मेरी कविता 'एक मध्यवर्गीय विद्रूप काव्यात्मक विडम्बना' का नेपाली भाषा में अनुवाद किया है नेपाली कवि कामरेड Bala Ram Timalsina ने। पाठकों की सुविधा के लिए नीचे मूल कविता भी दे दी गयी है।
एउटा मध्यवर्गीय विद्रूप काव्यात्मक विडम्बना
**"****
©Kavita Krishnapallavi
जस्तो कि -
कायरता त हाम्रो रगतमै थियो
अनि पर्खेर बस्नु हाम्रो जीवन थियो ।
प्रार्थना पत्रहरू र निवेदनहरूको भाषा
हामीलाई ओखतीको रुपमा पियाइएको थियो
अनि सामान्य मानिसहरू प्रति अलिकति दया
र कृपालुता नै
हाम्रो प्रगतिशीलता थियो ।
हाम्रो दुनियादारीलाई
मानिसहरूले सेवाभाव सम्झने गल्ति गर्थे
हाम्रो क्रुरता हाम्रो साँघुरो सोच जति नै थियो ।
हामी अत्याचार र मूर्खता भन्दा
जति टाढा देखिने गर्दथ्यौं या देखाइन्थ्यो
त्यति टाढा पनि थिएनौं
जब अत्याचारको वर्षा हुने गर्दथ्यो
र केही कुरा बोल्नु भनेको
ज्यान खतरामा होम्नु हुन जान्थ्यो
हामी चलाखी पूर्वक अराजनीतिक भैदिन्थ्यौं
या त कला र सौन्दर्यका अतिशय आग्रही,
या प्रेम,करुणा,अहिंसा,मानवीय पीडा,
या आफैलाई बदल्ने आदि कुरा गर्न थाल्दथ्यौं।
अनि मानिसहरू यो कुरालाई
हाम्रो सादगी , भोलाभालापन
या अति संवेदनशीलता बुझ्ने गर्दथे ।
थाहा छैन ,
हामी दुर्दान्त वनवासी तपस्वी थियौं
या कलाका असाध्य वीणाका
अप्रतिम साधक थियौं
या आफ्नो हृदयलाई
कुनै अग्लो शमीको रुखको टोड्कामा राखेर
भेष बदलेर बस्ती बस्ती डुल्ने
कोइ मायावी अमानुष थियौं
या त केवल एउटा दीर्घजीवी कछुवा नै थियौं ।
तर यति कुरा चै प्रष्ट थियो कि
हामी भित्र मनुष्योचित कुरा
केही पनि बाँकि थिएन ।
हाम्रा आत्माका आँखाहरू थिएनन्
न त कानहरू नै थिए ।
अँ ,
कविता भने हामी निकै राम्रा लेख्ने गर्दथ्यौं ।
**
मूल हिन्दी कविता
एक मध्यवर्गीय विद्रूप काव्यात्मक विडम्बना
कायरता तो जैसे हमारे ख़ून में थी
और इन्तज़ार करना हमारा जीवन था।
प्रार्थना पत्रों और निवेदनों की भाषा
हमें घुट्टी में पिलायी गयी थी
और मामूली लोगों के प्रति थोड़ी दया और कृपालुता ही
हमारी प्रगतिशीलता थी।
हमारी दुनियादारी को लोग
भलमनसाहत समझते थे।
संगदिली हमारी उतनी ही थी
जितनी कि तंगदिली।
अत्याचार और मूर्खता से उतने भी दूर नहीं थे हम
जितना कि दिखाई देते थे और दिखलाते थे।
जब ज़ुल्म की बारिश हो रही हो
और कुछ भी बोलना जान जोखिम में डालना हो
तो हम चालाकी से अराजनीतिक हो जाते थे
या कला और सौन्दर्य के अतिशय आग्रही,
या प्रेम, करुणा, अहिंसा, मानवीय पीड़ा,
ख़ुद को बदलने आदि की बातें करने लगते थे।
और लोग इसे हमारी सादगी और भोलापन
समझते थे या अतिसंवेदनशीलता।
न जाने हम दुर्दान्त तपस्वी थे वनवासी
या कला की असाध्य वीणा के अप्रतिम साधक
या अपना हृदय किसी ऊँचे शमी वृक्ष के कोटर में
रखकर भेस बदलकर बस्तियों में घूमने वाला
कोई मायावी अमानुष
या महज एक दीर्घजीवी कछुआ,
लेकिन इतना तय था कि कुछ भी
मनुष्योचित नहीं रह गया था
हमारे भीतर।
हमारी आत्मा की आँखें नहीं थीं
और न ही कान।
हाँ लेकिन कविताएँ हम
बहुत सुन्दर लिख लेते थे।
**

No comments:
Post a Comment