
... आगे उनके जीवन का ढंग-ढर्रा बदला। इसमें कोशिश से अधिक इत्तफाक की भूमिका रही। कुछ लोग मिले। जीने का नया ढंग व नया मक़सद मिला। नये सपने जन्मे। पर अंधेरी दुनिया की सीलन भी आत्मा के अंधेरे कोने-अंतरों में बैठी रही।
विद्रोह ने जीवन की नयी राह दिखायी। परिवेश बदला। शहर बदले। सपने बदले। जीने का मक़सद बदला। एक बड़े आकाश में उड़ने के लिए उन्होंने पंख खोले। पर पैरों में कस्बाई कूपमण्डूकता का चिपचिपा कीचड़ लिथड़ा रहा। वह आत्मा तक को प्रभावित करता रहा। जद्दोजहद ज़ारी रही। अभी भी ज़ारी है।
... पर पुराने छोटे शहरों और कस्बों की स्मृतियां आज जिनके दिलो-दिमाग में सुरक्षित है, वहां सिर्फ कूपमण्डूकता का दलदल ही नहीं है। हर स्थिति में द्वंद्व होता है। हर चीज़ के दो पहलू होते हैं। यदि एक 'विज़न', एक आलोचनात्मक विवेक विकसित हो गया हो, तो विशेष तौर पर स्त्रियों के लिए छोटे-छोटे शहरों और कस्बों की दु:स्वप्न सरीखी स्मृतियां अनुभव की अमूल्य संचित निधि बन जाती हैं।
मैं कस्बाई परिवेश में पली-बढ़ी उन्हीं पांच बहनों में से एक हूं। मेरे छोटे से शहर ने मुझे परिवार से लेकर सड़कों तक पर अपने स्त्री-अस्तित्व की रक्षा के लिए लड़ना सिखाया। यंत्रणा के इस रहस्य भरे इतिहास को कोई मर्द, जब तक कि वह असामान्य मानवीय और काव्यात्मक संवेदना से लैस न हो, या एक आदर्श कम्युनिस्ट न हो; तब तक समझ ही नहीं सकता। मैं भी बच्ची ही थी, पर हालात ने मुझे असमय ही एक बच्चे की देखभाल और घर की साज-सम्भाल करने वाला वयस्क बना दिया। समाज की पुरूष दृष्टि ने स्त्री होने का अहसास दिलाया। जिनकी थोड़ी-बहुत प्रिय भी थी, उनके लिए मेरे वजूद की कोई अहमियत नहीं थी। जीवन का अपना कोई निजी, आरक्षित कोना ही नहीं था, जहां बैठकर मैं कुछ सोचती और कुछ सपने देखती। कोई मुझे इस लायक भी नहीं समझता था कि मुझसे कोई गम्भीर बातें करें। या तो दिखावे में जीना था या लोगों को खुश रखने के जतन करने थे, या बनावटी मासूमियत या बचपने का प्रदर्शन करना था, या फिर प्रतिक्रिया में सुलगते रहना था। अभाव था पर आत्मकातरता नहीं थी।
औपचारिक तौर पर राजनीतिक काम तो मैं काफ़ी पहले करने लगी थी, पर वह तो भीड़ में शामिल होने जैसा था। बस कुछ रुटीनी कामों में वक्त काटना। वह दौर भी निराशा और गतिरोध का था। संभलते-संभलते उम्र का एक बड़ा हिस्सा तमाम हो गया। फिर शहर बदलते रहे, सोच पकती रही। एक ज़िद थी। अपने बूते कुछ करना है। इस जिद ने कभी-कभी व्यक्तिवाद और अहंकार का भी रूप लिया। लेकिन अपने बूते जीना सीखा। जाहिर है कि इस यात्रा में विश्वासघातों, अपूर्ण सपनों, अधूरी कामनाओं, मोहभंगों और निराशाओं की उन सभी त्रासदियों से गुज़रना हुआ, जो इन स्थितियों में किसी स्त्री के लिए आम बात होती है। मेरा अतीत मुझे वर्तमान से लड़ने की ताक़त और हठ देता है। क्या पता अभी कितने सोतों का पानी चाहिये कूपमण्डूकता का पंक धोने के लिए! पर यात्रा ज़ारी है। अपने कस्बाई अतीत के अंधकार को मैं याद रखना चाहती हूँ। उससे मुझे ताक़त मिलती है।
जिन्होंने जीवन के अंधकार को देखा-भोगा नहीं, वे आसानी से कस्बाई कूपमण्डूकता को धिक्कार देते हैं। नसीहत देने से अधिक आसान और मज़ेदार काम शायद ही कुछ और हो। उस अंधकार से उबरकर आने वालों को कृपया इतना तुच्छ न समझें। उनके भीतर एक ज्वालामुखी सो रही होती है।
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