-कविता कृष्णपल्लवी
अन्य संसदीय पार्टियों के साथ ही, अब केजरीवाल का घोषणापत्र भी आ गया है। पंद्रह दिनों में जनलोकपाल, मुफ्त पानी, आधी कीमत पर बिजली -- शहरी मध्यवर्ग के लिए ढेरों लोकलुभावन वायदे! मगर ऊपर से नीचे तक नेताशाही और नौकरशाही पर निगरानी रखने वाले जनलोकपाल का विराट नौकरशाही तंत्र भला भ्रष्ट क्यों नहीं हो सकता। नौकरशाही तंत्र को नेताशाही से स्वायत्त करने का मतलब यह हुआ कि अफसर नेताओं से कम भ्रष्ट है (या दबाव उनसे भ्रष्टाचार कराता है)। यहाँ केजरीवाल का वर्ग-भाईचारा बोल रहा है। उच्च मध्यवर्ग के अफसर नेताओं से कम भ्रष्ट और जनविरोधी नहीं है। नौकरशाही राज्यसत्ता की रीढ़ है, नेता तो आते-जाते रहते हैं। नेता और अफसर मिलकर पूँजी की सेवा करते हैं और लूट एवं शोषण के तंत्र में भ्रष्टाचार की जो रक़म उनकी जेबों में जाती है, वह मज़दूरों से निचोड़े गये अधिशेष का ही एक भाग होती है। नेताओं को बुरा बताकर जो नौकरशाही को खुले हाथ देने की बात करता है, वह रहे-सहे बुर्ज़ुआ जनवाद को भी नगण्य बनाकर पूँजी के नग्न-निरंकुश सर्वसत्तावाद का पैरोकार है।
केजरीवाल नवउदारवादी आर्थिक नीतियों पर कुछ नहीं बोलते। वे साम्राज्यवादी लूट, भारतीय पूँजीपतियों की अंधेरगर्दी पर, राष्ट्रीयताओं के संघर्षों के तथा जनसंघर्षों के दमन पर कुछ नहीं बोलते। वे श्रम कानूनों की निरर्थकता और मज़दूरों के उन जनवादी अधिकारों के अपहरण पर भी नहीं बोलते, जो संविधान और क़ानून की किताबों से बाहर ही नहीं आ पाते। केजरीवाल यह क्यों नहीं बोलते कि सभी लोगों को समान स्तर की शिक्षा और समान स्तर की स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने के लिए सभी प्राइवेट स्वास्थ्य संस्थानों और शिक्षा संस्थानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाना चाहिए? केजरीवाल जैसे लोकलुभावन नारों के फेरीवाले इसी व्यवस्था के चाक़ दामन को सिलने वाले रफूगर हैं, उसके चोंगे पर लगे ख़ून और गंदगी के धब्बों को साफ करने वाले ड्राई-क्लीनर हैं। इन्हें पूँजीवाद का नाश नहीं, ''भ्रष्टाचार मुक्त पूँजीवाद'' चाहिए जो ग्यारह टाँग वाले घोड़े जैसा ही एक अजूबा है।
भ्रष्टाचार मुक्त पूँजीवाद असंभव है। पूँजीवाद स्वयं में ही भ्रष्टाचार है। सफेद धन के साथ काला धन भी पैदा होगा ही। पूँजीपति कर-चोरी करेंगे ही, आपसी होड़ के चलते वे नेताओं-अफसरों को घूस देंगे ही। और जहाँ तक नेताओं-अफसरों की बात है, तो लुटेरों के वेतनभोगी कर्मचारियों से सदाचारी होने की उम्मीद भला कैसे की जा सकती है?
सरकार पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी है। नौकरशाही पूँजीवादी उत्पादन एवं विनिमय की मशीनरी के सुचारु संचालन की देख-रेख करती है। संसद मात्र बहसबाजी का अड्डा है। न्यायपालिका धनपतियों के आपसी विवादों में पंच की भूमिका निभाती है और अमीरों-ग़रीबों या लुटेरों-कमेंरों के बीच के विवादों में संविधान क़ानून के प्राधिकार की धौंस दिखाकर अमीरों-लुटेरों का हितसाधन करती है। अपनी छवि बनाये रखने के लिए कुछ मामलों में वह मालिक वर्गों को भी नियंत्रित करती है। वह पूँजीवादी दुर्ग का 'नाइट वाचमैन' है। सशस्त्र बल असली चीज़ है जो कभी-कभी दमन और ज़्यादातर आतंक के दम पर उत्पीड़ितों को नियंत्रित करता है और पूँजी के तंत्र की हिफ़ाजत करता है। पूँजीपतियों और उनकी राज्यसत्ता के स्वामित्व एवं नियंत्रण वाला बुर्ज़ुआ मीडिया जन समुदाय पर बुर्ज़ुआ वर्ग का वैचारिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करता है, उसके दिमाग़ को अनुकूलित करता है कि वह बुर्ज़ुआ शासन को स्वीकार कर ले, क्योंकि उसके पास दूसरा कोई भी व्यावहारिक या बेहतर विकल्प नहीं है।
मूल बात पूरी व्यवस्था के ढाँचे और कार्यप्रणाली को समझने-समझाने की है, साम्राज्यवादी-पूँजीवादी शोषण के तौर-तरीक़ों को समझने-समझाने की है और इसके क्रान्तिकारी विकल्प के बारे में समझने-समझाने की है। सुधारवाद के चिप्पड़ों-पैबन्दों से कुछ नहीं होगा। नाँगनाथ-साँपनाथ में से किसी एक को चुनने के पाँच साला खेल से कुछ नहीं होगा। आप कहेंगे, यह तो दूर की बात है, व्यवस्था अभी इतनी जल्दी कहाँ बदलने जा रही है? यानी यदि सही, न्यायोचित लक्ष्य तक पहुँचने का रास्ता लम्बा और कठिन हो, तो आप ग़लत के खेल में साझीदार बने रहेंगे, या निष्क्रिय मूकदर्शक बने रहेंगे। याद रखिये, दूरियाँ तय करने से ही घटती हैं और सौ मील लम्बी यात्रा की शुरुआत भी एक डग भरकर ही की जाती है।
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