शशि प्रकाश की छ: कविताएं
स्मृति 23 मार्च, 1931
'सत्य ठोस है' (ब्रेष्ट)
और 'नीला आइना बेठोस।' (शमशेर)
बेठोस प्रतिबिम्बित कर रहा है ठोस को
नीलेपन के स्वप्निल रंग से
सराबोर करता हुआ।
मौन बहता है जीवन में
और जीवन का शोर प्रवाहित दिगन्त में।
ठोस है बेठोस।
बेठोस होगा ठोस।
उम्मीदों का रंग नीला
हठ सांवला तपा हुआ
ख़ून हरदम की तरह लाल
बहता हुआ
अनगिन अंधेरी सुरंगों से होकर।
हमारी तमाम लड़ाइयों की तरह
इनकी स्मृतियां
ज्यों ऋतुओं के बारे में
सोचतीं वनस्पतियां।
नींद
कोई प्रार्थना
या अनुरोध नहीं,
हठ नहीं।
नींद को
एक आग्रहपूर्ण आमंत्रण है।
एक नींद
जिसमें दूब की नोक की
चुभन तक न हो,
तारों के नीचे
ओस से नम चटाई जैसी,
हथेलियों की गुनगुनी गर्माहट-सी
सुबह बुहारे गये कच्चे आंगन के
स्वच्छ ठंडेपन जैसी
एक नींद
पीले पड़ते पत्ते जैसी।
एक नींद
चीज़ों की आकृतियां जहां घुल रही हों
और संतृप्त हो रहा हो
समय का घोल।
एक नींद
उनींदी सराय में
घोड़े की पीठ से उतारे जा रहे
मुसाफ़िर के सामानों जैसी
एक थके हुए आहट-सी
थमे हुए कोहरे-सी
नींद।
एक नींद
किसी 'वुडकट' जैसी ठोस,
नरम स्लेटी पत्थर जैसी,
किसी रेखाचित्र की आकृति के उड़ते बालों-सी।
एक नींद
रिक्तता जैसी
अनवरत अदृश्य फ़ुहारों जैसी।
एक नींद
कविता के विचार
और योजनाओं के स्थापत्य के बीच
सतत उपस्थित तनाव जैसी।
एक नींद
गम्भीर, सरल, शान्त और उदास,
बच्चे के गालों पर
सुबह की धूप की
मद्धम गर्माहट सी।
एक नींद
ज़रूरी तनहाई की,
सोये हुए दु:खों पर ओढ़ायी गई चादर-सी,
उदासी की आत्मीय, मद्धम-सी
टीस जैसी नींद,
एक नींद जो
आत्मा और शरीर के प्रति
बराबर वफ़ादार हो।
एक लम्बे, जटिल संरचना वाले
वाक्य में पिरोये गये
अल्पविराम-सी ज़रूरी नींद,
ज़रूरी अर्थों को खोलती हुई।
विस्मृत लोरी सी नहीं
आसमान की गहराइयों से उतरते-लहराते
पारभासी परदे-सी भी नहीं,
शान्त-सुखद स्वप्नों से सज्जित भी नहीं,
बस एक सीधी-सादी सी नींद
कि सब कुछ रुका हुआ हो
कुछ देर को ही सही।
कहीं योजनाएं प्रतीक्षा करती रहें
(और दूसरी कोई भी प्रतीक्षा न हो)
विचार लौट जायें
बिना दस्तक दिये, फ़िर से आने के लिए
(और कोई भी न आये इस बीच
और आये भी तो लौट जाये
फिर कभी न आने के लिए)
नये तनाव अभी अंकुरित न हुए हों,
किसी उत्तेजित ख़ुशी का शोर
न हो कहीं आस-पास,
कोई आश्वस्ति न हो
फ़िर भी एक नींद।
एक नींद
आम नींदों से अलग
कि सामने पड़े हैं कुछ काम
आम कामों से अलग,
और ज़िन्दगी एकदम आम लग रही है।
एक नींद
कल की ताज़गी
और आने वाले दिनों की ख़ातिर
निमंत्रित है।
कविता शिनाख़्त करती है!
धरती चाक की तरह घूमती है।
ज़िन्दगी को प्याले की तरह
गढ़ता है समय।
धूप में सुखाता है।
दु:ख को पीते हैं हम
चुपचाप।
शोरगुल में मौज-मस्ती का जाम।
प्याला छलकता है।
कुछ दु:ख और कुछ सुख
आत्मा का सफ़ेद मेज़पोश
भिगो देते हैं।
कल समय धो डालेगा
सूखे हुए धब्बों को।
कुछ हल्के निशान
फ़िर भी बचे रहेंगे।
स्मृतियां
अद् भुत ढंग से
हमें आने वाली दुनिया तक
लेकर जायेंगी।
कठिन समय में विचार
रात की काली चमड़ी में
धंसा
रोशनी का पीला नुकीला खंज़र।
बाहर निकलेगा
चमकते, गर्म, लाल
ख़ून के लिए
रास्ता बनाता हुआ।
द्वन्द्व
एक अमूर्त चित्र मुझे आकृष्ट कर रहा है।
एक अस्पष्ट दिशा मुझे खींच रहीं है।
एक निश्चित भविष्य समकालीन अनिश्चय को जन्म दे रहा है।
(या समकालीन अनिश्चय एक निश्चित भविष्य में ढल रहा है ?)
एक अनिश्चय मुझे निर्णायक बना रहा है।
एक अगम्भीर हंसी मुझे रुला रही है।
एक आत्यन्तिक दार्शनिकता मुझे हंसा रही है।
एक अवश करने वाला प्यार मुझे चिन्तित कर रहा है।
एक असमाप्त कथा मुझे जगा रही है।
एक अधूरा विचार मुझे जिला रहा है।
एक त्रासदी मुझे कुछ कहने से रोक रही है।
एक सहज ज़िन्दगी मुझे सबसे जटिल चीज़ों पर
सोचने के लिए मज़बूर कर रही है।
एक सरल राह मुझे सबसे कठिन यात्रा पर
लिये जा रही है।
विसंगति
कुछ ज़िम्मेदारियां हैं
कविता जिन्हें पूरा नहीं कर पा रही है।
कुछ विचार हैं
कविता जिन्हें बांध नहीं पा रही है।
कुछ गांठें हैं
कविता जिन्हें खोल नहीं पा रही है।
कुछ स्वप्न हैं
कविता जिन्हें भाख नहीं पा रही है।
कुछ स्मृतियां हैं
कविता जिन्हें छोड़ नहीं पा रही है।
कुछ आगत है
कविता जिसे देख नहीं पा रही है।
कुछ अनुभव हैं
कविता जिनका समाहार नहीं कर पा रही है।
यही सब कारण हैं
कि तमाम परेशानियों के बावजू़द
कविता फ़िर भी है
इतना सबकुछ कर पाने की
कोशिशों के साथ
अपने अधूरेपन के अहसास के साथ
अक्षमता के बोध के साथ
हमारे इतने निकट।
कविता को पता है
अपने होने की ज़रूरत
और यह भी कि
आने वाली दुनिया को
उसकी और भी अधिक ज़रूरत है।
स्मृति 23 मार्च, 1931
'सत्य ठोस है' (ब्रेष्ट)
और 'नीला आइना बेठोस।' (शमशेर)
बेठोस प्रतिबिम्बित कर रहा है ठोस को
नीलेपन के स्वप्निल रंग से
सराबोर करता हुआ।
मौन बहता है जीवन में
और जीवन का शोर प्रवाहित दिगन्त में।
ठोस है बेठोस।
बेठोस होगा ठोस।
उम्मीदों का रंग नीला
हठ सांवला तपा हुआ
ख़ून हरदम की तरह लाल
बहता हुआ
अनगिन अंधेरी सुरंगों से होकर।
हमारी तमाम लड़ाइयों की तरह
इनकी स्मृतियां
ज्यों ऋतुओं के बारे में
सोचतीं वनस्पतियां।
नींद
कोई प्रार्थना
या अनुरोध नहीं,
हठ नहीं।
नींद को
एक आग्रहपूर्ण आमंत्रण है।
एक नींद
जिसमें दूब की नोक की
चुभन तक न हो,
तारों के नीचे
ओस से नम चटाई जैसी,
हथेलियों की गुनगुनी गर्माहट-सी
सुबह बुहारे गये कच्चे आंगन के
स्वच्छ ठंडेपन जैसी
एक नींद
पीले पड़ते पत्ते जैसी।
एक नींद
चीज़ों की आकृतियां जहां घुल रही हों
और संतृप्त हो रहा हो
समय का घोल।
एक नींद
उनींदी सराय में
घोड़े की पीठ से उतारे जा रहे
मुसाफ़िर के सामानों जैसी
एक थके हुए आहट-सी
थमे हुए कोहरे-सी
नींद।
एक नींद
किसी 'वुडकट' जैसी ठोस,
नरम स्लेटी पत्थर जैसी,
किसी रेखाचित्र की आकृति के उड़ते बालों-सी।
एक नींद
रिक्तता जैसी
अनवरत अदृश्य फ़ुहारों जैसी।
एक नींद
कविता के विचार
और योजनाओं के स्थापत्य के बीच
सतत उपस्थित तनाव जैसी।
एक नींद
गम्भीर, सरल, शान्त और उदास,
बच्चे के गालों पर
सुबह की धूप की
मद्धम गर्माहट सी।
एक नींद
ज़रूरी तनहाई की,
सोये हुए दु:खों पर ओढ़ायी गई चादर-सी,
उदासी की आत्मीय, मद्धम-सी
टीस जैसी नींद,
एक नींद जो
आत्मा और शरीर के प्रति
बराबर वफ़ादार हो।
एक लम्बे, जटिल संरचना वाले
वाक्य में पिरोये गये
अल्पविराम-सी ज़रूरी नींद,
ज़रूरी अर्थों को खोलती हुई।
विस्मृत लोरी सी नहीं
आसमान की गहराइयों से उतरते-लहराते
पारभासी परदे-सी भी नहीं,
शान्त-सुखद स्वप्नों से सज्जित भी नहीं,
बस एक सीधी-सादी सी नींद
कि सब कुछ रुका हुआ हो
कुछ देर को ही सही।
कहीं योजनाएं प्रतीक्षा करती रहें
(और दूसरी कोई भी प्रतीक्षा न हो)
विचार लौट जायें
बिना दस्तक दिये, फ़िर से आने के लिए
(और कोई भी न आये इस बीच
और आये भी तो लौट जाये
फिर कभी न आने के लिए)
नये तनाव अभी अंकुरित न हुए हों,
किसी उत्तेजित ख़ुशी का शोर
न हो कहीं आस-पास,
कोई आश्वस्ति न हो
फ़िर भी एक नींद।
एक नींद
आम नींदों से अलग
कि सामने पड़े हैं कुछ काम
आम कामों से अलग,
और ज़िन्दगी एकदम आम लग रही है।
एक नींद
कल की ताज़गी
और आने वाले दिनों की ख़ातिर
निमंत्रित है।
कविता शिनाख़्त करती है!
धरती चाक की तरह घूमती है।
ज़िन्दगी को प्याले की तरह
गढ़ता है समय।
धूप में सुखाता है।
दु:ख को पीते हैं हम
चुपचाप।
शोरगुल में मौज-मस्ती का जाम।
प्याला छलकता है।
कुछ दु:ख और कुछ सुख
आत्मा का सफ़ेद मेज़पोश
भिगो देते हैं।
कल समय धो डालेगा
सूखे हुए धब्बों को।
कुछ हल्के निशान
फ़िर भी बचे रहेंगे।
स्मृतियां
अद् भुत ढंग से
हमें आने वाली दुनिया तक
लेकर जायेंगी।
कठिन समय में विचार
रात की काली चमड़ी में
धंसा
रोशनी का पीला नुकीला खंज़र।
बाहर निकलेगा
चमकते, गर्म, लाल
ख़ून के लिए
रास्ता बनाता हुआ।
द्वन्द्व
एक अमूर्त चित्र मुझे आकृष्ट कर रहा है।
एक अस्पष्ट दिशा मुझे खींच रहीं है।
एक निश्चित भविष्य समकालीन अनिश्चय को जन्म दे रहा है।
(या समकालीन अनिश्चय एक निश्चित भविष्य में ढल रहा है ?)
एक अनिश्चय मुझे निर्णायक बना रहा है।
एक अगम्भीर हंसी मुझे रुला रही है।
एक आत्यन्तिक दार्शनिकता मुझे हंसा रही है।
एक अवश करने वाला प्यार मुझे चिन्तित कर रहा है।
एक असमाप्त कथा मुझे जगा रही है।
एक अधूरा विचार मुझे जिला रहा है।
एक त्रासदी मुझे कुछ कहने से रोक रही है।
एक सहज ज़िन्दगी मुझे सबसे जटिल चीज़ों पर
सोचने के लिए मज़बूर कर रही है।
एक सरल राह मुझे सबसे कठिन यात्रा पर
लिये जा रही है।
विसंगति
कुछ ज़िम्मेदारियां हैं
कविता जिन्हें पूरा नहीं कर पा रही है।
कुछ विचार हैं
कविता जिन्हें बांध नहीं पा रही है।
कुछ गांठें हैं
कविता जिन्हें खोल नहीं पा रही है।
कुछ स्वप्न हैं
कविता जिन्हें भाख नहीं पा रही है।
कुछ स्मृतियां हैं
कविता जिन्हें छोड़ नहीं पा रही है।
कुछ आगत है
कविता जिसे देख नहीं पा रही है।
कुछ अनुभव हैं
कविता जिनका समाहार नहीं कर पा रही है।
यही सब कारण हैं
कि तमाम परेशानियों के बावजू़द
कविता फ़िर भी है
इतना सबकुछ कर पाने की
कोशिशों के साथ
अपने अधूरेपन के अहसास के साथ
अक्षमता के बोध के साथ
हमारे इतने निकट।
कविता को पता है
अपने होने की ज़रूरत
और यह भी कि
आने वाली दुनिया को
उसकी और भी अधिक ज़रूरत है।
Sabhi kavitayen bahut achi hain.zindgi ki sacchayi ko abhivyaqt karti hain....mano padh ke dil ko bahut sakoon milta hai...aur ek aanand aata hai.
ReplyDeletesabhi kavitaye bahut acchi hain.zindgi ki sachhayi ko abhivyakt karti hain.Mano padh ke ek sakkon milta hai...aur aanand aata hai..
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