Thursday, July 07, 2011

स्‍त्री होने की दुर्नियति: रोज़मर्रे की जि़न्‍दगी से उठते कुछ सवाल

कई बार कई विवेकवान साथियों के मुंह से भी यह बात सुनने को मिल जाती है कि स्त्रियां अक्‍सर अपने स्‍त्री होने का लाभ उठाती हैं। हालांकि पुरुष प्राय: इसे सभी नहीं बल्कि कुछ स्त्रियों पर लागू करते हैं, जिनकी चेतना ''पिछड़ी'' होती है।
बात सही है उत्‍पीड़‍ित जन यदि पराजित मानसिकता में जीते हैं तो प्राय: इस कुप्रवृत्ति के शिकार होते हैं। लेकिन यदि सापेक्षिक भाषा में बात की जाये तो मैने अपने निजी जीवन में, ''पिछड़ी'' चेतना वाली संघर्षशील आम स्त्रियों के मुकाबले बौद्धिक स्त्रियों को अपने स्‍त्रीत्‍व का लाभ उठाने की कोशिश करते ज्‍यादा देखा है। रूत्रीत्‍व के लाभ कितने रूपों में लिए जाते हैं, इसे एक स्‍त्री काफ़ी अच्‍छी तरह समझ लेती है।
लेकिन इस सवाल या चुभते तोहमत को थोड़ा और व्‍यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्‍य देने की ज़रूरत है। स्त्रियों द्वारा स्‍त्रीत्‍व का लाभ उठाने की बात प्राय: वही लोग ज्‍यादा करते हैं जिन्‍हें यह अहसास तक नहीं होता कि स्त्रियों को स्‍त्री होने का लाभ  उन्‍हें बचपन से लेकर वयस्‍क होने तक कितना मिला और कैसे मिला, तथा हालात ने कैसे कई बार उन्‍हें पुरूष होने का लाभ पहुंचाया। उन्‍हें याद भी नहीं रहता कि कहां-कहां समान परिवेश और आधुनिक माहौल होते हुए भी एक लड़की को वे अवसर नहीं मिलते, जो एक लड़के को। उसकी पढ़ायी-लिखाई, शौक, आज़ादी, योग्‍यता-विकास आदि पर उतना ध्‍यान नहीं दिया जाता जितना लड़के की इन चीज़ों पर दिया जाता है। ''स्‍त्रीत्‍व का लाभ उठाने की वृत्ति'' सबमें नहीं होती, और जहां जिस हद तक होती भी है, तो उसका कारण बचपन से पनपी निराशापूर्ण प्रतिक्रिया होती है, निश्‍चय ही जिसके कारण व्‍यक्तियों में नहीं सामाजिक-पारिवारिक ढांचे और परिवेश में होते हैं।
दस दिन कुछ प्रगतिशील या वामपंथी साथी एक साथ रहें तो औसत निकाला जा सकता है कि चाय बनाने, सब्‍ज़ी काटने, सामानों को व्‍यवस्थित करने, साफ़-सफ़ाई करने और सौदा सुलफ करने के लिए कितनी पहल स्‍त्री साथियों की होती है और कितनी पुरुष साथियों की। हर बार इन गुणों की गृहणीसुलभ कहकर खिल्‍ली नहीं उड़ाई जा सकती। हर बार बौद्धिक व्‍यस्‍तताओं का तर्क नहीं दिया  जा सकता। हर बार परिस्थितियों के तर्क की आड़ नहीं ली जा सकती।
व्‍यस्‍त सांस्‍कृतिक-राजनीतिक अभियानों के दौर में ऐसा देखा जाता है कि शाम को लौटकर पेट-पूजा और साफ़-सफ़ाई के ज़रूरी कामों में स्‍त्री साथी स्‍वयं लग जाती है और अपवादों को छोड़कर, पुरुष साथी कहने पर ही उठते हैं और उनमें से भी ज्‍यादातर अनमनेपन के साथ या कुछ नाराज़ होकर। बहस में ये सवाल हो पाना असम्‍भवप्राय होता है। मुझे लगता है कि बहुत संवेदनशील कम्‍युनिस्‍ट बने बिना पुरुष साथियों को इस बात को अहसास नहीं हो सकता। 'जेण्‍डर' का प्रश्‍न सचमुच एक सतत और दीर्घकालिक सांस्‍कृतिक क्रांति की मांग करता है।
मैंने कई शहरों में स्‍वतंत्र रूप से एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम किया है और हर उस समस्‍या का सामना किया है जो स्त्रियों के सामने आती है। फिर भी ''स्‍त्री होने के लाभ'' वाली टिप्‍पणी यदा-कदा सुनने को मिल ही जाती है। एक बार तो एक साथी ने कहा कि प्रचार अभियानों में स्‍त्री टीमों को स्‍त्री होने के नाते ज्‍यादा 'रिस्‍पांस' और ज्‍यादा सहयोग मिल जाता है। मेरा कहना था कि कत्‍तई नहीं, ऐसा इसलिए होता है कि अपनी सामाजिक उत्‍पीड़‍ित स्थिति के नाते, स्त्रियां एक बार जब विद्रोह की ज़रूरत समझ लेती हैं तो ज्‍यादा साहस के साथ जनता को आहवान करती हैं और ज्‍यादा श्रम-साध्‍य ढंग से अभियान-आन्‍दोलन आदि चलाती हैं। आंदोलनों का इतिहास भी यदि देखे जाएं तो उनमें स्त्रियों की अधिक जुझारू भूमिका उल्‍लेखनीय रही हैं।
मेरा मक़सद यहां 'स्‍त्री बनाम पुरुष' का कोई विवाद पैदा करना नहीं है, न ही यह साबित करना है कि स्त्रियों में पुरुषों से अधिक बहादुरी और कुर्बानी का जज्‍़बा एक शाश्‍वत सत्‍य है जो हर जगह लागू होता है। हम यहां सामान्‍य सामाजिक स्थितियों से उत्‍पन्‍न होने वाली चेतनाओं की सामान्‍य चर्चा कर रहे हैं।
मेरे लिए तो ऐसे कई पुरु ष साथियों का जीवन और व्‍यवहार ही जीवन का सर्वोपरि प्रेरणास्रोत रहा है जो सब्जि़यों की ख़रीदारी, टॉयलेट सफ़ाई, झाड़ू-पोछा, किचेन के काम, सब्जि़यां और फूल-पौधे लगाना और कपड़ों की धुलाई भी उतनी ही रुचि और तल्‍लीनता के साथ करते हैं, जितनी ज़‍िम्‍मेदारी और तल्‍लीनता के साथ अध्‍ययन-मनन-मीटिंगें आदि करते हैं। ऐसे लोगों की सैद्धान्तिक और व्‍यावहारिक राजनीतिक सूझ-बूझ भी क़ायल करती है। ऐसा मार्क्‍सवादी ज्ञान भी किस काम का जो इंसान को ग़ैर-ज़‍िम्‍मेदार, अराजक, आत्‍ममुग्‍ध और असंवेदनशील बनाता हो!

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