Thursday, December 22, 2022

समान परों के पक्षी साथ उड़ रहे हैं!


घिनौनी हदों तक लिजलिजे, दोमुंहे, रीढ़विहीन सरीसृपों से हिन्दी साहित्य संसार भरा हुआ है, जैसे बजबजाती गंदी नाली में कीड़े किलबिला रहे हों! बरसात में  कीचड़ भरी सड़कों पर सरकते केंचुओं की तरह सभी पद-पीठ-पुरस्कारों की दिशा में रेंगते चले जा रहे हैं, उस ओर जहाँ हत्यारे फासिस्टों के सांस्कृतिक प्रतिनिधि उनका इंतज़ार कर रहे हैं! 

यक़ीन न हो तो बद्रीभगवानारायन को फेसबुक पर बधाई देने वालों और उनकी कविता और लेखन की प्रशंसा में लोटपोट पोस्ट लिखने वालों के और इन सब पर लाइक ठोंकने वालों के चेहरे पहचानिए! मैं बीच-बीच में उठकर थूकती हुई इन सबका सर्वेक्षण कर रही हूँ! और हाँ, अजय तिवारी की बद्री को बधाई देने वाली पोस्ट तो ज़रूर देख लीजिएगा! कौन अजय तिवारी? अब इतना भी नहीं जानते तो क्या बताऊँ! दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग का इतिहास-भूगोल जानने वाले किसी जानकार से पूछ लीजियेगा! 

एक बार फिर देख लीजिए, किसतरह समान परों के पक्षी साथ उड़ रहे हैं! आपको क्या लगता है, इन लोगों के दिलों में मेहनतकश अवाम के प्रति एकजुटता की कोई  भावना है? इंसाफ़ और बराबरी का कोई सपना और उसके लिए जूझने का जज्बा है? फासिस्टों से कोई नफ़रत है? मनुष्यता से कोई प्यार है? समाजवाद के प्रोजेक्ट के पुनर्निर्माण के प्रति कोई विश्वास और प्रतिबद्धता है? -- कत्तई नहीं! ये सड़ती हुई, संक्रमण फैलाती लाशें हैं! 

अगर आप एक ऊर्जस्वी, बहादुर, संवेदनशील युवा सृजनकर्ता हैं तो इन सड़ती हुई लाशों की बौद्धिक बस्ती से, जितनी जल्दी हो सके, निकल लीजिए! यहाँ रुकेंगे तो बौद्धिक-नैतिक विषाणु-संक्रमण से मर जायेंगे, या फिर किसी एक रात सड़कों पर घूमते सांस्कृतिक जोम्बी आपका दिल और दिमाग़ -- दोनों निकाल कर खा जायेंगे!

(22 Dec 2022)

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