
पहली बात यह, यदि संसद सदस्य, मंत्री, अफसर और जज सभी भ्रष्ट हो सकते हैं तो जनलोकपाल के विशालकाय नौकरशाही तंत्र में भ्रष्टाचार के दीमक को घुसने से कदापि नहीं रोका जा सकता। दूसरी बात यह कि, चुनाव में प्रत्याशी सदाचारी हैं, यह जानने का गारंटीशुदा तरीका क्या होगा? चुने जाने के बाद भी वह सदाचारी बना रहेगा, इसकी क्या गारंटी? सदाचारी-भ्रष्टाचारी होना जेनेटिक गुण नहीं है, इसके सामाजिक परिवेशगत कारण होते हैं। पूंजीवादी चुनाव प्रणाली में जिन भी देशों में जो भी सुधार किए गए हैं, कहीं भी आम आदमी ईमानदारी से चुनाव लड़कर अपवाद स्वरूप ही जीत सकता है। संसद या सरकार में यदि कोई ईमानदार आदमी पहुंच भी जाए तो वह पूरे सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक ढांचें में सर्वव्याप्त अनाचार-अत्याचार-भ्रष्टाचार को दूर नहीं कर सकता। अन्ना हजारे अक्सर कहते रहते हैं कि महाराष्ट्र में उन्होंने छह भ्रष्ट मंत्रियों को हटने को बाध्य कर दिया। पूछा जा सकता है कि इससे फर्क क्या पड़ा? क्या महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार घट गया? एक भ्रष्ट की जगह दूसरा भ्रष्ट आ गया!
सामाजिक ढांचे में यदि असमानता, शोषण, वर्गीय विशेषाधिकार, जातीय उत्पीड़न और लैंगिक उत्पीड़न आदि बने रहेंगे, तो सत्ता के विकेंद्रीकरण से भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ग्राम पंचायतों में सत्ता गांवों के दबंग कुलकों-भूस्वामियों के ही हाथों में केंद्रित रहेगी, आम गरीब अधिकांर-वंचित बने रहेंगे।
जब व्यक्त्यिों को सदाचारी बनने का उपदेश दिया जाता है, तो इस सच्चाई को झुठलाया जाता है कि सामाजिक-राजनीतिक ढांचा व्यक्तियों से ही बनता है, पर अलग-अलग व्यक्ति न तो अपने व्यक्तिगत आचरण से उस सामाजिक ढांचे को बदल सकते हैं, ना ही किसी विशेष सामाजिक ढांचे में वे मनचाहे तरीके से अपना व्यक्तिगत आचार-व्यवहार निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र होते हैं। आर्थिक-सामाजिक ढांचे और राजनीतिक-वैधिक प्रणाली द्वारा निर्धारित संस्कृति एवं आचार का अतिक्रमण अलग-अलग नागरिक व्यक्तिगत तौर पर नहीं कर सकते। कुछ लोग यदि करें भी तो इससे व्यापक स्तर पर कोई बदलाव नहीं आएगा। बुनियादी बात यह है कि राजसत्ता के वर्गचरित्र और समाज की वर्गीय संरचना की अनदेखी नहीं की जा सकती। पूंजीवादी समाज में देशी-विदेशी पूंजीपति उत्पादन के साधनों के स्वामी हैं, राजसत्ता (सरकार, नौकरशाही, सेना-पुलिस, न्यायपालिका, विधायिका) उन्हीं के हितों की सेवा करती है, प्रचारतंत्र और संस्कृतितंत्र पर भी पूंजी का ही नियंत्रण है। 'कंट्रोलिंग टावर' राजसत्ता है। यह बल द्वारा स्थापित है, बल द्वारा चलती है, और बल द्वारा इसे ध्वंस करके तथा बल द्वारा ही अपनी राजसत्ता स्थापित करके बहुसंख्यक उत्पीड़ित जनसमुदाय कानूनी लूट (शोषण-उत्पीड़न-असमानता) और गैर-कानूनी लूट से छुटकारा पा सकता है। निरंतर जारीवर्ग संघर्ष और कुछ-कुछ ऐतिहासिक अंतरालों के बाद सामाजिक क्रांति के प्रचंड तूफानों के द्वारा ही इतिहास आगे डग भरता रहा है, और आगे भी ऐसा ही होगा।
समाज के धनी-मानी लोग -- नेता, अफसर, कारखानेदार, व्यापारी, ठेकेदार आदि जब भ्रष्टाचार से काला धन इकट्टा करते हैं तो वह काला धन देशी-विदेशी बैंकों के जरिए, शेयर बाजार के जरिए निवेशित होकर या रियल इस्टेट और सोने की खरीद में निवेशित होकर पूंजी के परिचलन के चक्र में शामिल हो जाता है। यह एक प्रकार का आदिम पूंजी संचय ही होता है।
लेकिन अक्सर यह एक आम आदमी के भ्रष्टाचार की -- एक चपरासी, एक सरकारी दफ्तर के बाबू, अस्पताल के कर्मचारी, आदि की भ्रष्टाचार की ही चर्चा होती है आम आदमी का आम आदमी के इसी भ्रष्टाचार से रोज-रोज का पाला पड़ता है। यह भ्रष्टाचार आम लोग आदिम पूंजी संचय के लिए नहीं बल्कि अपनी जिंदगी की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने के लिए (जो कि महज तनख्वाह से पूरी नहीं हो पाती) या थोड़े बेहतर ढंग से जीने के लिए करते हैं। फिर ऐसा भी होता है कि एक बार जब राह खुल जाती है और भटक भी खुल जाती है तो और बेहतर, और बेहतर तरीके से जी लेने के लिए, जहां तक संभव हो ''ऊपरी कमाई'' कर लेने की कोशिश एक चपरासी या एक क्लर्क भी करता है। हर समाज में सत्ताधारी वर्ग के विचार और संस्कृति ही जनसाधारण के आचार-व्यवहार को भी अनुकूलित-निर्धारित करते हैं। पूंजीवादी समाज में लोभ-लालच की संस्कृति का सर्वव्यापी वर्चस्व होता है। जिस समाज में किसी भी कीमत पर आगे बढ़े हुए को ही सम्मान मिलता हो, जहां शिक्षा-पद-ओहदा-सम्मान सब कुछ खरीदा-बेचा जाता हो, वहां एक-एक व्यक्ति को सदाचारी बनाने की नसीहत देकर पूरे समाज को दुरुस्त कर देना संभव नहीं है, वहां चंद लोगों के सदाचारी बन जाने से भी पूरे समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार पर भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
वामपंथी ''मुक्त-चिंतक'' स्लावोक ज़जिेक की मूलभूत स्थापनाओं से मतभेद रखते हुए भी उसकी कुछ फुटकल उक्तियां मार्के की मालूम पड़ती हैं। आम समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार के बारे में जिजैक का कहना है : ''लोगों को और उनके रवैये को दोष मत दो''; ''भ्रष्टाचार या लालच समस्या नहीं है, समस्या वह व्यवस्था है जो भ्रष्ट होने के लिए धकेलती है। समाधान यह नहीं है कि ''मेन-स्ट्रीट या वालस्ट्रीट'', बल्कि उस व्यवस्था को बदलना समाधान है जिसमें मेन-स्ट्रीट या वालस्ट्रीट के बिना काम नहीं कर सकता।'' (वालस्ट्रीट न्यूयार्क की वह स्ट्रीट है जहां न्यूयार्क स्टॉक एक्सचेंज स्थित है। 'मेनस्ट्रीट' आम सामाजिक जीवन के रूपक के रूप में इस्तेमाल किया गया है। वॉलस्ट्रीट के बिना मेनस्ट्रीट के चलने का तात्पर्य है वित्तीय पूंजी के वर्चस्व के बिना आम सामाजिक जीवन का चलना।)
समाज में उन्नत क्रांतिकारी चेतना पूरे पूंजीवादी ढांचे को तोड़ने के लिए व्यापक आम जनता की चेतना जब तक जागृत और संगठित नहीं करेगी, जब तक आम जनता की विघटित वर्ग-चेतना अपनी जिंदगी की तमाम बदहालियों-परेशानियों की मूल जड़ पूंजीवादी सामाजिक-आर्थिक ढांचे और राजनीतिक तंत्र में नहीं ढूंढ़ पाएगी, तब तक वह शासक वर्गों की संस्कृति और विचार को ही अपनाकर जीती रहेगी, तब तक आम लोगों से सदाचारी होने की अपेक्षा नहीं की जा सकती और इसका कोई मतलब भी नहीं होगा।
आम जनता के लिए सबसे बड़ा सदाचार और सबसे बड़ी नैतिकता यह है कि वह पूंजीवादी तंत्र को तबाह करके समाजवाद की स्थापना के लिए काम करे क्योंकि पूंजीवाद ही सभी अनाचारों-दुराचारों की जड़ है। जो लोग इस बात को समझ कर व्यापक जनएकजुटता और जनलामबंदी की कोशिशों में लग जाएंगे वे सपने में भी नहीं सोच सकते कि अपने ही जैसे किसी आम आदमी से मौके का लाभ उठाकर कुछ पैसे ऐंठ लिए जाएं। जो पूरी पूंजीवादी व्यवस्था के शोषण उत्पीड़क चरित्र की असलियत नहीं बताते और उसकी तार्किक गति से चरम पर पहुंचे भ्रष्टाचार पर कुछ नियंत्रण लगाने की सुधारवादी कोशिशें करते हैं तथा साथ में जनता को भी सदाचार के उपदेश सुनाते रहते हैं, ये इस अनाचारी व्यवस्था के रक्षक के रूप में स्वयं बहुत बड़े अनाचारी होते हैं। वे सदाचार की टोपी पहनकर पूंजीवादी व्यवस्स्था के जर्जर खूनी चोगे की रफूगिरी व पैबंदसाजी करते रहते हैं और तरह-तरह के डिटर्जेंट इस्तेमाल करके उस पर लगे खून और गंदगी के धब्बे को साफ करते रहते हैं। वे डकैतों के चढ़ावे से बने मंदिरों में बैठकर उत्पीड़ित-वंचित जनता को सदाचार की ताबीज बांटते रहते हैं। वे ऐसे बावर्ची हैं जो सुधारवाद के पुराने व्यंजनों में नए-नए मसाले मिलाकर, उन्हें नई-नई विधियों से पकाकर, नए-नए जायके पैदा करते रहते हैं।
पहली बात यह, यदि संसद सदस्य, मंत्री, अफसर और जज सभी भ्रष्ट हो सकते हैं तो जनलोकपाल के विशालकाय नौकरशाही तंत्र में भ्रष्टाचार के दीमक को घुसने से कदापि नहीं रोका जा सकता
ReplyDeletevery right .