Thursday, September 04, 2014

एक बार फिर कविताओं की पारी






(एक बार फिर कविताओं की पारी। ग़ाज़ा में जायनवादी मंसूबे पिट चुके हैं। ग़ाज़ा की बहादुर जनता जीत चुकी है। भारत में मोदी के घोर जनविरोधी श्रम कानून  सुधारों की घोषणा के बाद साम्‍प्रदायिक ध्रुवीकरण का खुला फासिस्‍ट खेल जारी है। विश्‍व पटल पर अन्‍तर-साम्राज्‍यवादी प्रतिस्‍पर्द्धा फिर से उभार पर है। नवफासीवादी उभार दुनिया के कोने-कोने में विविध रूपों में जारी है। क्रांति की लहर पर प्रतिक्रांति की लहर अभी हावी है, पर मानों पूरी दुनिया एक सुलगती ज्‍वालामुखी के मुहाने पर बैठी है। युद्ध क्रांतियों को जन्‍म देंगे और क्रांतियाँ युद्ध को रोकेंगीं। जन क्रांतियों का तूफान ही मनुष्‍यता को पूँजीवाद के कहर से बचा सकता है। जो तूफानी पितरेल हैं वे तूफान का आवाहान करते हैं कि वह पूरी प्रचण्‍डता के साथ आये। यही सब कुछ सोचने की मन:स्थिति में दो सद्य:सृजित कविताएँ): --कविता कृष्‍णपल्‍लवी

पतझड़ के बाद

पतझड़ शाम की पीली धूप की तरह
उतर आयी है पहाड़ी ढलानों पर, घाटियों में,
जहाँ यादें हैं बारिश की बूँदों और
उल्‍लसित जलधाराओं की और इन्‍द्रधनुषों की।
खुले चित्‍त पड़े निस्‍संग खेतों के ऊपर से
उड़ रहे हैं आवारा सफेद बादलों के झुण्‍ड,
सारस उड़े जा रहे हैं लक्ष्‍यहीन,
दिशा की समझ खोने के बाद।
विशाल सुनहरे पंखों वाला अरुणशिर गरुड़
एक अंधी गुफा में कैद है।
उसकी आँखों से फूटती लाल रोशनी की धार
दरारों और झिरियों से बाहर रिस रही है
और झा‍ड़ि‍यों और जंगली घास के बीच से
राह बनाती बह रही है ढलान की ओर।
अँधेरे चमकते रहस्‍यमय पानी से
भरता जा रहा है जहाँ सूखा-प्‍यासा ताल
वहीं ठीक पहाड़ी के ऊपर
एक विशाल चट्टान अँटकी हुई है
जादुई सन्‍तुलन साधे हुए।
नम होती जा रही है
पहाड़ी की तली की कँकरीली-भुरभुरी ज़मीन।
किसी एक रात
एक गगनभेदी धमाके के साथ
वह चट्टान लुढ़ककर नीचे आ गिरेगी।
गुफा से मुक्‍त, आसमान में ऊपर उठते
गरुड़ के पंखों की फड़फड़ाहट से
जंगल में आँधी आ जायेगी।
ताल का सारा पानी उछलकर
खेतों में बहने लगेगा।
इसतरह वसंत आयेगा नहीं, लाया जायेगा बलशाली बाजुओं से खींचकर
और जीवन आश्‍चर्यपूर्वक सोचेगा
बीते दिनों की उदासी और मुर्दनी के बारे में।


ज्‍वलनशीलता

जिन चेहरों पर सघन अँधेरे में
अदृश्‍य धमन भट्ठी में पिघलते लोहे की
रहस्‍यमयी आँच चमकती है
उनकी उम्‍मीदें यूँ थरथराती रहती हैं
ज्‍यों बुझ सकती हों कभी भी,
लेकिन तेज होती हवा में
ये बुझती नहीं,
लपट बनकर फैलने लगती हैं।
इस आग में
कुछ तपकर-पिघलकर
निखर और दमक जाता है
और कुछ जलकर राख हो जाता है
जिसे हवा उड़ा ले जाती है
अंधी खाइयों की ओर।

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