Monday, November 27, 2023

'अटैचमेंट' के साथ 'डिटैचमेंट' ...


 

'अटैचमेंट' के साथ 'डिटैचमेंट' को भी जानना -समझना ज़रूरी होता है। द्वंद्वात्मक पहुँच व  पद्धति यही बताती है। अटैच हम सहज ही हो जाते हैं। डिटैच होने का अभ्यास करना होता है। डिटैच होना नफ़रत करना नहीं है। नफ़रत भी सम्पृक्ति है, 'इनवॉल्वमेंट' है। डिटैच होना बस चीज़ों या लोगों से अपने को विलग कर लेना है। डिटैच्ड होने के बाद आदमी स्थितप्रज्ञ हो जाता है। तब जीवन-जगत की सूक्ष्म और व्यापक समस्याओं पर सोचने की तमीज़ हासिल करना और उसका अभ्यास करना आसान हो जाता है। उन क्षुद्रताओं और चालाकियों पर ध्यान नहीं जाता जो आपकी रचनात्मक ऊर्जा को सोखते रहते हैं। ज़िन्दगी अगर सार्थक और सर्जनात्मक ढंग से जी जाये तो बहुत ही छोटी होती है। करणीय और अकरणीय को अलगाना और करणीय कामों की प्राथमिकता तय करना बहुत ज़रूरी होता है।

यह बात मैंने कुछ लोगों से जानी, जिन्हें जीवन में अपना शिक्षक माना। हालाँकि अहसास के सापेक्षत: गहरे धरातल पर इसे समझने में बहुत वक़्त लगा। और अभ्यास अभी भी जारी है। जब भी कोई एक नयी आदत दिमाग़ के बाड़े में घुसाने की कोशिश करो तो पुरानी आदतें जंगली कुत्तों की तरह गिरोह बनाकर दरवाज़े पर अड़ जाती हैं और हमलावर तेवर में दाँत निकालकर गुर्राने लगतीं हैं। फिर उस बाड़े में नये बाशिंदे को बसाने के लिए पुराने चौधरियों की मोटे डंडे से ख़बर लेनी पड़ती है। 

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(डायरी का एक इन्दराज)

(27 Nov 2023)

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