Friday, June 24, 2011

विद्वानों के बारे में कुछ अनुभवसंगत बातें


सामाजिक कार्यकर्ता के जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्‍य होता है – कई शहरों और समाजों और लोगों से मिलने-जुलने का मौका मिलना। यह मौका मुझे खू़ब मिला। आम लोगों का विश्‍वास, ऐसे नौजवानों की संगत जिनकी आंखों के सपने अभी मरे नहीं थे – यह सब भी मिला, कुछ नेकदिल और सहज-निश्‍छल प्रबुद्ध लोग भी मिले। पर वे खांटी अर्थों में बुद्धिजीवी या विद्वान नहीं थे। खांटी बुद्धिजीवियों और विद्वानों की तो बात ही कुछ और होती है। शायद ये उन्‍नत सभ्‍यता वाले किसी और ग्रह से आये हुए लोग होते हैं जो निम्‍न चेतना वाले और हेय आम पृथ्‍वीवासियों के साथ 'एडजस्‍ट' करने, उनका स्‍तरोन्‍नयन करने और उनके बीच रहकर अलगावग्रस्‍त रहने की यंत्रणा लगातार झेलते रहते हैं। ऐसा लगता है की आम लोग उनका ऋण कभी नहीं उतार पायेंगे।
पहले अलग-अलग शहरों के विद्वानों से मिलने-जुलने का काफ़ी अवसर मुझे मिलता था। मैं चुपचाप बैठकर 'ब्रह्मराक्षस के शिष्‍य' के समान उनकी बातें सुना करती थी और उनके घनघोर मनोवैज्ञानिक युद्धों का देखा करती थी। मुझे वे अपने क्षेत्र का नवागंतुक या मूर्ख पर्यवेक्षक समझा करते थे। इससे वे अधिक बेलागलपेट बातें करते थे और मुझ अल्‍पबुद्धि को भी उनके बारे में काफ़ी कुछ जानने-समझने का अवसर मिल जाता था। ज्ञानियों से ज्ञान तो मुझे ज्‍यादा नहीं मिला, पर उनके आचरण-व्‍यवहार को देखकर ज्ञानियों के बारे में मुझे काफ़ी ज्ञान हो गया।
पहली बात जो मैंने यह महसूस की कि विद्वानों के भीतर एक शाश्‍वत विकल प्रेमी निरंतर सक्रिय रहता है। स्त्रियों से मिलते ही उसकी सक्रियता चरम पर पहुंच जाती है। पहले वह ''औरों से अपनी भिन्‍नता'', विशिष्‍टता और स्त्रियों के प्रति विकल संवेदना का आपको अहसास दिलाता है, औरों द्वारा न समझे जाने की अपनी पीड़ा और अकेलेपन के दु:ख के बारे में बताता है और पूरी स्‍त्री जाति के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए आपके बारे में विशेष सहानुभूतिशील हो जाता है, आपसे अपनी छिपी हुई प्रतिभा बाहर लाने और अपने को पहचानने का आग्रह करता है, कला-सा‍हित्‍य के बाज़ार में लांच करने के लिये मदद का प्रस्‍ताव देता है। यदि आप उससे राजनीतिक बातें करती हैं और राजनीतिक गतिविधियों में आमंत्रित करती हैं तो फिर वह समाजवाद की दार्शनिक समस्‍याओं व्‍यावहारिक विफलताओं आदि पर उत्‍तरआधुनिकतावादी किस्‍म के बयान देने लगता है और धीरे-धीरे आपमें उसकी दिलचस्‍पी खत्‍म हो जाती है।
विद्वान जब बात करता है तो सत्‍तर प्रतिशत वह अपने आप से बात करता है। वह जिससे बात कर रहा होता है, उससे अधिक ध्‍यान उसका इस बात पर रहता है कि वह कितने सुन्‍दर, प्रभावी और अनूठे ढंग से अपनी बातें कर रहा है। इसके लिए वह नयी-नयी पुस्‍तकों का फ्लैप, समीक्षाएं आदि काफ़ी पढ़ता रहता है और एक जगह सुनी गयी किसी अच्‍छी बात को दूसरी जगह कुछ शब्‍दांतर करके, या ज्‍यों का त्‍यों अपनी बात बनाकर प्रस्‍तुत कर देता है। ज्‍यादातर विद्वान सारसंग्रहवादी और पल्‍लवग्राही होते हैं, यहां-वहां की बातों को मिला-फ़ेंटकर खिचड़ी बनाते हैं और नयी थीसिस पेश कर देते हैं।
विद्वान सामने उपस्थित जीवन, समाज और संस्‍कृति की किसी ज्‍वलंत समस्‍या के समाधान के लिए नहीं, बल्कि अपनी मौलिक प्रतिभा और पाण्डित्‍य के प्रदर्शन के लिए शोध करता है और निबंध लिखता है। दूर की कौड़ी ढूंढ लाना उसके समस्‍त चिन्‍तन कर्म, या कहें कि समस्‍त जीवन का परम लक्ष्‍य होता है।
विद्वान महफ़िलों का सभाओं-संगोष्ठियों का 'स्‍टार' बने रहना चाहता है। इसके लिए वह ढूंढ कर मौलिक बातें कहता है। वह बताता रहता है कि किस जगह किसको उसने कैसे चित्‍त किया और किसको कैसे प्रभावित किया। वह बताता रहता है कि उसकी फ़लां रचना को पढ़कर फ़लां कैसे गश खा गये और उसकी फ़लां रचना को कैसे कोई समझ ही नहीं पाया। विद्वान चाहता है कि महफ़िलों-बैठकियों-गोष्ठियों में वह सबके ध्‍यानाकर्षण का केन्‍द्र रहे। जब वह ऐसा नहीं कर पाता तो उसका मन उचट जाता है या खिन्‍न हो जाता है। तब वह ज्‍यादा से ज्‍यादा विद्रोही, विस्‍फोटक और मौलिक स्‍थापना देता है। विद्वानों के बीच ज्‍यादा टकराव सत्‍य के संधान को लेकर नहीं बल्कि इस बात को लेकर हुआ करते हैं कि कौन किसपर भारी पड़ा, या किसने किसको चित्‍त किया या किसका गुट अधिक शक्तिशाली या प्रभावी है। मान्‍यता की कमी या उपेक्षा या होड़ में पिछड़ जाना कई विद्वानों को रैडिकल बना देता है और वे विद्रोही या मार्क्‍सवादी बन जाते हैं। यही कारण है कि मार्क्‍सवादियों के बीच कम पढ़े-लिखे मीडियॉकर विद्वानों की काफ़ी भीड़ है। एन जी ओ और विदेशी वित्‍तपोषित शोध-संस्‍थानों ने भरपूर सुविधा और सुरक्षा के साथ सामा‍जिक विद्रोही बने रहने का काम विद्वानों के लिए आसान बना दिया है।
अन्‍य विद्वानों को पीछे छोड़ना या पराजित कर पाना हर विद्वाना का जीवन लक्ष्‍य होता है। यदि वह सीमित रूप में भी ऐसा नहीं कर पाता तो अवसाद का शिकार हो जाता है या फिर मूर्खों की किसी ऐसी मण्‍डली में जा बैठता है जहां उसकी विद्वता का सिक्‍का चल जाता है। विद्वान अपनी पराजय या उपेक्षा कभी नहीं भूलता। इस मायने में भी उसका 'पर्सनल' 'पोलिटिकल' होता है।
विद्वान की हर बात ही नहीं, - उसकी चप्‍पलें, उसका कुर्ता, उसका कलमदान, उसका थूकदान, उसका सिगरेट पकड़ने का अंदाज, उसकी आवारागर्दियां और बेवफाइयां, उसके उदर विकार – हर चीज मौलिक और अनूठी होती है, संस्‍मरणों में चर्चा करने लायक होती है। ज्‍यादातर विद्वानों में एक चीज कॉमन होती है – उनकी पत्‍नियां उनके लायक नहीं हुआ करतीं। अपनी रचनात्‍मकता के लिए उसे विवाहेतर सम्‍बन्‍ध बनाने पड़ते हैं और फिर कालांतर में अपनी प्रेमिकाओं से भी असंतुष्‍ट हो जाता है और प्रेम की 'शाश्‍वत त्रासदी', 'शाश्‍वत असंतोष का सबब', या 'मिथ्‍याभास' घोषित कर देता है।
नारसिसस अपने सौन्‍दर्य को लेकर जितना आत्‍ममुग्‍ध था, विद्वान अपनी विद्वता को लेकर उससे कई गुना अधिक आत्‍ममुग्‍ध होता है। विद्वान जब ''मार्क्‍सवादी'' हो जाता है तो मुंह से जनता को इतिहासनिर्मात्री कहता है पर मन ही मन उसे भेड़ समझता है। आम कार्यकर्ताओं को भी वह तबतक विचारहीन रेवड़ समझता रहता है, जबतक वे एकाध बार उसका थूथन नहीं रगड़ देते या धोबीपाट नहीं दे मारते। विद्वान जब ''मार्क्सवादी'' हो जाता है तो उसकी पहली चिन्‍ता नेता और सिद्धान्‍तकार और फ़िर ''महान नेता'' बनने की होती है। उसका सपना ''महापुरूष'' और फ़िर ''इतिहासपुरूष'' बनने का होता है। उनकी ख्‍याति-लिप्‍सा अनन्‍त-अछोर होती है। जब वह ''मार्क्‍सवादी'' बन जाता है तो चाहता है कि एक दिन (जीवनकाल में या मरणोपरान्‍त) उसके नाम के आगे ''वाद'' (जैसे मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद), ''विचारधारा'' (जैसे माओ विचारधारा) या कम से कम ''पथ'' तो जुड़ ही जाये। यह रोग आज दुनिया की छोटी-छोटी क्रांतिकारी वाम पार्टियों के कई नेताओं में भी समा गया है। कई ने अपने नाम के आगे ''विचारधारा'' और ''पथ'' लगाकर इक्‍कीसवीं सदी की क्रांतियों के महान नेताओं की कतार में शामिल होने की कोशिश की या स्‍वयं को अपने पार्टी मुखपत्रों में 'जीनियस' और 'इतिहास निर्माता' और ''विश्‍व सर्वहारा का अग्रणी नेता'' घोषित कर दिया, अधकचरे छोटे-छोटे संगठनों को लेकर अंतरराष्‍ट्रीय मंच तक बना डाले। ऐसे विद्वान नेता लोग महानों की कतार में शामिल होने के लिए इतिहास का शव-विच्‍छेदन करने और विज्ञान की रेड़ मारने का काम करते रहते हैं, भांति-भांति के ''मुक्‍त चिंतन'' करते रहते हैं, महापुरुषों के कान का मैल इकट्ठा करते रहते हैं, महान ऐतिहासिक घटनाओं को इत्‍तफा़कों और गलतियों-कमियों से भरपूर बताते रहते हैं और शे‍खचिल्‍ली की तरह आनन-फानन में कुछ कर गुज़रने के मंसूबे बांधते रहते हैं। क्रांतिकारी व्‍यवहार की दुनिया में ''मौलिक विद्वता'' की सनक सचमुच बहुत ख़तरनाक होती है।
विद्वान लोग पढ़ते हैं तो सिर्फ पढ़ाने के लिए, लागू करने के लिए नहीं। विद्वान लोग सीखते नहीं, सिर्फ सिखाते हैं। विद्वान की हसरत होती है कि उसे भी 'स्‍टडी सर्किल' लेने का अवसर मिले। लेकिन विद्वान यह नहीं चाहता कि बाकी लोग भी विद्वान बन जाएं। तब उसकी मौलिकता और अनन्‍यता का क्‍या होगा? विद्वान लोग अक्‍सर बंदरों के उस गिरोह के समान होते हैं, जिसमें एक निरंकुश स्‍वेच्‍छाचारी सरदार होता है। दो विद्वान एक महफिल में बराबर सम्‍मान नहीं पा सकते। एक विद्वान दूसरे को अपनी म्‍यान में घुस आयी दूसरी तलवार या अपनी मांद में घुस आया दूसरा नेवला समझता है। लेकिन पद-ओहदे से विद्वान बहुत डरते हैं। यदि कोई अफसर हो तो उससे विद्वता में अपना बाप मानने में और उसकी हर मूर्ख़तापूर्ण बात को मौलिक एवं गंभीर मानकर चमत्‍कृत होने में विद्वान को कोई परहेज़ नहीं होता।
विद्वान झाड़ू-पोंछा, कपड़े धोने, सामान करीने से रखने, खाना बनाने जैसे कामों से दूर रहता है। ये विद्वान-सुलभ काम नहीं। इससे उसकी रचनात्‍मकता प्रभावित होती है। विद्वान शारीरिक श्रम के पक्ष में लंबे-चौड़े भाषण देता है, पर वह स्‍वयं शारीरिक श्रम नहीं करता क्‍योंकि वह शारीरिक श्रम करने वालों  के बदले सोचने का काम करता है। यह चिन्‍तन कर्म की ठेका प्रथा है। इस ठेका प्रथा के खात्‍मे की प्रक्रिया कठिन है, इसका रास्‍ता लम्‍बा है, पर यह ज़रूरी है।
जब भी यहां-वहां कुछ संघर्ष और विद्रोह होते हैं तो विद्वान को क्रांति आसन्‍न लगने लगती है। क्रांति को लेकर उसे मिथ्‍याभास या हवाई उम्‍मीदों के दौरे पड़ते रहते हैं। तब क्रांति और जनता को लेकर वह एकदम रोमानी भावुकता में सराबोर हो जाता है। जितनी जल्‍दी वह उम्‍मीदें पाल बैठता है, उतनी ही जल्‍दी वह नाउम्‍मीद भी हो जाता है। अपनी उम्‍मीदों पर व‍ह जितने प्रभावी वक्‍तव्‍य देता है, अपनी नाउम्‍मीदियों की भी उतनी ही प्रभावशाली व्‍याख्‍या करता है!
विद्वानों का आचरण देख-देखकर आम लोग कई बार विद्या या ज्ञान से ही चिढ़ या डर जाते हैं। इससे समाज का और सामाजिक क्रांतियों का बहुत बुरा होता है।

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