लेकिन हम माँग किससे रहे हैं? यह तो हमारा काम है! हम सब मामूली लोगों का काम है!
रोटी, इंसाफ़, बराबरी और आज़ादी!
इनके लिए एक लम्बी लड़ाई लड़नी होगी। वक़्ती नाक़ामयाबियों और शिकस्तों से मायूस होने की जगह ज़रूरी सबक लेने होंगे, फिर से उठ खड़े होना होगा और नये सिरे से लड़ना होगा।
सबसे बड़ी बात है कि अपने भीतर के डर, निराशा, असम्पृक्तता और स्वार्थपरता से लड़ना होगा। हमें आम मेहनतकश जनता से जुड़ना होगा।
जनता ही इतिहास-निर्मात्री शक्ति है।
लेकिन उसे जागृत, गोलबंद और संगठित करने के लिए उसके हिरावल दस्तों की ज़रूरत है। इंसाफ़पसंद बुद्धिजीवी क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी बनकर यह भूमिका निभाने की पहल कर सकते हैं। अगर वे ऐसा करेंगे तो संघर्षों की पाठशाला में सीखते हुए मज़दूर वर्ग और मेहनतकश अवाम के भीतर से भी उनके ऑर्गेनिक बुद्धिजीवी पैदा होने लगेंगे।
सबसे बड़ी बात है कि हमें अँधेरे रसातल के अभिशप्त निवासियों को फिर से सपने देखना सिखाना होगा, नयी मुक्ति परियोजनाएँ गढ़ने की स्थापत्य कला सिखानी होगी और उन्हें अमली जामा पहनाने की व्यावहारिक शिक्षा देनी होगी।
पूँजीवाद नश्वर है! इतिहास की हर सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था की तरह! अनश्वर सिर्फ़ जनता है!
कोई भी विचार, दर्शन या कला-साहित्य जो दबे-कुचले लोगों को अन्याय के विरुद्ध लड़ने की दृष्टि, दिशा और प्रेरणा नहीं देता, वह खाये-अघाये लोगों का शग़ल है, खलिहर लोगों का बतकुच्चन है, परजीवी आचार्यों का बुद्धि-विलास है, चण्डूखाने की गप्पबाज़ी है, हत्यारों के दरबारी और बिके हुए बौद्धिकों की बदमाशी है और आम लोगों के लिए बस घोड़े की लीद है, सूअर का गू है।
अलौकिक, अराजनीतिक कला दृश्य-अदृश्य ज़ुल्मों और हत्याओं के
औचित्य-प्रतिपादन का औज़ार होती है। वह फौजी बूटों, बंदूकों, जेलों, यंत्रणागृहों से कम ख़तरनाक नहीं होती। अन्याय, अत्याचार और बर्बरता के घटाटोप में
जनता को लड़ने की जगह "निष्कलुष" प्रेम और शान्ति का पाठ पढ़ाने वाला कला-साहित्य दमन के नंगे हथियारों से भी अधिक ख़तरनाक होता है। वह यथास्थिति को स्वीकारने के लिए जनसमुदाय का मानसिक अनुकूलन करता है।
यह बात आज भी उतनी ही सही है जितनी पहले कभी सही थी। कुछ बातें कभी पुरानी नहीं पड़तीं!
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(7 Apr 2025)
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