नहीं कॉमरेड सुरेन्द्र अंकल
'यह लड़की हमेशा जोशो-खरोश
और ताज़गी से भरी रहती है
अपने काम में तल्लीन।'
आज आपको यह बताने को
जी चाहता है कि
मेरी भी अपनी कुछ मायूसियां हैं,
कुछ उदासियां,
कुछ सदमें, धोखों के कुछ जख़्म,
कुछ अधूरी चाहतें,
कुछ नाकामयाबियां
और कुछ ईर्ष्याएं हैं मेरी अपनी भी
और इसीलिए मैं यहां हूं
कॉमरेड सुरेन्द्र अंकल
कि मैने अपनी निराशाओं से
मुंह नहीं चुराया।
छिपाना नहीं चाहती
अपनी नाकामयाबियां,
न ही अपना अधूरापन,
न ही ईर्ष्याएं,
न ही लापरवाहियां
पर यूं ही यहां-वहां
इज़हार करने से क्या फायदा
जब यह भी न पता हो
कि सामने खड़ा जो आदमी
दोस्त बनने की कोशिश कर रहा है,
उसने किस शब्दकोष से सीखा है
दोस्ती का अर्थ !
साझेदारी तो सिर्फ
अपनों से ही की जा सकती है
सुरेन्द्र अंकल
और अपनों की पहचान मैं
काफ़ी हद तक अनुभव से करती हूं
क्योंकि मेरी यह भी एक
गम्भीर कमज़ोरी है कि मेरी
सैद्धान्तिक समझ थोड़ी कमज़ोर है।
फिर भी हमें यक़ीन है सुरेन्द्र अंकल
कि इस दुनिया को
ऐसे ही नहीं रहना है
इस बर्बरता, जहालत, दयनीयता
और अन्याय के अंधेरे में,
इसे यहां से उठाकर बाहर
रोशनी में फेंक दिया जाना है
एक न एक दिन
इसी सदी के किसी साल में।
और सिर्फ इस विश्वास की
ख़ातिर ही नहीं,
अपनी आज़ादी और खुशियों की
ख़ातिर भी हम आज यहां हैं,
इसलिए कि अब आदत नहीं रही
एक बंद बाड़े में जीने की
और हम एक ज़ालिम हुकूमत की
सेवा में सन्नद्ध नहीं होना चाहते,
न ही मुफ़तखोर कहलाना चाहते हैं,
इसलिए ड्यूटी बजा रहे हैं
मुस्तैदी से अपने मोर्चे पर
और शान से जी रहे हैं।
हमें विश्वास है
तमाम विद्वानों के 'अगर-मगर'
के बावजूद कि
यह समाज अन्यायपूर्ण है
और यह कि
हर अन्यायपूर्ण व्यवस्था की तरह
इसे भी तबाह होना ही है
एक न एक दिन
और यह भी कि
अन्याय का विरोध
हर हाल में होना ही चाहिए
जैसा कि हमेशा से होता आया है।
दुनिया की महानतम विद्वता की
चमकदार चादर से भी
ढंकी नहीं जा सकती
समझौते की गंदगी
और शब्दों का कोई भी जादू
भगोड़ों की पहचान छिपा नहीं सकता।
इन सीधी-सादी बातों से
यदि कविता की कला मरती है
तो मरा करे,
आप तो जानते हैं सुरेन्द्र अंकल,
यह दिल की सबसे सच्ची भावना,
सबसे गहरे विश्वास की
अभिव्यक्ति है,
सारी जागती उम्र की कमाई है
यह समझ।
फिर भी हम बेहद खुश है।
और खुशकिस्मत भी
कि यहां हैं
एक रौशन, बंद कमरे की जगह
एक नीम अंधेरे
निचाट रेगिस्तान में,
जहां दूर चमकती रहती हैं
किसी बस्ती की कुछ बत्तियां
या शायद कुछ कंदीले।
दिन में धूप चिलकती है
और रेत के अंधड़
हू-ह करते नाचते हैं।
हमें यहां होना है
तमाम उजाड़ी और जलाई गई
बस्तियों की ख़ातिर
और फिर चुपचाप खो जाना है
कारख़ानों के आसपास की
धुंआरी बस्तियों में,
क्योंकि कहा था मुक्तिबोध ने,
''ज़िन्दगी बुरादा तो बारूद बनेगी ही
ऐश्वर्य सूर्य
धन की प्रभुसत्ता के ऐरावत चण्डशौर्य
अपने चालकदल सहित भूमि के गर्भों में
विच्छिन्नावस्था के सारे सन्दर्भों में
केवल पुरातत्वविद् के चित्ताकर्षण
बन जायेंगे।''
इन्हीं धुंआरी बस्तियों में है
ज़िन्दगी का बुरादा बारूद बनता हुआ
और यहीं रहती है कहीं
पावेल व्लासोव की मां
जिसने कहा था विश्वासपूर्वक कि
''सच्चाई को तो ख़ून की नदियों में भी
नहीं डूबोया जा सकता...''
आप तो उसे पहचानते ही होंगे
हमारे कॉमरेड सुरेन्द्र अंकल!
-कविता कृष्णपल्लवी
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