Monday, May 19, 2025

एक बेचैन नींद का क़सीदा

 


मेरी बाँयी ओर

पड़ी है धूल-धूसरित  नींद

ख़ून में लथपथ

बेचैन छटपटाती हुई

एक अधूरी छूट गयी कविता की तरह

अंजाम तक न पहुँचे किसी अफ़साने की तरह

बरसाती नदी में बह गये डाकिये के थैले में

क़ैद किसी बेचैन प्रेमपत्र की तरह

छत पर पड़ी एक घायल पतंग की तरह

बीच-बीच में हवा के झोंकों से सिहरती

आसमान में अपनी फड़फड़ाहट को याद करती। 

तानाशाह अत्याचार करते-करते 

थककर निढाल हो जाते हैं

लेकिन षड्यंत्र और विद्रोह के भय से

सोते नहीं। 

कुचल दिये गये लोग

जबतक जागने की आदत न डालें

तबतक एक सुकूनतलब नींद 

उन्हें नसीब नहीं होती। 

जागने और सोने के बीच झूलने को

अभिशप्त होते हैं वे लोग तबतक

जबतक कि फिर से उठ खड़े होने के बारे में

सोचना शुरू नहीं कर देते। 

एक सच्चे कवि की बेचैन नींद भी

जागती रहती है

अँधेरे जैसे उजालों में

जब लोग जगे रहते हैं

सोने रहने की तरह। 

**

(19 May 2025)


No comments:

Post a Comment