स्वगत
(एक)
कभी-कभी
ऐसा होता है कि
तुम एकदम
अकेले छोड़ दिये जाते हो
सोचने के
कारण
या सोचने
के लिए
कठिन और व्यस्त
दिनों के ऐन बीचो-बीच।
लपटों से
उठते है बिम्ब
और फिर
लपटों में ही समा जाते हैं।
स्मृति-छायाएँ
नाचती हैं निर्वसना
स्वप्नों
के लिए नहीं खुलता
कहीं कोई
दरवाज़ा ।
हवा एकदम
भारी और उदास होती है।
आत्मा का
कोई हिस्सा
राख में
बदलता रहता है।
तुम्हारे
रचे चरित्र चीख़ते हैं।
घटनाएँ-स्थितियाँ
अपने विपरीत में
बदल जाती
हैं।
तमाम
अनुबन्ध्ा
आग के
हवाले कर दिये जाते हैं।
प्रार्थनाएँ
पास नहीं होतीं।
पुनर्विचार
याचिकाओं का
प्रावधान
नहीं होता।
मंच पर नीम
उजाले में
एक के बाद
एक उठते जाते हैं काले पर्दे
और
गहराइयों से निकलकार सामने आती हैं
कभी तुम्हारी
ग़लतियाँ
तो कभी
ग़लतफ़हमियाँ।
राख की एक
ढेरी पर
चढ़ते जाते
हो तुम हाँफते हुए
और घुटने-घुटने तक धँसते हुए
और फिर
थककर बैठ जाते हो।
लेकिन तुम्हारे
आँसू चुप रहते हैं
और
हथेलियाँ गर्म।
हृदय
धड़कता रहता है
और होंठ
थरथराते हैं।
आग अपने
पीछे
एक काला
रेगिस्तान छोड़
किस दिशा
में आगे बढ़ गयी है,
तुम जानते
की कोशिश करते हो।
सहसा तुम्हें
लगता है
कोई आवाज़
आ रही है
उड़-उड़कर, रूक-रूक कर।
शायद
वायलिन पर कोई गहन विचार
और सघन
उदासी भरी धुन है,
या फिर यह
रात की अपनी आवाज़ है।
फिर सन्नाटे
में कहीं
गिटार
झनझना उठता है
तबले की
उन्मत्त थापों के साथ।
किधर से आ
रही है हवा
इन आवाज़ों
को ढोती हुई,
तुम भाँपने
की कोशिश करते हो।
दरअसल जब
तुम्हें लग रहा था
कि तुम कुछ
नहीं सोच पा रहे थे,
तब
फ़ैसलाकुन ढंग से
कोई नतीजा, या कोई नया विचार
तुम्हारे
भीतर पक रहा था,
एक त्रासदी
भरे कालखण्ड का
समाहार
निष्कर्ष तक पहुँच रहा था
और कोई नयी
परियोजना
जन्म ले
रही थी।
-शशि प्रकाश (नवम्बर,1995)
स्वगत (दो)
बॉयलरों
में प्रतीक्षारत था
तारकोल,
आग
राख की
नींद सो रही थी।
रक्त जैसी
रासायनिक संरचना नहीं
फाँसी के
फन्दे जैसी
बुनावट थी
विचारों की
और भले लोग
तोता कुतरे
अमरूद की तरह
डाल से लटक
रहे थे।
कुछ यूँ
हुई थी एक नयी शताब्दी की
इतिहास में
दर्ज़ होने लायक़ शुरुआत
कि अधिकांश
मान्य धारणाएँ और परिभाषाएँ
सन्देह के
दायरे में आ गयी थीं
विचारकों
की दुनिया में
जिसे
निर्लज्जता माना जाये।
मसलन, सुभाषित बोलने वाले
कला-साहित्य
के मनस्वी कालपुरुष
आपराधिक पूँजी
से प्रकाशित
एक अख़बार
के सम्पादक बन जा बैठे थे
अत्याधुनिक,
डरावनी
शानो-शौक़त वाले
सम्पादकीय
कक्ष में,
अपनी
चिलमची और काव्यशास्त्र की सिद्धगुटिका
किसी बौने
तोताचश्म को सौंपने के बाद
और नयी
भरती के लिए
उन कवियों
का बायोडाटा देख रहे थे
जिनकी मानवीय
संवेदना
बेहद
सूक्ष्म-सघन मानी जाती थी
और नेपथ्य
में बज रहा था कभी
राग
जैजैवंती तो कभी तिलक कामोद।
भागमभाग, भुखमरी, सस्ती शराबों,
अपने सस्ते
चुम्बनों के साथ प्रस्तुत कस्बाई लड़कियों,
कटते
जंगलों, विस्थापनों, जादुई तकनीकों,
इलेक्ट्रॉनिक
माध्यमों से संचरित
गलदश्रु
भावुकता और बर्बरता और रुग्ण ऐन्द्रिकता
के बीच
विचार दलालों की भूमिका में थे
और भाषा
छिनालपन की
तमाम हदें पार कर चुकी थी।
एक शब्द -
निरुपायता
पूरे ब्रह्माण्ड
का भ्रमण कर रहा था
और
आकाशवाणी हो रही थी कि
जो भी है, उसे स्वीकार करें सर्वजन
अपनी नियति
या सौभाग्य मानकर।
और यह सब
कुछ तुम भी देख रहे थे
लेकिन
सदियों पुराने अखरोट के
एक वृक्ष
की तरह नहीं,
झुण्ड से
अलग कर दिये गये
बूढ़े भेड़िये
की तरह भी नहीं,
बल्कि
सफ़ेदी के विस्तार में
जीते
जिद्दी एकाकी ध्रुवीय भालू की तरह।
पूर्वजों द्वारा
सौंपी गयी रस्सी से बँधे
ईमानदार, कर्त्तव्यनिष्ट और बहादुर लोग
लगातार
भूसे की दँवरी-मड़ाई कर रहे थे
और नयी
फ़सलें खेतों में
देख-रेख की
माँग कर रही थीं।
सीलन और
सड़ाँध भरे
अँधेरे
रास्तों से बाहर आये विचार
परिस्थितियों
को
अन्धे छछुँदर
की तरह सूँघ रहे थे।
अपने बिलों
के द्वार पर बैठे झींगुर
नागरिक
आज़ादी और जनवाद के बारे में
चीख़ रहे
थे
और पैरों
की धमक सुनते ही
भीतर दुबक
जा रहे थे।
कविता में
जीवन था
चहबच्चे
के पानी में पलते पूँछदार शिशु मेढकों के मानिन्द ।
तुम सोचने
लगे उन दिनों के बारे में
जब आवारा
पत्ते की तरह
उड़ते रहे
तुम
इस शहर से
उस शहर,
इस ठीहे से
उस ठीहे,
अनिद्रा, सूख चुके आँसुओं
और बढ़ती
हुई झुर्रियों
और टूट
चुके रिश्तों की टीसती यादों के साथ,
लातिनी
दुनिया के अनगिन रहस्यों
और पुरातन
अफ्रीकी योद्धा के
जादुई काले
मुखौटे के साथ।
मुहाने तक पहुँचने
की ज़िद के साथ
तुम नदी की
धारा के साथ तैरते रहे
चीखती
गंगाचिल्लियों, कूजते कलहंसों
और ध्यानमग्न
बगुलों को
पीछे
छोड़ते हुए।
मँडराते
रहते थे तुम्हारे आस-पास
पनकुकरी, मछरंगा, कौडि़ल्ला, कचबचिया, फुदकी
और बचपन की
जान-पहचान वाले
तमाम
जलपक्षी
लेकिन कुछ
घण्टे या ज्यादा से ज्यादा
दिन भर के लिए
ही
वे रहते थे
तुम्हारे साथ।
मुहाने के
क़रीब जा पहुँचे थे तुम
चिग्घाड़ते
सागर से बस कुछ ही मील दूर
और सोचा
मज़े के साथ
अपनी
आवारगी को बचा ले जाने की
सफलता के
बारे में,
प्रकृत्ति
और जीवन और स्त्रियों के
रहस्यों
के बारे में
और उन बीहर
वनस्पतियों के बारे में
जिनके
पत्तों को पीला कर पाने में
दुनिया के
तमाम हर्बिसाइड्स नाकाम रहे।
लगभग असम्भव
होते जा रहे
हालात से
कहीं अधिक,
तब तुम सोच
रहे थे
अपनी छोटी-छोटी
सफलताओं के बारे में
और यह कि
दुनिया देख
घर बैठे लोगों ने
भले ही
तुम्हें अकेला करने की
बारहों
कोशिशें कीं,
ज़िन्दगी
ने कभी तुम्हें नाशुक्रा नहीं माना।
तुम सोच
रहे थे कि आकस्मिक
तुम्हारी
मृत्यु शान्ति और राहत भरी होगी
कि सहसा एक
कुटिल जाल ने
तुम्हें
लपेटा और किनारे ला पटका।
एक-दूसरे की आत्माओं को
मृत्युदण्ड
दे चुके
विद्वान न्यायमूर्तियों
की एक बेंच ने
तुम्हारे
जटिल मुकदमे को
चुटकी
बजाते सुलझाया
और तुम्हें
एक अन्धी सुरंग में
आजीवन
कारावास का दण्ड सुनाया ।
अब तुम्हारे
पास सोचने को समय था बहुत कुछ के बारे में,
मसलन, जीवन की वास्तविकता के बारे में
अविश्वासके
बारे में,
मौसम की
भविष्यवाणियों की अनिश्चितता के बीच
बनायी गयी
नयी यात्राओं की योजनाओं के बारे में,
धूमिल-धूसर क्षितिज से परे रोशनी,
धूप में
सँवलायी जि़न्दगी,
अनजान
द्वीपों के ख़ुशदिल और दिलेर लोगों,
जीवन्तता
से सराबोर सस्ती सरायों
और अधिशेष निचोड़ने
के नये-नये तौर-तरीकों
और मनुष्यता
की न्यूनतम शर्तों को
खो देने
वाले लोगों के बारे में।
तुम सोचते
रहे
और नदियों
के हर घुमाव
तुम्हें
याद आते रहे।
तरह-तरह की वनस्पतियाँ
छोटे-छोटे फूलों वाली घास,
संगमरमर की
चट्टानों की दरारों में उगी
जिजीविषा
जैसी झाड़ियाँ,
क्षितिज तक
फैले
निश्चल
रेवड़ जैसे जंगल,
बीहड़
मैदानों के खड्ड-खाई भरे विस्तार,
बोझिल और
घिसी-पिटी,
भयानक और
असह्य कस्बाई कूपमण्डूकी ज़िन्दगी
के बीच
पलती निर्मल भावनाएँ और सशक्त कल्पनाएँ,
अकथ दु:खों
के बीच भी
हर्ष से
हुमकने-छलकने की क्षमता रखने वाली स्त्रियाँ,
मज़बूत
इरादों वाले बुद्धू बूढ़े
और नवें
आसमान तक उड़ने का
मंसूबा बाँधने
वाले नौजवान
तुम्हें
याद आते रहे।
स्मृतियाँ
तुम्हारे ऊपर
जादुई
उपहारों की बारिश करती रहीं
और धूल-धूसरित भोर में अप्रत्याशित
तुमने अपने
को खुले आसमान के नीचे पाया
जब तारे
बुझने को थे।
तुम मुक्त
थे
गगनभेदी
तुमुल हाहाकार के बीच
और तुमने
सहसा एक आविष्कार किया।
तुमने पाया
कि
तमाम
पुरातन और नूतन बुराइयों के बावजूद,
मेहनतकश और
ईमानदार निश्छल लोगों,
लगातार
चकित करती और चुनौती देती
पर्वत-श्रृंखलाओं, सदानीरा नदियों और
सागरों की
सुदीर्घ तटरेखा सहित
इस देश को
पृथ्वी के
एक बेशकीमती टुकड़े के रूप में
तुम वाक़ई
बहुत प्यार करते हो
और इसके
भविष्य के बारे में
कई तरह से, कई रूपों में
लगातार
सोचते रहते हो।
तुमने जाना
कि
अतीत जब तक
सोता रहा
भविष्य
मुँह चिढ़ाता रहा।
तुमने यह
जाना कि
अतीत के
कारण हम जीते हैं
और अतीत के
करण ही खत्म हो जाते हैं
जैसा कि
गोएठे ने कहा था
लेकिन एक
नयी शुरूआत के लिए
ज्यादा
महत्तवपूर्ण थी गोएठे की ही यह बात
कि एक नयी
सच्चाई के लिए एक पुराने भ्रम से
ख़तरनाक
कुछ भी नहीं होता।
सपने अब
आतुर थे
आलोचनात्मक
विवेक के सहारे
भविष्य का
पूर्वानुमान बनने के लिए।
दुनिया के
गर्म प्रदेशों में
दीवानगी
दुनियादारी का ज़हर चूस रही थी
अहसासों
में सादगी,
विचारों
में मौलिकता,
समर-संकल्पों
में निर्णायकता,
प्रतिबद्धता
में अटूटता
और प्यार
में ईमानदारी की वापसी हो रही थी
और जीवितों
की एक छोटी-सी दुनिया
अपने
कायाकल्प के लिए
आतुर हो
रही थी
अब तुम सोच
रहे थे
रात में
सफे़द कौंधों और फेनिल लपटों वाले
महासागरों,
रहस्यपूर्ण
द्वीपों, उकसाते पर्वतों
और
जिज्ञासा जगाते
विराट समतल
प्रदेशों के बारे में
और समुद्री
शैवाल जैसे
जीवन के
आदिम स्रोतों के बारे में
और आने
वाले समय के मानचित्र के बारे में।
यूँ तो
तमाम भौतिक वस्तुओं की
रहस्यमय
गतिविधियों को
पहले भी
कभी तुमने
बहते पानी
की तली में पड़े
उस निश्चल
पत्थ्ार की तरह नहीं देखा था
जिसे
शताब्दियों तक बहाव ज़्यादा से ज्यादा
चिकना
बनाता रहा।
कभी चक्कों
की तरह तो कभी पंखों की तरह गतिमान
तुम चीज़ों
की छवियाँ आँकते रहे थे।
पर अब तुम
सागर की सर्पिल अग्रगामी लहरों की तरह,
आगे बढ़ते
हुए,
एक
वर्तुलाकार बवण्डर की तरह
ऊपर उठते
हुए,
चीज़ों तक
पहुँच रहे थे
और उनके
अन्दरूनी द्वन्द्वों का
अध्ययन कर
रहे थे।
तुम्हें
हँसी आयी
ठूँठों की
सभा में कभी प्रस्तुत किये गये
अपने
एकायामी विचारों
और रूमानी
आह्वानों को याद करके
तुम अब
समय-समय पर ऊफन पड़ने वाली
अपनी
शिशुवत क्रूरता,
बेहरम
लोगों पर की गयी प्यार की बारिश
विरक्तियों
के अतिरेक
और
जान-बूझकर छले जाने की
अपनी आदतों
को भी
एक हद तक
समझ पा रहे थे
और तुम्हारी
सारी सरगर्मियों का दायरा
एक नया
दहनपात्र बन रहा था
जिसमें
उबलते रसायन से
कोई नया
संश्लिष्ट यौगिक ढलने वाला था
किसी
सुनिश्चित योजना के साँचे में।
यह
सबकुछ हो रहा था तुम्हारे साथ
और उधर
दुनिया लगातार बदलती हुई
कुरुपता-विरुपता
के चरम तक पहुँच रही थी
और उसके
चलने के तौर-तरीके भी
जटिलतम-कुटिलतम
हो चुके थे।
दिशा है
सामने एक धुँधली पथरेखा की तरह
और लगातार
स्पष्ट होती दृष्टि भी।
चीज़ों को
इस हद तक पहचाना जा सकता है
कि आशाओं
का स्रोत अक्षय रहे
लेकिन फिर
भी बहुतेरी समस्याएँ हैं
नित नयी
आती हुई और कुछ अतीत की विरासत भी,
कि नया अभियान
नहीं बन पा रहा है ऊर्जस्वी, गतिमान।
अभी भी
आस-पास हैं झूठे कमज़ोर संकल्प
और खोखले
वायदे,
और अविश्वास,
और पुराने
मताग्रह और पुरानी आदतें,
और भ्रमित
करने वाले अप्रत्याशित बदलाव भी,
जो तुम्हें
लगभग अकेला कर देती हैं
और भीषण
तनाव पैदा करती हैं तुम्हारे भीतर,
ज्यों
धनुष की प्रत्यंचा की तरह
खिंच गयी
हो मस्तिष्क की एक-एक शिरा।
तुम लौटते
हो फिर-फिर
अपने एकान्त, उदासियों, अनिद्रा भरी रातों
और घुटन
भरे अमूर्तनों के पास,
लेकिन गुफा
में घुसते एकाकी योगी की तरह नहीं
बल्कि अपने
खाली डोलों को लेकर
कुएँ में
उतरती उस रहट की तरह
जो पानी
लेकर ऊपर आती है
और डोलों
को चुण्डे में उलट देती है।
मानचित्र तैयार
है लगभग यात्रा-पथ का,
लेकिन
कड़वी पराजयों से उपजी दार्शनिकताओं,
अतृप्तियों-अधूरेपन
से जन्मी विकृतियों,
पुरातन और
नूतन कूपमण्डूकताओं,
आसमानी आभा
वाली आध्यात्मिक वंचनाओं,
शयनकक्षों में
रखी गयी
पिस्तौलों
और विष के प्यालों से भरे
हमारे इस
विचित्र विकट समय में
चीजें फिर
भी काफ़ी कठिन हैं।
चन्द राहत
या सुकून के दिन आते भी हैं
तो
देखते-देखते यूँ बीत जाते हैं
जैसे वीरान
खेतों के बीच से
भागती
नीलगायों का एक झुण्ड गुज़र जाये।
पंखों, चमड़ों, हड्डियों, पत्तियों, चीथड़ों, मल-मूत्र,
टूटे हुए
खिलौनों और तमाम अल्लम-गल्लम चीज़ों से
भरी
कूड़ा-करकट जैसी ज़िन्दगी
सड़ती-गलती
रही इस दौरान लगातार
कुछ
ज़हरीले कीड़े-मकोड़ों के साथ ही
नये-नये
पोषक तत्त्व भी पैदा करती हुई।
और हरबा-हथियार
एवं रसद के जुगाड़,
रूटीनी
कवायद, पूर्वाभ्यास
और हर
अनुमानित चुनौती पर विचार जैसी
भावी
सुदीर्घ और निर्णायक अभियान की
तनाव भरी
तैयारियों के बीच
तुम उतरते
हो फिर-फिर
अपने
अकेलेपन के कुएँ में थके हुए
खाली डोलों
के साथ
बाहर आते
हो चीज़ों की ज़्यादा गहरी समझ के
साथ ही ज़्यादा
से ज़्यादा सघन-सान्द्र
यह अनुभूति
लेकर कि
इस बार
फै़सलाकुन होकर निकलना है हमें
नयी बीहड़
लम्बी यात्रा पर
और जीवन को
ही ढल जाना है
एक सुदीर्घ
'पोज़ीशनल वारफ़ेयर' के रूप में।
एक बार फिर
वह पुरातन आकांक्षा
पुनर्नवा
और दुर्निवार बनकर
आती है
तुम्हारे पास
कि
मुक्तिदायी विचारों को
सबसे पहले, और भरपूर शक्ति
और रचनात्मकता
के साथ,
और निरन्तर
बहुविध तरीकों से,
उन मनुष्यों
तक पहुँचाया जाना चाहिए
जिनके बूते
मनुष्यता बची हुई है
लेकिन
जिनसे छीन लिया गया है
मनुष्यों
जैसा जीवन
और जिनके
कल्पनालोक की मुक्ति ज़रूरी है
एक नयी
शुरूआत को परवान चढ़ाने के लिए।
ताक़त के
खिलाफ़ उन्हें ही साथ लेना होगा
जिनके पास
नहीं होती कोई ताक़त
लेकिन
एकजुट, और विचारों से लैस होकर
जो बन जाते
हैं जड़ और चेतन जगत की
सबसे बड़ी
ताक़त।
अनुर्वरता
के रौरव रोर के बीच
बिना
खिड़कियों-रोशनदानों वाले घरों के
बन्द दरवाज़ों
की दरारों से
रिसकर बाहर
आ रही है।
प्रसव-वेदना
की व्यग्र चीखें।
निश्चय ही,
इस सदी के
बीतने से पहले,
शायद काफ़ी
पहले,
आकाश को
मिल जायेगा उसका अपहृत नीलापन,
इन्द्रधनुष
को उसके चुरा लिये गये रंग,
अनुभूतियों
को चिरन्तन सुन्दरता,
प्यार को
ताज़गी,
विचारों को
मानवीय गरिमा,
और भावनाओं
को उद्दाम संवेग
और फिर
पूरी पृथ्वी चल पड़ेगी
एक नीय
आकाशगंगा में रहने के लिए।
वह दिन जब
निकट होगा
दुष्टता
के उग आयेंगे चींटों जैसे पंख।
तब जो
जीवितों की दुनिया होगी,
याद करेगी पीढ़ियों, घिसे हुए आदिम जूतों,
धीरज, रक्त, अपमानजनक पराजयों
और
तमाम-तमाम दूसरी चीज़ों के साथ
धरती के
गर्भ में
खनिज और
खाद बनकर
निश्चल
पड़े पूर्वजों को
भरपूर
समझदारी और प्यार के साथ।
और हाँ, इन्सानी चर्बी से जल रहे
दीयों की
रोशनी में
चर्मपत्रों
पर लिखे गये
इतिहास के
अन्त और महावृत्तान्तों के विसर्जन के
अभिलेख
सुरक्षित रखने होंगे
ताकि आने
वाले समय में जाना जा सके
कि एक समय
था
जब निराशा
इस क़दर गहरी थी।
-शशि प्रकाश (26-29सितम्बर,2005)
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