए, बुराइयों में भी कुछ समानता होनी चाहिए। ये प्रकृतिवादियों के पुराने तर्क हैं जो ''औद्योगिक सभ्यता'', ''मशीनी सभ्यता'' आदि शब्दों में आज की सभ्यता और आगे की सभ्यता में बाँधकर देखते हैं और फिर लाल कपड़ा देखकर बिदकने वाले साँड़ जैसा आचरण करते हैं ( हालाँकि ऐसे सभी बुद्धिजीवी ''औद्योगिक सभ्यता'' की सभी देनों का अपने रोज़मर्रे के जीवन में खूब इस्तेमाल करते हैं और ''प्रकृति की गोद'' में लौट जाने के बारे में ज़रा भी नहीं सोचते) ! मशीनें और कम्प्यूटर अपने आप में और कुछ नहीं क्रमश: मनुष्य के हाथों और मतिष्क के बाह्य विस्तार हैं। ये उत्पादन के साधन हैं। ये हमारे ऊपर शासन नहीं करते, इनके स्वामी करते हैं। पूँजीवाद ने उत्पादक शक्तियों (विज्ञान, तकनोलॉजी, मशीनों सहित) का अभूतपूर्व विकास किया और नयी मशीनों ने उत्पादन-प्रणाली का ज़्यादा से ज़्यादा समाजीकरण सम्भव बना दिया, दूसरी ओर उत्पादन के साधनों के स्वामित्व का चन्द हाथों में संकेन्द्रण बढ़ता गया। इस बुनियादी अन्तरविरोध को केवल उत्पादन के साधनों के स्वामित्व का समाजीकरण करके ही हल किया जा सकता है। उद्योग या औद्योगिक सभ्यता निरपेक्षत: कोई बुरी चीज़ नहीं है। बुरी बात यह है कि जब उत्पादन मूलत: सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए न होकर मुनाफ़े के लिए होता है तो अंधी हवस की इस होड़ में पूँजीपति न केवल श्रम शक्ति को, बल्कि प्रकृति को भी अंधाधुंध निचोड़कर पारिस्थितिक विनाश का संकट पैदा कर देते है (मार्क्स ने ही इसकी चर्चा की थी, इस प्रश्न पर मार्क्सवादी दृष्टि से लिखी गयी कई किताबें मौजूद हैं)। साथ ही, पृथ्वी की थोड़ी सी आबादी की रुग्ण विलासिता और अपव्यय तथा बाज़ारों की प्रतिस्पर्द्धा से जन्म लेने वाले युद्ध और शस्त्रों की प्रतिस्पर्धा भी पर्यावरणीय विनाश रचती हैं। यदि उत्पादन मुनाफ़े की जगह सामाजिक उपयोगिता से निर्देशित हो और नियोजित अर्थतंत्र हो तो कथित औद्योगिक सभ्यताजन्य इन सभी संकटों से मुक्ति पाई जा सकती है। जिस तकनोलॉजी से पकृति को नुकसान होता है, उसकी क्षतिपूर्ति भी उसी तकनोलॉजी से की जा सकती है। पूँजीवाद की समाप्ति से युद्धों की समाप्ति का सवाल जुड़ा है। जीवाष्म ईंधन की जगह अक्षय ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत व तकनोलॉजी मौज़ूद हैं। विज्ञान, तकनोलॉजी, उत्पादन और जीवन स्तर तो आगे जायेंगे ही, यह इतिहास की स्वाभाविक गति है। हम पीछे नहीं लौट सकते। यह पुरोगामी दृष्टि है। विनाश की जड़ पूँजीवादी ढाँचा है, विज्ञान या उद्योग नहीं। ''औद्योगिक सभ्यता'' का दूसरा परिणाम आत्मिक धरातल पर अलगाव (एलियनेशन) और विमानवीकरण बताया जाता है। पर ये चीज़ें पूँजीवादी श्रम-विभाजन की उपज हैं। अत: औद्योगिक सभ्यता अपने आप में कोई चीज़ नहीं है, बात पूँजीवादी सभ्यता की होनी चाहिए। उत्पादन के साधनों के अभूतपूर्व विकास के बावजूद समाजवाद मुनाफ़े एवं प्रतियोगिता की चालक शक्ति से संचालित नहीं होने के कारण न तो पारिस्थितिक संकट पैदा करेगा, न ही,(पूँजीवादी श्रम-विभाजन के क्रमश: खतम होने के चलते) अलगाव, सामाजिक विघटन और विमानवीकरण को जन्म देगा। अत: यह सूत्रीकरण बेमानी है कि समान औद्योगिक सभ्यता की उपज होने के चलते पूँजीवाद और समाजवाद की कुछ समान कमज़ोरियाँ और कुछ समान सीमाएँ हैं। सोवियत संघ में पर्यावरण का प्रश्न (उस समय संकट इतना प्रत्यक्ष था भी नहीं) सचेतन तौर पर एजंडे पर नहीं था, इसका एक कारण गृहयुद्ध और भुखमरी के बाद एक दशक बीतते-बीतते फासिस्ट संकट के विरुद्ध सामरिक तैयारियों में जुट जाना भी था। चीन में पर्यावरण संतुलन के प्रश्न पर (ज़ाहिर है, ''बाज़ार समाजवाद'' के पहले) समाजवादी निर्माण के दौरान ध्यान दिया गया। यह समस्या पिछले 40-50 वर्षों में गम्भीर होकर, ध्यानाकर्षण का केन्द्र बनी है।
(15) अब आपके अगले प्रश्न का उत्तर । पूँजीवादी व्यवस्था इसलिए स्वत: किसी अगली व्यवस्था में संक्रमण नहीं कर सकती, क्योंकि उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व के बढ़ते केन्द्रीकरण और उत्पादन प्रक्रिया के समाजीकरण के अन्तरविरोध को इसके दायरे में हल किया ही नहीं जा सकता, एक उत्पादन स्थल पर संगठनबद्धता और समूचे उत्पादन में अराजकता को समाजवादी नियोजन के बग़ैर हल किया ही नहीं जा सकता, अधिशेष विनियोजन (सरप्लस एप्रोप्रियेशन) की प्रक्रिया के जारी रहते 'फालिंग रेट ऑफ प्रॉफिट' की शाश्वत पूँजीवादी समस्या का अंतिम समाधान निकाला ही नहीं जा सकता। दूसरी ओर, समाजवाद इसलिए एक संक्रमणशील व्यवस्था है क्योंकि उत्पादन के साधनों के स्वामित्व का समाजीकरण स्वयं एक सापेक्षिक, क्रमश: आगे बढ़ने वाली प्रक्रिया है। कृषि का उदाहरण लें -- सहकारीकरण, सामूहिकीकरण, राजकीयकरण -- ये तीन अवस्थाएँ हैं। जनता की चेतना का अतिक्रमण करके सीधे उच्चतम रूप पर छलाँग नहीं लगाया जा सकता। और फिर प्रश्न केवल स्वामित्व के रूप का ही नहीं, उत्पादन और विनिमय के पूरे सम्बन्धों को रूपांतरित करने का होता है, जो रातों रात नहीं हो सकता । जनता ही इसके लिए तैयार नहीं होगी। उदाहरण के तौर पर, समाजवादी चेतना से लैस नयी बौद्धिक शक्ति तैयार होने और पुराने बुद्धिजीवियों के रूपांतरण तक बौद्धिक श्रम और शारीरिक श्रम का अंतर बना रहेगा, वैज्ञानिकों-शिक्षकों-तकनीकविदों-प्रबंधन-विशेषज्ञों और मज़दूरों के बीच वेतन, सुविधा के अंतर बने रहेंगे, उन्हें तुरत नहीं समाप्त किया जा सकता। उत्पादक शक्तियों के काफी विकसित होने तक गाँव और शहर के, कृषि और उद्योग के अंतर भी बने रहेंगे। इन तीन अन्तरवैयक्तिक असमानताओं के चलते समाजवादी समाज में बुर्ज़ुआ अधिकारों की मौजूदगी बनी रहती है। साथ ही, आम मज़दूरों की चेतना भी क्रान्ति होते यकायक़ इतनी तैयार नहीं हो जाती कि 'मैटीरियल इंसेटिव' को समाप्त किया जा सके और जबतक यह चीज़ बनी रहती है, आम जनता के बीच भी असमानता और लोभ-लालच की संस्कृति भी बनी रहती है। फिर यह भी नहीं भूलना होगा कि लम्बे समय तक अपने ''खोये हुए स्वर्ग'' की प्राप्ति के लिए पुराने शोषक वर्ग सचेष्ट रहते हैं, छोटे पैमाने के माल उत्पादन का अस्तित्व बना रहता है, और मूल्य के नियम मौजूद रहते हैं। साम्राज्यवादी विश्व के प्रभाव की भूमिका भी कुछ कम नहीं होती। फिर राजनीतिक अधिरचना का सवाल आता है। क्रान्ति होते ही आम मज़दूर वर्ग सीधे शासन और प्रबंधन के हाथों को काम में लेने के लिए तैयार नहीं होता। इन कामों में अच्छे-खासे समय तक पार्टी की प्रत्यक्ष भूमिका बनी रहती है और बुद्धिजीवी वर्ग की भी भूमिका बनी रहती है। चेतना के धरातल के उन्नत होते जाने और तृणमूल स्तर से तैयारी के बाद ही क्रमश: यह स्थिति आ सकती है कि आम मज़दूरों और विशेषज्ञों के बीच का अंतर मिट जाये, मज़दूर वर्ग विकेन्द्रित-केन्द्रित नियोजन तंत्र में स्वयं शासन के काम सम्भालने लगे और पार्टी की भूमिका विचारधारात्मक-राजनीतिक मार्गदर्शक की होकर रह जाये। लेकिन इस प्रक्रिया के दौरान ही, लाजिमी तौर पर, शासन तंत्र के भीतर से नौकरशाहाना विकृतियाँ पनपने लगती हैं, विशेषाधिकारों को बनाये रखने की ख़्वाहिशें पैदा होने लगती हैं और पार्टी के भीतर से ही पूँजीवादी पथगामी पैदा होने लगते हैं। अब सामाजिक-सांस्कृतिक अधिरचना को लें। क्रान्ति के बाद, पुराने आर्थिक मूलाधार के तोड़े जाने के साथ ही (हालाँकि ऊपर की चर्चा से यह भी स्पष्ट है कि समाजवादी संक्रमणशील मूलाधार में भी पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्ध बचे रहते हैं) पुरानी अधिरचना तुरत नष्ट नहीं होती और वह अपनी पारी में उलटकर मूलाधार को प्रतिकूल रूप में प्रभावित करती है। साथ ही, समाजवादी संक्रमण अवधि में जो नये बुर्ज़ुआ तत्व पैदा होते हैं, वे भी समाजवाद-विरोधी मूल्यों-मान्यताओं को जन्म देते रहते हैं। आम जनता के भीतर सदियों से जो वर्ग समाज जनित मूल्य और पूर्वाग्रह पैठे होते हैं, उन्हें जादू की छड़ी या डण्डे के ज़ोर से तुरत समाप्त नहीं किया जा सकता। इनके चलते समाज में भी पूँजीवादी पथगामियों का सामाजिक आधार मौज़ूद रहता है। समाजवाद की इन समस्याओं पर 1917 से लेकर 1976 तक (चीन में समाजवाद की पराजय तक) चिन्तन मनन और प्रयोग चलते रहे । इतिहास में इस नयी सामाजिक क्रान्ति के सामने पहले से कोई नज़ीर मौज़ूद नहीं थी। इतिहास की यह त्रासद विडम्बना है कि ऐसी स्थिति में प्राय: (अनिवार्यत: नहीं) असफल होकर ही ज़रूरी शिक्षाएँ हासिल की जाती हैं। सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बाद, उससे सबक लेकर, कई गलतियाँ और प्रयोग करते हुए, चीन में यह निष्कर्ष निकला कि समाजवादी संक्रमण के दौरान, उत्पादन-सम्बन्धों के उन्नततर समाजवादी रूपों को लागू करते हुए, उत्पादक शक्तियों को लगातार विकसित करते हुए, अधिरचना के क्षेत्र में सतत् क्रान्ति पर सर्वोपरि ज़ोर देना होगा, अन्यथा समाजवाद को कम्युनिज़्म की दिशा में आगे नहीं बढ़ाया जा सकता और पूँजीवाद की पुनर्स्थापना को रोका नहीं जा सकता। पूँजीवादी पुनर्स्थापना के इस ख़तरे की और समाजवाद की समस्याओं की चर्चा लेनिन ने भी की थी। मार्क्सवाद के किसी गम्भीर अध्येता के लिए बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों की पराजय, दुखद चाहे जितनी हो, एकदम अप्रत्याशित नहीं थी। आज दुनिया में कोई समाजवादी देश नहीं बचा है। समाजवाद के समस्याओं के निदान की आम दिशा की समझ हासिल करने तक पहुँचते-पहुँचते चीन में भी वर्ग शक्ति संतुलन बदल चुका था और वहाँ भी 1976 से पूँजीवादी राह पर विपथगमन शुरू हो गया। लेकिन पूँजी और श्रम के बीच विश्व-ऐतिहासिक महासमर का अभी पहला चक्र ही समाप्त हुआ है। इससे प्राप्त शिक्षाओं के साथ इस सदी में इस महासमर का दूसरा चक्र शुरू होना ही है (जो शायद निर्णायक भी हो) । बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों के पहले चक्र की पराजय मार्क्सवादी विचारधारा की पराजय नहीं है।
16) उदय प्रकाश जी, आपकी सारी समस्या यह है कि आप समाजवादी संक्रमण की प्रकृति और उसकी समस्याओं-चुनौतियों के बारे में कुछ भी जाने-समझे बिना, उसे मानवता की सारी समस्याओं को चुटकी बजाते हल कर देने वाला ईश्वर समझते रहे और वह ईश्वर जब असफल हो गया तो आप मूल ईश्वर में शरण्य ढूँढने चल दिये। आप गहन संशय और निराशा में डूबकर यह फैसला देने लगे कि क्रान्तियाँ हमेशा 'लूट' ली जाती हैं और अंतत: व्यवस्था में उन्हीं का प्रभुत्व बना रहता है, जो पहले भी शासक थे। अत: नतीज़ा तो यही निकला कि क्रान्ति की हर कोशिश सिसिफस के निष्परिणामी उद्यम जैसा ही है। आप समाजवादी समाज का वर्ग विश्लेषण नहीं कर पाने के कारण पूँजीवादी पथगामियों के गुट के बजाय क्रान्ति के समूचे नेतृत्व पर ही यह आरोप लगाने लगे कि उसने सत्ता सम्हालने के बाद मार्क्स और लेनिन की विचारधारा को ''ठगी, निहित स्वार्थ, भ्रष्टाचार और झाँसे का औज़ार बना लिया।'' भारत के संशोधनवादी कम्युनिस्टों के पतित आचरण और यहाँ के कम्युनिस्ट आंदोलन की विफलताओं (जिनके कारणों पर अलग से विस्तृत चर्चा की जा सकती है) के कारणों को भी आपने अपने सामान्यीकृत निष्कर्षों के फ्रेम में व्यवस्थित कर लिया। आपके निष्कर्षों को यदि मैं निराधार फतवों को नाम दूँ तो यह भला कैसे अनुचित होगा?
(17) त्रात्स्की और स्तालिन के बारे में आपकी सारी जानकारियाँ शीतयुद्ध काल में पश्चिम में लिखे गये इतिहास पर आधारित लगती हैं। इधर ग्रोवर फर सहित अमेरिका के ही कई इतिहासकार रूसी अभिलेखागार से प्राप्त नयी जानकारियों के आधार पर स्तालिनकाल के इतिहास का पुनर्लेखन कर रहे हैं। इसीलिए मैंने आपको ग्रोवर फर, लूडो मार्टेन्स और मारियो सूसा आदि को पढ़ने का तथा त्रात्स्की पर कोस्तास मावराकिस को पढ़ने का सुझाव दिया तो आप आहत हो गये। पढ़ने में बुराई क्या है? असहमत होने पर ख़ारिज कर दीजियेगा। नौकरशाही पर जिस त्रात्स्की को आपने उद्धृत किया है, वह स्वयं इतना बड़ा नौकरशाह था कि सत्ता में रहते समय (दसवीं कांग्रेस के समय) उसने ट्रेड यूनियन तक के राजकीयकरण का प्रस्ताव रखा था जिसका लेनिन ने पुरजोर विरोध किया था। पार्टी-नौकरशाहों के विरुद्ध संघर्ष चलाने के लिए स्तालिन स्वयं पार्टी के भीतर कितने सघन रूप में प्रयासरत थे, इस पर ग्रोवर फर का नये दस्तावेज़ी साक्ष्यों सहित लम्बा लेख उसकी वेबसाइट पर मौजूद है और 'कल्चरल लॉजिक' नामक ई-जर्नल में भी मौजूद है। इस पूरे दौर का इतिहास पुनर्विचार और पुनर्लेखन के दौर से गुज़र रहा है। निश्चय ही, स्तालिन 1930 के दशक में समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष की उपस्थिति को समझने में विफल रहे (बाद में समझा) । निश्चय ही उस दौर में अर्थनीति और राजनीति के क्षेत्र में उत्पादक शक्तियों के विकास पर अधिक बल देने की अर्थवादी विच्युति और यांत्रिक भौतिकवादी विच्युति के चलते कई ग़लतियाँ हुई, पर ये प्रयोग की ग़लतियाँ थीं। कुछ अतिरेक भी हुए, पर इनके लिए पार्टी मशीनरी और राज्य तंत्र की किसी हद तक ग़लत कार्यप्रणाली की जगह व्यक्ति के तौर पर स्तालिन को ज़िम्मेदार मानना और उन्हें ''हत्यारा'' और ''तानाशाह'' तक कह देना शीतयुद्धकालीन पाश्चात्य इतिहास लेखन और सतत् मीडिया प्रचार जनित पूर्वाग्रह के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। आज प्रमाणित तथ्य इस बहुप्रचारित धारणा के कत्तई पक्ष में नहीं है। यह कोई अंधपक्षधरता नहीं है। आगे कभी समय मिलने पर, इस प्रश्न पर अपने ब्लॉग पर विस्तार से लिखूँगी।
(18) आपका एक सूत्रीकरण यह भी है कि 'भारत में इस समय तीन ही आइडियोलॉजी सचमुच कार्यशील हैं : जातिवाद, साम्प्रदायिकता और भ्रष्टाचार ।' भ्रष्टाचार तो ख़ैर अपने आप में कोई ऑडियोलॉजी नहीं है, वह पूँजीवादी आर्थिक-सामाजिक ढाँचे का ही एक अनिवार्य उपोत्पाद है जो नवउदारवाद के दौर में नग्नतम और वीभत्सतम हो चुका है। जहाँ तक जातिवाद का सवाल है, आज जाति व्यवस्था के ढाँचे और मूल्यों को पूँजीवादी तंत्र ने सहयोजित (कोऑप्ट) और उत्सादित (सब्लेट) कर लिया है। यह एक पूँजीवादी जाति-व्यवस्था है और इसके विरुद्ध संघर्ष की रणनीति भी इसके चरित्रांकन से ही तय होगी। जहाँ तक साम्प्रदायिकता का सवाल है, साम्प्रदायिक फासीवाद एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन के रूप में इस देश में काफी पहले से मौज़ूद रहा है। 1990 के दशक से आजतक इसकी बढ़ती आक्रामकता और फैलते सामाजिक आधार का बुनियादी कारण आर्थिक कट्टरपंथ (नवउदारवाद) और पूँजीवाद के असाध्य ढाँचागत संकट में देखे जाने चाहिए, जिनके दबाव के चलते रहा-सहा बुर्ज़ुआ जनवाद भी छीजता-सिकुड़ता जा रहा है। इसका एक दूसरा कारण मज़दूर आंदोलन का बिखरना और पीछे जाना है। साम्प्रदायिक फासीवाद का नया सामाजिक आधार शहरों के कारपोरेट कल्चर में रचे-पगे मध्यवर्गीय युवाओं, कुलीन मज़दूरों और गाँवों के पूँजीवादी मालिक किसानों के अतिरिक्त,उत्पादन की प्रक्रिया से अंशत: या पूर्णत: बाहर कर दी गयी उस ''अतिरिक्त'' मज़दूर आबादी में तैयार हुआ है जो विमानवीकरण और लम्पटीकरण का शिकार है। पूँजीवादी संकट का क्रान्तिकारी समाधान यदि तैयार नहीं होगा तो लाजिमी तौर पर उसका फासीवादी समाधान सामने आयेगा। बहरहाल, यह अपने आप में एक लेख का विषय है। आप यदि मार्क्सवादी ढंग से इन परिघटनाओं का सामाजिकार्थिक विश्लेषण नहीं करेंगे तो सारसंग्रहवादी ढंग से इन्हें गिनाने और इनको लेकर हवा में कुछ धिक्कार और नसीहतें उछालने या रोने-बिसूरने के अतिरिक्त आपके पास कहने को कोई ठोस बात नहीं होगी, कोई ठोस 'ऑपरेटिव पार्ट' नहीं होगा आपकी सारी बातों का।
सामान्य ज्ञान वर्धक बहस। असामान्य ज्ञान प्रदर्शक बहस।
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण बहस। असामान्य(!) सामान्य बन जाए तो सार्थक बहस।
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया विचार परक बहस, कविता कृष्णपल्लवी जी की बात उदयप्रकाश जी को तो कभी भी समझ मे नहीं आएगी यह बात तो कविता जी और बाकी सभी लोग भी जानते हैं। लेकिन जिस सलीके और धैर्य के साथ कविता जी ने पूरे मार्क्सवादी विचारधारा की विवेचना की है वह अद्भुत और Mind hunting है।
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