Monday, November 25, 2013

राजधानी के शापित जन और उनकी कविता


बेहद थोड़े सामानों, ढेरों आशंकाओं
और लगभग नाउम्‍मीदियों जितनी उम्‍मीदों के  साथ,
पूरब से आने वाली रेलगाडि़यों में लदे-फदे आते हैं
दुनिया और उसकी ज़रूरत की सारी चीज़ें बनाने वाले लोग
राजधानी के स्‍वर्ग में,
अपनी उजड़ी हुई दुनिया पीछे छोड़कर।
अपनी थोड़ी-सी ज़रूरतों के बारे में ही सोचते हैं वे
और थोड़ी-सी ज़रूरत की चीज़ों के साथ
थोड़ी-सी जगह कहीं पाते हैं
कचरे के ढेरों, दौड़ते सुअरों, गँधाते नालों, गड्ढों, दलदलों और
रेल पटरियों के आसपास आबाद इंसानी बस्तियों में कहीं
जहाँ नेताओं और संतों के कुछ होर्डिंग्‍स
रंगों की उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं
और एन.जी.ओ के कुछ बोर्ड बताते हैं
कि दयालु धनवानों के पास उनके लिए भी हैं
कुछ सिक्‍के, कुछ जूठन, कुछ पैबन्‍द और कुछ सांत्‍वनाएँ।



दुनिया और उसकी ज़रूरत की सारी चीज़ें बनाने वाले लोगों को
पता नहीं होता कि मंडी हाउस और इण्डिया इण्‍टरनेशनल सेण्‍टर
और कॉफी हाउस में कुछ लोग कभी-कभार
उनकी भी बातें करते हैं, उनपर भी नाटक खेलते हैं, कविताएँ रचते हैं
और उनकी परेशानियों के आँकड़े गिनाते-गिनाते सेमिनारों में
पसीना-पसीना हो जाते हैं।
फिर आराम करने घर चले जाते हैं कि
कल फिर उनकी चिन्‍ता-फिक्र में जी हलकान कर सकें।
वे न्‍यूनतम मज़दूरी, काम के घण्‍टों और सेवा शर्तों के बारे में
जाने बिना, रोज़ दिहाड़ी पर या ठेके पर
दुनिया और उसकी ज़रूरत की चीज़ें बनाते हैं
और मुआवज़े के क़ानूनों को जाने बिना
कारख़ाना दुर्घटनाओं में मर जाते हैं, आग की लपटों में फँसकर राख हो जाते हैं
या मेट्रो पिलर के लिए खोदे गये किसी गड्ढे में धँस जाते हैं।
राजधानी के लकदक इलाकों में
चमचमाते रहते हैं राष्‍ट्रीय ट्रेडयूनियनों के बोर्ड
जिनसे निकलते हैं समय-समय पर कुछ सौदागर गाड़ि‍यों में
टी.वी. पर किसी बहस में,
राष्‍ट्रीय श्रम सम्‍मेलन में, या सौदेबाज़ी की किसी मीटिंग में हिस्‍सा लेने के लिए,
या सफेद कॉलरों की भीड़ में 'मज़दूर एकता ज़ि‍न्‍दाबाद' के नारों के बीच
माला पहन मंचासीन होने के लिए।
मार्क्‍स और लेनिन की तस्‍वीरें लटकाये
घूमते हैं बर्नस्‍टीन और काउत्‍स्‍की के वंशज
और कुछ नौदौलतिये क्रान्तिकारी घोषणा कर देते हैं
कि मज़दूर बिना हिरावल के
ख़ुद ही अपनी मुक्ति का रास्‍ता निकाल लेंगे।
कुछ उतावले क्रान्तिकारी
विज्ञान को छुट्टी पर भेजकर,
करोड़ों उजरती ग़ुलामों को इंतज़ार करने के लिए कहकर
मालिक किसानों को लाभकारी मूल्‍य दिलवाने चले जाते हैं।
कुछ को बहुत जल्‍दी कर लेनी होती है
अपने हिस्‍से की क्रान्ति,
वे जंगलों की ओर प्रस्‍थान कर जाते हैं बंदूक लेकर
दुर्गम आदिवासी क्षेत्रों में ''मुक्‍त क्षेत्र'' बनाने के लिए।



दुनिया और उसकी ज़रूरत की सारी चीज़ें बनाने वाले लोग
नहीं जानते चिदम्‍बरम और मोंटेक सिंह आहलूवालिया के बारे में
वे नहीं जानते अन्‍तरराष्‍ट्रीय श्रम सम्‍मेलन की सिफ़ारिशों और सैकड़ों श्रम क़ा‍नूनों के बारे में।
वे बस इतना समझते हैं कि
जगमग स्‍वर्ग के तलघर में जो अँधेरा है
वह कुछ फुलझडि़याँ फेंकने से दूर नहीं होगा।
उन्‍हें नहीं पता कि 'आप' पार्टी जैसी कोई पार्टी या कोई मसीहा भ्रष्‍टाचार कैसे मिटा देगा
और यदि मिटा भी दे किसी जादुई करतब से
तो पूँजी के राज्‍य का ख़ात्‍मा तो दूर,
क्‍या उन्‍हें मिल पायेंगे उनके बुनियादी अधिकार भी?
इसलिए हम कहना चाहते हैं संस्‍कृति के ठेकेदारों और दलालों से दो टूक कि
विधाओं के शिल्‍प पर अन्‍तहीन बहसों से पहले
कला से पहली अपेक्षा मानवीय सरोकार की होनी चाहिए
कलाजगत के सट्टेबाज़ो, एक दिन आयेगा जब
तुम्‍हारे सट्टाबाज़ार पर ही ताला लटक जायेगा
और तुम्‍हें रेवड़ों की तरह हाँक दिया जायेगा
दुनिया की ज़रूरत की कुछ चीज़ें बनाते हुए
ज़ि‍न्‍दगी और कला की तमीज़ सीखने के लिए।
लेकिन वह समय अभी दूर है
इसलिए अभी मस्‍त रहो
अपनी अन्‍तहीन बकवासों, आवारागर्दियों और  शराब की महफिलों में।
जितना हो सके कीचड़ उछालो उनपर
जो दुनिया और उसकी ज़रूरत की सारी चीज़ें बनाने वाले
लोगों की दुनिया को रौशन करने के बारे में
सोचते हैं और चींटियों-मधुमक्खियों की तरह सतत् उद्यमरत रहते हैं।




दुनिया और उसकी ज़रूरत की सारी चीज़ें बनाने वाले
जिन लोगों से छीन ली गयी  हैं पूरी तरह से
मानवीय जीवन-परिस्थितियाँ,
जिनका जीवन है मानवता की सादृश्‍यता तक से पूर्ण पृथक्‍करण,
जीवन की सारी परिस्थितियों का सर्वाधिक अमानवीय समाहार,
विद्रोह उनके जीने की शर्त है
और जिस ऐतिहासिक क्षति ने उन्‍हें स्‍वर्ग के अँधेरे तलघर का
शापित जीवन दिया है,
उसकी सैद्धान्तिक चेतना देना ही हो सकता है
कला और विचारों की दुनिया का सर्वोपरि फ़ौरी कार्यभार।
इससे अलग, सौन्‍दर्य शास्‍त्र की सारी चर्चाएँ
घोड़े की लीद हैं।
रवीन्‍द्र भवन, इण्डिया हैबिटेट सेण्‍टर, इण्डिया इण्‍टरनेशनल सेण्‍टर, श्रीराम सेण्‍टर...
राजधानी के ये सारे भव्‍य सांस्‍कृतिक केन्‍द्र
कुत्‍तों के गू की ढेरी पर खड़े हैं।




दुनिया और उसकी ज़रूरत की तमाम चीज़ें  बनाने वाले लोगों को, कम से कम आज,
ऐसी कविताओं की ज़रूरत है
जो धरती के अँधेरे गर्भ से
खनिजों को ढोकर लाने वाले वाहक पट्टे के डोलों के समान
वास्‍तविक जीवन के तमाम रहस्‍यों को
रोशनी में उलीच दें।
उन्‍हें गन्‍दी, मटमैली और
ज़‍न्‍िदगी की रुखड़ी सतह से रगड़ खाती, ताप पैदा करती
कविताओं की ज़रूरत है।
उन्‍हें झूठी उम्‍मीदों के झुनझुने बजाती कविताएँ
या लोकगीतों जैसे अतीत को शरण्‍य बनाती कविताएँ
या हर शेर की दो लाइनों में चौंक की फुलझड़ी छोड़ती ग़ज़लें नहीं चाहिए।
उन्‍हें विश्‍वासघातों, पराजयों, मायूसियों, संदेहों
आग्रहों, आघातों के बीच से लड़ती हुई आगे बढ़ती
ज़ि‍न्‍दगी जैसी कविताएँ चाहिए,
और साथ ही उन्‍हें अपने तरह-तरह की पेशों की हुनरमन्दियों जैसी
बारीक़ि‍यों और सुन्‍दरता की कविताएँ चाहिए
उन्‍हें ऐसी कविताएँ चाहिए
जो उनकी बस्तियों में
दांको के जलते हुए हृदय के समान दौड़ें
और जब गिरें भी तो
रोशनी के सैकड़ों टुकड़ों में बिख़र जायें,
उन्‍हें प्रोमेथियस द्वारा स्‍वर्ग से चुराकर
लाई गयी आग जैसी कविताएँ चाहिए
जो वही लिख सकता है
जो देवताओं का विकट कोप झेलने को तैयार हो।

-कविता कृष्‍णपल्‍लवी

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