Thursday, January 12, 2012

चिर सुन्‍दर और चिर नवीन

महान रूसी लेखक अलेक्‍सान्‍द्र इवानोविच हर्ज़न
(1812-1870)

गोएठे का कहना था कि सौंन्‍दर्य अनित्‍य है, क्‍योंकि केवल वही सुन्‍दर हो सकता है जो अनित्‍य और कालातीत है। किन्‍तु लोगों को यह ठीक नहीं लगता। मानव का यह स्‍वभाव है कि वह उस सबको, जो उसे सुखकर-सुहावना मालूम होता है, सुरक्षित रखना चाहता है। एकबार जन्‍म लेने के बाद वह इस तरह जीना चाहता है कि वह अमर रहे, एक बार प्रेम का अंकुरों का उदय होने पर वह जीवनपर्यन्‍त प्रेम करने और प्रेम किये जाने के लिये ललकता है - चाहता है कि उस क्षण का, जब पहली बार उसके हृदय में प्रेम का अंकुर फूटा था, कभी अन्‍त न हो! पचास का होने पर वह जीवन को कोसता है: अब उसमें वह ताज़गी, वह स्‍फूर्ति और चेतना क्‍यों नहीं है, जो बीस वर्ष की आयु में थी। किन्‍तु इस तरह की स्थिरता, इस तरह का टिकाऊ, जीवन की आत्‍मा के प्रतिकूल है। जीवन व्‍यक्तिगत क्षेत्र में किसी भी टिकाऊ चीज़ की व्‍यवस्‍था नहीं करता। अपनी समूची निधि, जो कुछ भी उसके पास है, उसे वह प्रस्‍तुत क्षण में उड़ेल देता है। यह मानव का काम है कि वह उस क्षण का जितना भी उपभोग कर सके, करे। जहां तक जीवन का सम्‍बन्‍ध है, वह किसी भी चीज़ का बीमा नहीं करता - न जीवन का, न आनन्‍द का, न उनकी अवधि का। और जीवन की इस निरन्‍तर गति में, इस निरन्‍तर परिवर्तन में, प्रकृति निरन्‍तर नवीन बनती है, जीवित रहना जारी रखती है। यही व‍ह चीज़ है जो उसे चिर यौवन प्रदान करती है। इसीलिये प्रत्‍येक ऐतिहासिक क्षण अपने आप में पूर्ण होता है - अपने वसन्‍त, अपने ग्रीष्‍म, अपने शरद और अपनी वर्षा ऋतु से युक्‍त। उसमें तूफान भी आते हैं, सुहावने दिन भी - ठीक वैसे ही जैसे कि जीवन के प्रत्‍येक वर्ष में आते हैं। इसीलिए प्रत्‍येक युग वर्तमान के गर्भ में अपनी सारी भलाइयों और वेदनाओं को छिपाये रखता है! 

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