मनबहकी लाल
(मनबहकी लाल की एक और राजनीतिक व्यंग्य कविता पढ़िये और राजनीतिक नौदौलतिये शेखचिल्लियों पर जी खोलकर हँसिए। यह कविता भी मज़दूर अख़बार 'बिगुल' में दस वर्षों पहले छपी थी। -कविता कृष्णपल्लवी)
दोन किहोते उतर पड़ा है पॉलिमिक्स के मैदान में।
गत्ते की तलवार भाँजता, शत्रु-दलन-अभियान में।
सिर पुरखों का जूता मानो नेपोलियनी टोप है।
गोले हों फुसफुसे भले ही, क्या चंगेज़ी तोप है।
लिल्ली घोड़ी पर सवार, फूला अकड़ा है शान में।
दोन किहोते उतर पड़ा है...
'क्या न करें', 'क्या करें' -- बताता लेनिन के अन्दाज़ में।
नये-नये मुल्ले को मिलता खूब स्वाद है प्याज़ में।
भले आँख में पानी आवे, सन-सन होवे कान में।
दोन किहोते उतर पड़ा है...
ऐसे-ऐसे नारे देगा ऐसे मंत्र उचारेगा।
अबतक जो न हुआ वो सबकुछ छनभर में कर डालेगा।
चुटिया बाँध के पिला हुआ है गहरे अनुसन्धान में।
दोन किहोते उतर पड़ा है...
चिन्ता है दिन-रात कि नाम आवे कैसे इतिहास में।
सर्टिफिकेट भी परम्परा के वारिस का हो पास में।
लोहा माने दुनिया फिर साष्टांग करे सम्मान में।
दोन किहोते उतर पड़ा है...
बोधिज्ञान कुछ देर से मिला इसीलिए हड़बड़ में है।
'ये कर डालें; वो कर डाले' -- दिल-दिमाग़ गड़बड़ में है।
इन्क़लाब का केन्द्र बने तो जान आवे फिर जान में।
दोन किहोते उतर पड़ा है...
ज्ञान-धुरी जो समझ रहा वो कठमुल्लों का खूँटा है।
हाथी समझे है खुद को, लेकिन बौराया च्यूँटा है।
परम सत्य का महकउवा तम्बाकू डाले पान में
दोन किहोते उतर पड़ा है...
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