Sunday, July 17, 2011

उदास नस्‍लों की तैयार फ़सलें

वयोवृद्ध पूंजीवाद ने समाज की ज़मीन को भांति-भांति के ज़हरीले सांस्‍कृतिक रसायनों से पाटकर इंसानों की तरह-तरह की उदास नस्‍लों की फ़सलें तैयार की हैं। ये फ़सलें खुद भी अपनी ज़मीन को तबाह कर रही हैं, ऊसर बना रही हैं।

चारो ओर अवसाद का अंधेरा छाया हुआ है। खोखली हंसी, मोबाइल पर बतियाते, इण्‍टरनेट पर चैटिंग करते, मशीनों की तरह भागते-दौड़ते, अकेलेपन की रौरव नर्क़ में जीते लोग। आत्‍मनिर्वासित आत्‍माएं। चमकदार चीज़ों के बीच बुझे हुए चेहरे।

पूंजीवाद की शायद यह सबसे बड़ी ताक़त है कि लोग चीज़ों के भीड़ में अकेले हो गये हैं। वे व्‍यस्‍त हैं, वे तमाम अपने जैसे लोगों के बीच हैं, लेकिन अकेले हैं। मन की शांति के लिए वे हास्‍य योग कर रहे हैं पर चतुर्दिक उदासी का सामूहिक अट्टहास गूंज रहा है।

अरे भाई यह अकेलापन आपको मार रहा है। अकेलापन एक जेल है। इस जेल में जीने की आदत मत डालिये। यह धीमी मौत से भी बद्तर है। इस जेल से बाहर निकलने की तरक़ीबें ईजाद कीजिए। टी. वी. का रिमोट रख दीजिए। कम्‍प्‍यूटर के सामने बैठकर आंखें फोड़ना बंद कीजिए। किचेन में जाकर कुछ पकाइये। एक कप बढि़या चाय पीजिए। आस-पास कुछ पेड़-पौधे लगाइये। मामूली लोगों से इतनी दूरी क्‍यों बरतते हैं ? पास वाले मज़दूर बस्‍ती के चाय वाले की बेंच पर जाकर अड्डा जमाइये और गप्‍पें मारिये। वहीं फुटपाथ वाले नाई से दाढ़ी बनवाइये। बस्‍ती के बच्‍चों को पढ़ाना शुरू कर दीजिए। मज़दूरों से उनकी ज़‍िन्‍दगी के बारे में बातें कीजिए। उन्‍हें दोस्‍त बनाइये। इसमें कुछ समय लगेगा, मगर यह मुमकिन है।

इस तरह धीरे-धीरे अवसाद का ज़हर उतर जायेगा। अकेलेपन की दंश की पीड़ा कम हो जायेगा। आप एक बार फिर सहज-सामान्‍य मानवीय गुणों को अपने भीतर महसूस करने लगेंगे। जब आप इंसान की तरह जीना सीख जायेंगे, तो उन तमाम लोगों की लड़ाई में शामिल होने की ज़रूरत शिद्दत के साथ महसूस करने लगेंगे जो इंसान की तरह जीना जानते हैं, जीना चाहते हैं, लेकिन हाड़-तोड़ मेहनत वाली दिहाड़ी गुलामी, अभाव और अनिश्‍िचतता के कारण ऐसा कर नहीं पाते। उनके लिए जीने की शर्त है विद्रोह करना। उनके विद्रोह में भागीदार बनकर आप भी अपनी ज़‍िन्‍दगी के नये मायने ढूंढ सकते हैं, उसकी खूबसूरती को नये सिरे से पहचान सकते हैं और उसकी सार्थकता एवं सृजनशीलता का नये सिरे से संधान कर सकते हैं।

1 comment:

  1. क्यूं सुना दिया जाता है हर बार
    पुराना चुटकुला
    क्यूं कहा जाता है कि हम जिन्दा है
    ज़रा सोचो -
    कि हममे से कितनों का नाता है
    जिंदगी जैसी किसी चीज़ के साथ!


    पाश की कविता, 'मैं पूछता हूं' से

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