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अत: बात यह है कि निश्चित व्यक्ति,
जो उत्पादकता की दृष्टि से निश्चित ढंग से सक्रिय है,
निश्चित सामाजिक तथा राजनीतिक सम्बन्धों में प्रवेश करते हैं। इन्द्रियानुभविक
पर्यलोकन के लिए यह आवश्यक है कि वह हर अलग-अलग मामले में अनुभव के आधार पर तथा
किसी रहस्यीकरण और परिकल्पना के बिना उत्पादन के साथ सामाजिक और राजनीतिक ढाँचे
के सम्बन्ध को सामने लाये। सामाजिक ढाँचा तथा राज्य निश्चित व्यक्तियों की
जीवन-प्रक्रिया में से निरन्तर विकसित होते आ रहे हैं,
परंतु व्यक्तियों की जीवन-प्रक्रिया से, उस तरह से नहीं जैसे वे उनकी स्वयं की या दूसरों
की कल्पना में प्रकट हो सकते हैं, बल्कि जैसे कि वे वास्तव में हैं,
भौतिक उत्पादन करते हैं और उन सुनिश्चित भौतिक सीमाओं,
पूर्वमान्यताओं और स्थितियों के अन्तर्गत क्रियाशील होते हैं जो उनकी इच्छा से
स्वतंत्र हैं।
विचारों
का, संप्रत्ययों का, चेतना का उत्पादन आरम्भ में लोगों के भौतिक
क्रियाकलाप और भौतिक संसर्ग से, वास्तविक जीवन की भाषा से प्रत्यक्षतया
गुँथा-बुना होता है। लोगों की संकल्पना, चिन्तन और मानसिक संसर्ग इस मंजिल पर उनके भौतिक
आचरण के प्रत्यक्ष परिणाम के रूप में प्रकट होते हैं। यही बात मानसिक उत्पादन पर
लागू होती है जैसा कि किसी जनता की राजनीति, क़ानूनों, नैतिकता, धर्म, तत्वमीमांसा आदि की भाषा में अभिव्यक्त होता
है। अपने संप्रत्ययों, विचारों आदि के उत्पादक मनुष्य हैं - वास्तविक
सक्रिय मनुष्य, उस रूप में, जिस रूप में वे अपनी उत्पादक शक्तियों के तथा इनके
समरूप संसर्ग के निश्चित विकास द्वारा, उनके दूरतम रूपों द्वारा अनुकूलित होते हैं। चेतना
चेतन अस्तित्व के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकती,
तथा मनुष्य का अस्तित्व उसकी वास्तविक जीवन-प्रक्रिया होता है। यदि समग्र
विचारधारा में मनुष्य और उनकी परिस्थितियाँ camera obscura की
तरह उलटी नज़र आती हैं तो यह घटना उनकी ऐतिहासिक जीवन-प्रक्रिया से उसीतरह उत्पन्न
होती है जिसप्रकार दृष्टिपटल पर वस्तुओं का प्रतिलोमन उनकी शारीरिक
जीवन-प्रक्रिया के कारण होता है।
जर्मन
दर्शन के, जो स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरता है,
ठीक विपरीत यहाँ हम पृथ्वी से स्वर्ग पर आरोहण करते हैं। कहने का मतलब यह है कि
मनुष्य, जो कहते हैं, कल्पना करते हैं, अनुमान लगाते हैं,
हम उसे आधार बनाकर अग्रसर नहीं होते, न हम लोंगों को उस रूप में आधार बनाकर अग्रसर होते
हैं, जिस रूप में उनका वर्णन किया जाता है,
उनके बारे में सोचा जाता है, उनकी कल्पना की जाती है,
उनके बारे में अनुमान लगाया जाता है, ताकि वास्तविक मनुष्यों तक पहुँचा जा सके। हम
वास्तविक, सक्रिय मनुष्यों से प्रस्थान करते हैं और उनकी
वास्तविक जीवन-प्रक्रिया के आधार पर इस जीवन-प्रक्रिया के विचारधारात्मक
प्रतिवर्तों के विकास ओर उसकी प्रतिध्वनियों को प्रदर्शित करते हैं। मानव मस्तिष्क
में बनने वाले छायाभास भी, अनिवार्यत: उनकी उस भौतिक जीवन-प्रक्रिया के उदात्तीकृतरूप
हैं जो अनुभव द्वारा परखी जा सकती है और भौतिक पूर्वाधारों से बँधी हुई है। इसतरह,
नैतिकता, धर्म, तत्वमीमांसा, बाकी सारी विचारधारा तथा
चेतना के उनके तदनुरूपी रूप स्वतंत्र नहीं हो सकते। उनका कोई इतिहास,
कोई विकास नहीं; परंतु मनुष्य अपने भौतिक उत्पादन और अपने भौतिक
संसर्ग का विकास करते हुए अपने वास्तविक अस्तित्व के साथ अपने चिन्तन तथा अपने
चिन्तन के उत्पादों को भी बदलते रहते हैं। जीवन चेतना द्वारा निर्धारित नहीं
होता, अपितु चेतना जीवन द्वारा निर्धारित होती है। अप्रोच की पहली
पद्धति में चेतना एक सजीव व्यक्ति के रूप में प्रस्थान-बिन्दु है;
दूसरी विधि में यह वास्तविक सजीव व्यक्ति स्वयं हैं,
जैसे कि वे असली जीवन में होते हैं और चेतना को मात्र उनकी चेतना के रूप
में लिया गया है।
अप्रोच
की यह पद्धति पूर्वाधारों से वंचित नहीं है। वह वास्तविक पूर्वाधारों से प्रस्थान
करती है और उन्हें एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ती। उसके पूर्वाधार मनुष्य हैं,
किसी अतिकाल्पनिक अलग-थलग अवस्था में या अमूर्त परिभाषा में नहीं,
बल्कि निश्चित स्थितियों में होने वाले अपने वास्तविक,
आनुभविक ढंग से बोधगम्य विकास की प्रक्रिया में शामिल मनुष्य हैं। जैसे ही इस
सक्रिय जीवन-प्रक्रिया का वर्णन किया जाता है, इतिहास मृत तथ्यों का
संग्रह नहीं रह जाता, जैसा कि अनुभववादी उसे बना देते हैं (जो स्वयं अब
भी अमूर्त हैं), और वह कल्पित कर्ताओं की कल्पित गतिविधि भी नहीं
रह जाता, जिस रूप में भाववादी उसे प्रस्तुत करते हैं।
जहाँ
काल्पनिक चिन्तन का अन्त होता है - वास्तविक जीवन में - वहाँ से वास्तविक,
सकारात्मक विज्ञान की शुरुआत होती है: जो व्यावहारिक क्रियाकलाप का,
मनुष्यों के विकास की व्यावहारिक प्रक्रिया का निरूपण करता है। चेतना के बारे
में खोखली बातें बन्द हो जाती हैं, तथा वास्तविक ज्ञान उसका स्थान ले लेता है। जब
यथार्थ का चित्रण किया जाता है, तो दर्शन, ज्ञान की स्वतंत्र शाखा के रूप में अपने अस्तित्व
का माध्यम खो देता है। ज्यादा से ज्यादा से यह हो सकता है कि इसका स्थान मनुष्यों
के ऐतिहासिक विकास के प्रेक्षणों से नि:सृत अमूर्तन, सर्वाधिक सामान्य निष्कर्षों
का समाहार ले ले। वास्तविक इतिहास से अलग करके देखें तो वैसे भी इन अमूर्तनों का
अपने आप में कोई महत्व नहीं है। वे तो ऐतिहासिक सामग्री को व्यस्थित करने का
काम सुगम बनाने, उसकी पृथक परतों के क्रम को लक्षित करने का ही काम
दे सकती हैं। परंतु वे इतिहास के युगों को साफ-सुथरे ढंग से सँवारने के लिए कोई
नुस्खा या योजनाबंदी प्रस्तुत नहीं करतीं, जैसाकि दर्शन करता है। इसके विपरीत हमारी
कठिनाइयाँ ठीक उस समय शुरू होती है जब हम अपनी ऐतिहासिक सामग्री का,
वह चाहे बीते युग की हों या वर्तमान की, प्रेक्षण करना तथा उसे क्रमबद्ध करना - यानी वास्तविक
चित्रण करना - आरम्भ करते हैं। इन कठिनाइयों को दूर करना उन पूर्वाधारों पर
निर्भर है, जिन्हें यहाँ बताना सर्वथा असम्भव है,
लेकिन जिन्हें हर युग की मनुष्यों की वास्तविक जीवन-प्रक्रिया तथा कार्यक्रलाप
का अध्ययन ही प्रकाश में ला सकता है।
-
कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स (जर्मन विचारधारा,
1846)
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